शुक्रवार, 20 दिसंबर 2019

पढ़े लिखों का अनपढ़ जैसा व्यवहार भ्रष्ट नेता-अधिकारियों का जन्मदाता है







हमारे देश में स्वतंत्रता प्राप्त करने से पहले जो नेताओं की पीढ़ी थी, उसके सामने देश को आजादी दिलाने और देशवासियों की सेवा और वह भी ज्यादातर निस्वार्थता के साथ करने का लक्ष्य हुआ करता था जिसमें वे अक्सर अपनी व्यक्तिगत सम्पत्ति, यदि कोई होती थी, को भी लगा दिया करते थे।


आजादी के कुछ वर्षों बाद तक नेताओं के मन में यही भावना बनी रही लेकिन जैसे जैसे राजनीतिक नेतागीरी फायदे का सौदा दिखाई देने लगी और उससे बिना कुछ ज्यादा मेहनत किए धन, दौलत, शान-शौकत और सब से अधिक अपने पास ताकत होने का नशा सिर चढ़कर बोलने लगा तो उनके रंग ढंग बदलने लगे और सेवा के स्थान पर मेवा पाने की लालसा बलवती होती गयी।



आज जिस तरह राजनीतिज्ञों का पतन देखने को मिल रहा है और अनेकों विभिन्न अपराधों की सजा भुगतनी पड़ रही है, वह इस धारणा की पुष्टि करने के लिए काफी है कि अब अधिकतर लोग नेतागीरी का पेशा केवल इसलिए करते हैं कि उससे उन्हें समाज के नुकसान के बल पर भी मुनाफा होता रहे और वे नागरिकों को मूर्ख बनाने में सफल होते रहें।


शिक्षितों पर अज्ञानता का पर्दा 

यह देखकर दुःख तो होता ही है, आश्चर्य भी होता है कि कैसे पढ़े लिखे होने के बावजूद बहुत से लोग नेताओं के बहकावे में आकर बिना सच्चाई की परख किए हिंसा और सार्वजनिक सम्पत्ति की हानि करने पर उतारू हो जाते  हैं। उदाहरण के तौर पर नागरिक संशोधन कानून को लेकर मेरे एक शिक्षित मुस्लिम मित्र और सहयोगी ने पूछा कि ‘इससे उसकी भारतीय नागरिकता समाप्त हो जाएगी तो वह कहाँ जाएगा, उसके पूर्वज यहाँ पैदा हुए, आजादी के बाद यहीं रहने का फैसला किया और इसे अपना वतन समझकर अब तक जीते रहे, अब उसका और उसके परिवार का क्या होगा, कहाँ जाएँगे हम लोग और यह कहते कहते उसकी आँखों से आँसू बहने लगे !‘


यह पूछने पर कि क्या उसने कानून पढ़ा है, उसका जवाब नहीं में सुनकर उसके सामने जब इंटर्नेट की मदद से समझाया तो उसका मन थोड़ा शांत हुआ लेकिन बाद में टी वी और अखबारों में छात्रों के प्रदर्शन की बात से फिर परेशान हो गया। ये नेता किस तरह जनता को मूर्ख समझते हैं, इसका इससे बड़ा उदाहरण क्या होगा कि सोनिया गांधी के नेतृत्व में कई दलों के नेता ‘चोर चोर मौसेरे भाई‘ की कहावत को सिद्ध करते हुए राष्ट्रपति के पास स्वयं उन्हीं के हस्ताक्षर से बने कानून को वापिस लेने की गुहार लगाने चले गए ताकि जनता को दिखा सकें कि वे कितने संवेदनशील हैं।


प्रियंका गांधी जब यह कहती हैं कि इस कानून से संविधान की धज्जियाँ उड़ा दी गयी है और अरविंद केजरीवाल इस सवाल के जवाब में कि आखिर इस कानून से किसी की नागरिकता पर आँच कहाँ आ रही है,  पलटकर सवाल पूछने लगते हैं कि अभी इस कानून को लाने की जरूरत क्या थी तो इससे स्पष्ट हो जाता है कि इन नेताओं को सब कुछ पता है लेकिन जनता को बरगलाने का कोई भी मौका क्यों छोड़ा जाए ?


इसी तरह चाहे बंगाल की ममता हों या उत्तर प्रदेश की मायावती या अखिलेश हों, यह जानते हुए भी कि इस कानून से भारत में रहने वाले किसी भी मुस्लिम नागरिक की नागरिकता को कोई खतरा नहीं है, केवल जनता को मूर्ख बनाकर अपना उल्लू सीधा करने की खातिर भड़काऊ बयान देते रहते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि जनता चाहे कितनी भी पढ़ी लिखी हो, उसे भ्रम में रखना बहुत ही आसान है।  उन्हें यह भी भरोसा होता है कि आम आदमी के पास दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करने के बाद इतना समय ही कहाँ बचता है कि वह किसी भी मामले की सत्यता को जानने के बारे में सोचे।


पढ़े लिखों के इस व्यवहार से अनपढ़ जनता तो आसानी से बहकावे में आ ही जाती है और दोनों ही अनजाने में अपना अनिष्ट करने पर आमादा हो जाते हैं, लेकिन सब से बड़ा फायदा उनका होता है जो असामाजिक तत्वों की श्रेणी में आते हैं, गुंडागर्दी, लूटखसोट का कारोबार करते हैं और आगजनी से लेकर हत्या तक करने में उन्हें तनिक भी संकोच नहीं होता। उनकी हिम्मत इस वजह से हमेशा बुलंद बनी रहती है क्योंकि लगभग सभी दलों को उनकी अक्सर जरूरत पड़ती रहती है और उनके सिर पर नेताओं का वरदहस्त सदा बना रहता है।



अक्सर यह बात मन में आती है कि उच्च शिक्षित, प्रोफेशनल व्यवसायी से लेकर उद्योगपति तक में से कोई व्यक्ति साधारण परिस्थितियों में राजनीति अर्थात देश को नेतृत्व देने के लिए पहल क्यूँ नहीं करता तो इसका अर्थ यही है कि वे अपने नैतिक और व्यावसायिक मूल्यों के साथ कोई समझौता नहीं कर सकते।


एक बानगी देखिए। पहले तो कोई राजनीतिक दल उन्हें अपनी पोल खुलने के डर से टिकट ही नहीं देगा और अगर मान लीजिए किसी कारण से दे दिया और उसे चुनाव में उम्मीदवार घोषित कर दिया तो सबसे पहले जानते हैं उसका साथ देने उस क्षेत्र से कौन आएगा? उस इलाके का कोई सफेदपोश गुंडा जो अपनी धाक के बल पर अधिक से अधिक वोट दिलवाने की गारंटी लेगा। इसके बदले में जितने भी उसके गैर कानूनी काम हैं, उनके लिए जीत के बाद संरक्षण चाहेगा । उसके बाद अपनी तरफ से चुनाव में खर्च करने के लिए वे स्थानीय व्यापारी अपने पैसों से भरे बैग लेकर आएँगे जो जमाखोरी, कालाबाजारी और
मुनाफाखोरी को ही अपने काम धंधे का मूल मंत्र मानते हैं।


जब हालत यह है तो किसी भी ईमानदार व्यक्ति को बेमन से ही सही, अपने आदर्शों को तिलांजलि देने में डर क्यूँ लगेगा? उन्हें भी जीत के बाद अपनी पूर्ण सुरक्षा चाहिए।


शिक्षित होकर भी रिश्वत देना

अक्सर जब हम किसी सरकारी दफ्तर और आजकल तो पब्लिक सेक्टर से लेकर प्राइवेट  संस्थानों तक में अपना  कोई काम कराने के लिए, जोकि बिलकुल नियमों के मुताबिक होने पर भी, रिश्वत देने के लिए तैयार हो जाते हैं तो इसका कारण भ्रष्टाचार में लिपटा तंत्र तो है ही, साथ में हमारा पढ़ा लिखा होने के बावजूद यह मान लेना है कि रिश्वत तो देनी ही पड़ेगी चाहे हम कितने भी सही हों।


सामान्य नागरिक यह मानकर चलता है कि रिश्वत दिए बिना काम नहीं होगा लेकिन इसके लिए वह बिचैलियों के जाल में फँसकर अपना नुकसान ज्यादा कर लेता है क्योंकि  किसी भी सौदे में दलाली करने को अब एक व्यवसाय का दर्जा मिल चुका है। हालाँकि यह गलत और नैतिकता के खिलाफ है लेकिन आज इन शब्दों का मोल ही क्या रह गया है, इसलिए अपना काम निकलवाने के लिए सीधे ही अधिकारी से तय कर लीजिए कि वह क्या लेकर उसका काम करेगा, कम से कम दलाली तो बचेगी !


लगभग प्रत्येक व्यवसायी, व्यापारी और उद्योगपति के पास ऐसे अनुभवों का पिटारा होगा जिसमें से रिश्वत देकर काम कराने की अनगिनत कहानियाँ निकल पड़ेंगी। बिना रिश्वत दिए या अपने रसूख का इस्तेमाल किए बिना किसी का कोई भी काम समय पर हो गया हो तो इसका उदाहरण ढूँढने पर भी शायद ही मिले, यह चुनौती दी जा सकती है।


क्या करें और क्या नहीं 


यह एक विचित्र स्थिति है। फिर भी इतना तो कर ही सकते हैं कि अपने पढ़े लिखे होने का लाभ उठाकर किसी भी मामले में अपनी प्रतिक्रिया देने या कोई नासमझी भरा कदम उठाने से पहले उस विषय की पूरी जानकारी जुटा लें ताकि कोई आपको अपनी स्वार्थपूर्ति का साधन या अपनी सोची समझी चाल का मोहरा न बना सके। अराजकतावादी और गैर सामाजिक तत्वों से लेकर आतंकवादी तक हमारे भोलेपन का फायदा उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे, यदि हम तनिक भी असावधान रहेंगे।

(भारत)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें