यह स्वाभाविक है कि जब समाज में कोई ऐसी घटना होती है जो चिंता पैदा करने वाली हो, दिल और दिमाग को झकझोर देने वाली हो और देशवासियों को सोच में डाल दे कि क्या अब यही देखना बाकी था तो हम उसकी तुलना करने के लिए इतिहास में घटी ऐसी घटना खोजने लगते हैं जो इस जैसी हो या इसकी तुलना उससे की जा सकती हो।
बगावत या विरोध
यह संयोग ही है कि इन दिनों देश में हो रही कुछेक घटनाएँ स्वतंत्रता आंदोलन के समय घटी वैसी ही घटनाओं की पुनरावृत्ति कही जा सकती है।
एक उदाहरण है: पंजाब केसरी लाला लाजपत राय का जन्म 28 जनवरी को हुआ था और यह उनकी 155वीं वर्षगाँठ थी जो अनेक समारोहों, सरकारी और गैर सरकारी, दोनों में ही मनाई गयी और उनकी स्मृति में उनके कार्यों का उल्लेख किया गया।
लाला लाजपत राय जहाँ स्वदेशी आंदोलन के प्रवर्तकों में थे, वहीं बालगंगाधर तिलक के नारे ‘स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है‘ के अलमबरदारों में भी थे। जब साइमन कमीशन, जिसके सभी सदस्य अंग्रेज थे और वह भारतवासियों के लिए संविधान की बात करने आए थे जो जाहिर है कि उसका विरोध होना ही था।
लाला जी ने उसका इतना जबरदस्त विरोध किया और इसके लिए अभूतपूर्व आंदोलन का नेतृत्व किया कि अंग्रेजी शासन को लाठी चार्ज करना पड़ा और लाला जी को गम्भीर चोटें आईं। उन्होंने सरकार को चेतावनी दी कि उनके शरीर की हरेक चोट अंग्रेजी हुकूमत के कफन की कील साबित होगी।
लाला जी ने एक और नारा लगाया था कि ‘साइमन गो बैक, वापिस जाओ‘। अब देखिए कुछ वैसी ही परिस्थितियों में संविधान संशोधन विधेयक को लेकर दिल्ली के शाहीन् बाग मे इस कानून को वापिस लेने के लिए आंदोलन कर रहे प्रदर्शनकारियों ने कुछ पत्रकारों और सत्तारूढ़ लोगों के लिए यही नारा लगाया ‘गो बैक, वापिस जाओ‘। इसके बाद केरल विधान सभा स.त्र के शुरू होने पर राज्यपाल के भाषण पर भी यह नारा वहाँ के विधायकों ने लगाया ।
यह शायद किसी के लिए भी बताना संभव नहीं है कि राज्यपाल के लिए यह नारा क्यों लगाया जा रहा है क्यंूकि वह तो अपने ही हैं। इसी तरह शाहीन बाग में भी इस नारे के लगने और सरकार विरोधी भाषणों के होते हुए भी इतनी समझदारी तो सरकार दिखा ही रही है कि आंदोलन को कुचलने के लिए अंगरेजो जैसा कोई कदम नहीं उठाया और दोनों ही एक दूसरे को ताक रहे हैं कि कोई सूरत तो निकले जो यह मसला सुलझे।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि लालाजी ने ही कांग्रेसी नेताओं द्वारा हिंदुओं के हितों का बलिदान किए जाने की कीमत पर मुस्लिमों का तुष्टिकरण करने की नीति का विरोध किया था और यही नहीं उन्होंने दिसम्बर 1923 में भारत का विभाजन मुस्लिम और गैर मुस्लिम भारत के रूप में करने का प्रस्ताव दिया था ।
अब एक दूसरी घटना देखिए। जे एन यू छात्र शरजिल इमाम ने देश के टुकड़े करने जैसा लगने वाला बयान दिया और असम और पूर्वोत्तर को पूरे देश से अलग करने तथा गैर मुस्लिमों को मुस्लिमों से खबरदार रहने जैसी बातें कीं तो उसकी गिरफ्तारी के लिए आवाज उठी और उसे पकड़ भी लिया गया और उसे गद्दार मान लिया गया।
शरजिल की तरह ही कुछ दूसरे लोग भी ऐसी बातें कर रहे हैं जो सरकार विरोधी तो हैं लेकिन देश के साथ गद्दारी करने जैसी हैं तो इस बारे में जाँच पड़ताल के बाद ही कुछ कहना चाहिए था लेकिन भाजपा सरकार के एक मंत्री ने फौरन ‘देश के गद्दारों को गाली देते हुए गोली मारने‘ का नारा लगा दिया ।
इसी तरह एक उम्मीदवार शाहीन बाग की तुलना पाकिस्तान से करता है। यहाँ सोचने की बात यह है कि अंग्रेजी शासन में क्रांतिकारी विचारधारा के चंद्रशेखर आजाद और भगत सिंह ने जिस तरह लाला जी के अपमान का बदला लेने के लिए सांडर्ज को गोली मार दी थी, उसी तरह आज भी क्या विरोधी सुरों को शांत करने के लिए गोलीबारी या हत्या करने की दिशा में कोई सोच भी सकता है ?
बापू गांधी अगर होते !
यह संयोग ही है कि लाला जी की जन्मतिथि के बाद राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की पुण्यतिथि तीस जनवरी को आती है। बापू ने अहिंसा को परम ही नहीं राष्ट्र धर्म का भी दर्जा दिया और वे जीवन भर इसी सिद्धांत के प्रतिपादन में लगे रहे। जो उनसे असहमत थे जैसे कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस, वे भी उनका सम्मान एक पिता की ही भाँति करते थे। वैसे सुभाष की याद भी जनवरी में ही 23 तारीख को ताजा हो आती है।
तो फिर आज अगर कोई आजाद हिंद फोज की कल्पना आज के समय में करेगा तो शायद सुभाष भी उससे मुँह फेर लेंगे क्योंकि उन्होंने विदेशी ताकतों का सहयोग भारत की आजादी के लिए माँगा था न कि आजकल हमारे देश के कुछ नेताओं की तरह पाकिस्तान या अन्य देशों का सहयोग अपने देश की सरकार को अस्थिर करने के लिए मांगते। जो नेता चाहे किसी भी दल के हों, अगर अपने अंदरूनी मामलों में दूसरे देशों को लाएँगे तो उसका नतीजा क्या होगा, यह समझने के लिए कश्मीर से बेहतर उदाहरण और क्या होगा ?
आज अगर बापू गांधी होते और उन्हें इस कानून की उलझन को सुलझाना होता तो वे निश्चित रूप से परस्पर बैर बढ़ाने जैसी किसी भी हरकत को न केवल नहीं होने देते बल्कि आंदोलन और प्रदर्शन करने वालों के बीच जाकर बैठ जाते और उनकी बात सुनते और यदि किसी की अनुचित जिद को तोड़ना होता तो अनशन करने से भी पीछे नहीं हटते।
आज न तो आंदोलनकर्मी गांधीवादी हैं और न ही सरकार गांधीवादी अहिंसा पर यकीन करती है क्योंकि उसके लिए जो अपने अंदर अनुशासन और नैतिक नियंत्रण चाहिए, उसके अभाव के कारण जो हो रहा है, वह अराजकता, मनमानी, कट्टरपन और नफरत के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
आजादी क्या है ?
आजादी यही तो है कि जो व्यक्ति को अपने आप से लगाव, जुड़ाव और प्रेम करने का माहौल दे जो किसी की पराधीनता में सम्भव नहीं। इसका अर्थ यह है कि हम अपनी व्यक्तिगत सोच रखने, उसके अनुरूप काम करने और अपने घर परिवार का पालन पोषण करने को अपना अधिकार समझें। इसी तरह हम अपनी सोच के अनुसार काम करने, वोट देने और अपनी मनपसंद सरकार चुनने के लिए स्वतंत्र हों, यही तो आजादी है।
इसे इस तरह आसानी से समझा जा सकता है। उदाहरण के लिए एक तरफ सावरकर, गोलवरकर, दीन दयाल और श्यामा प्रसाद मुखर्जी की सोच है, दूसरी तरफ गांधी, नेहरु, पटेल और मौलाना की सोच है और उससे केवल थोड़ी बहुत वैचारिक विभिन्नताएँ लिए लाला लाजपत राय, विपिन चंद्र पाल, बालगंगाधर तिलक की सोच है। इन सबसे भिन्न सुभाष चंद्र बोस की सोच है।
अलग अलग सोच होते हुए भी यह सब भारत को गुलामी की बेडियों से मुक्त करने के लिए ही आंदोलन कर रहे थे। अब हुआ यह कि आजादी मिलने के बाद अलग अलग विचारधाराओं के मुताबिक उनके अनुयायी हो गए और स्वतंत्र भारत में इन सब को अपना विस्तार करने, उसके लिए प्रजातांत्रिक तरीके से लोगों तक अपनी बात पहुँचाने की आजादी मिल गयी।
यहाँ एक और सोच जिसका आधार रूस और चीन से आयात किया गया था, वह भी यहाँ पनपती रही जो अब वामपंथी कहलाती है, उसका जिक्र भी करना होगा जो अपना लक्ष्य साधने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं।
इन सब का आधार भारतीयता है इसलिए जब इनके बीच संघर्ष होता है तो वह भारत को अपनी सोच के अनुसार दिशा देने का प्रयास होता है लेकिन जब इनकी सोच पर विदेशियों, अलगाववादियों का कब्जा होने लगे तो समझ लीजिए कि इनके पतन का दौर शुरू होने के साथ साथ देश के बिखरने का सिलसिला भी शुरू हो जाता है।
किसी भी समस्या का समाधान तब ही हो सकता है जब अपनी सोच जो भी हो , उसे कुछ देर के लिए एक किनारे रखकर उन लोगों के बीच जाकर यह समझने की कोशिश की जाए कि उनकी सोच क्या है और किस तरह से अपनी और उनकी सोच के बीच तालमेल बिठाया जा सकता है। किनारे पर बैठकर अटकलें लगाने से यह कभी नहीं समझा जा सकता कि कोई विरोध क्यों कर रहा है और उसके पीछे वास्तविक कारण क्या हैं ?
भावनाओं के वशीभूत होकर सरकार और प्रशासन के खिलाफ नारे लगाने, जो किसी को देश विरोधी तक लग सकते हैं, ऐसे नारे लगाने से कोई देशद्रोही नहीं हो जाता जब तक कि यह तय न हो जाए कि उस व्यक्ति के जरिए किसी शत्रु देश या बाहरी ताकत से हमारे देश को तोड़नेवाली साजिश हो रही है।
अगर कोई तीसरा है जो पक्ष और विपक्ष यानी सरकार और प्रदर्शनकारियों को कठपुतली की तरह इस्तेमाल कर रहा है तो यह इतना खतरनाक है कि इसका मुकाबला करने के लिए अपने अपने मतभेद भूलकर उस तत्व को नेस्तनाबूद करना होगा। हमारे आपसी मतभेद तो सुलझ भी जाएँगे लेकिन अगर कोई तीसरा हिंदू मुसलमान को लड़ाकर भारत को तोड़ना चाह रहा है तो यह इतना भयावह है जितना कि देश के बँटवारे का समय था।
(भारत)
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