शुक्रवार, 27 मार्च 2020

स्वास्थ्य के अधिकार को मूलभूत अधिकार बनाने का यही समय है










दुनिया भर में फैली कोरोना वायरस की महामारी ने हमारे देश में कुछ मूल प्रश्नों को जन्म दिया है जिन पर विचार करना आवश्यक हो गया है और अब क्योंकि पूरा देश तालाबंदी में है इसलिए जनता अपने घर बैठकर इस बारे में सोच सकती है कि जब हम बीमारी मुक्त हो जाएंगे तो स्थाई रूप से क्या प्रावधान किए जाएं जिनसे भविष्य में ऐसी किसी आपदा का सुगमता से मुकाबला किया जा सके।

सेहतमंद रहने का मूलभूत अधिकार

हालांकि हमारे संविधान में स्वास्थ्य को लेकर अनेक अनुच्छेदों में इसका जिक्र है लेकिन मूलभूत अधिकार न होने से कोई भी अदालत इनमें कही गई बातों पर सख्ती से अमल नहीं करा सकती। यह वैसा ही है जैसे कि संविधान के मुताबिक बने कानूनों पर अमल करवा पाना इतना मुश्किल है कि दसियों वर्ष तक मुकदमें चलते रहते हैं। दो उदाहरण जो हाल ही के हैं, देने से इस मुश्किल को समझा जा सकता है। एक है संविधान संशोधन कानून का गैर कानूनी विरोध और दूसरा निर्भया के दोषियों को फांसी से बचाने के लिए कानूनी प्रावधानों में खोखलापन होने से लगातार उनका दुरुपयोग।


हमारे देश में ‘सेहत हजार नियामत है, पहला सुख निरोगी काया‘ जैसे मुहावरे प्रचलित हैं। जब हम सेहतमंद रहने के अधिकार को संविधान के मूलभूत अधिकारों में शामिल करने की वकालत करते हैं तो यह समझना जरूरी है कि हमारा प्रत्येक अधिकार हमारे कर्तव्य पालन से जुड़ा होता है जिसके बिना कोई भी अधिकार सफल नहीं हो सकता।


जब विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 70 साल पहले इस पर चर्चा शुरू की थी और यह संगठन का शुरुआती दौर था तो इसे मानव अधिकारों से जोड़कर देखा गया था। मतलब यह कि जैसे हमारे मानवाधिकार होते हैं उसी तरह स्वस्थ रहने का अधिकार भी इससे जुड़ा है।


जरूरत क्यों है ?


भारत में इसे मूलभूत अधिकार बनाने की जरूरत इसलिए है क्योंकि जब भी कोई प्राकृतिक और मानवीय आपदा आती है तो सबसे पहले उसका असर औद्योगिक कामगारों और मजदूरों पर पड़ता है। उनकी बेरोजगारी का  मतलब है जीवन के लिए जरूरी भोजन का इंतजाम खत्म हो जाना अर्थात उनका शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोर होते जाना, सेहत का लगातार गिरते जाना और एक दिन रोजी रोटी के अभाव में बीमार होकर मर जाना।


इस वर्ग के साथ वे भी जुड़ जाते हैं जो सरकारी और निजी दफ्तरों में काम करते हैं और आपदा के समय काम धंधे से निकाले जाने की नौबत आने पर पैसों के आने का रास्ता बंद होने से सबसे पहले खाने पीने की चीजों की कटौती करते हैं और स्वस्थ न रहने से बीमारियों का शिकार होकर शमशान घाट की राह पर चल पड़ते हैं।


बीमारी और संक्रमण

जब पौष्टिक भोजन न मिले, गंदगी में रहना पड़े तो कई तरह के घातक विषाणु शरीर पर हमला कर देते हैं और वह व्यक्ति अपने साथ दूसरों की जिन्दगी के लिए भी खतरा बन जाता है जैसा कि अब हो रहा है क्योंकि अस्वस्थ मनुष्य की रोगों से लडने की ताकत कम होती जाती है जो  पूरे समाज के लिए हानिकारक है।
इन सब बातों को देखते हुए जैसे हमारा जीने का अधिकार है, उसी तरह स्वस्थ रहने का भी मूलभूत अधिकार होना चाहिए जिससे सरकार, संविधान, कानून और समाज की जिम्मेदारी तय हो जाए कि किसी भी मुसीबत के समय नागरिकों को सेहत के नुकसान का सामना न करना पड़े और उसे इतना पैसा और सुविधाएं मिलती रहे जिससे वह स्वस्थ रह सके। इसी के साथ यह गरीब हो या अमीर सब पर समानता के सिद्धांत की तरह लागू हो।



स्वास्थ्य अधिकार की रूपरेखा


इस अधिकार के संविधान का मूलभूत अधिकार बनाने से पहले उसकी रूपरेखा तय करना भी जरूरी है वरना यह भी दिखावटी कानूनों की तरह बेकार हो जाएगा।

कोई भी व्यक्ति स्वस्थ तब ही रह सकता है जब उसे पौष्टिक भोजन, शुद्ध पीने का पानी, प्रदूषण रहित पर्यावरण, शौचालय सुविधा मिलने और बीमार होने पर इलाज करवाने का इंतजाम हो।


यह सब करने के लिए एक विशेष संस्थान बनाना होगा जो यह सब सुविधाएं देने के लिए बनी विभिन्न इकाईयों की नोडल इकाई हो जो किसी भी कारण से किसी भी व्यक्ति को सेहतमंद न रहने की संभावना होते ही तुरंत सहायता करने की पहल करे ताकि उसे स्वस्थ रहने में कोई कमी न होने पाए।


आज हमारे देश में स्वस्थ रहने, बीमार होने पर चिकित्सा कराने के लिए सरकारी और प्राइवेट संसाधन हैं जिनमें डॉक्टर, अस्पताल, नर्सिंग होम, स्वास्थ्य केंद्र, डिस्पेंसरी आदि हैं और इनकी सुविधाएं हैसियत यानी आमदनी से जुड़ी हैं।


अब हुआ यह कि जो धनवान थे उनके  लिए फाइव स्टार अस्पताल बन गए और जो सामान्य आय वाले थे उनके लिए सरकारी अस्पताल रह गए जहां इतनी भीड़ हो गई कि सब का सही इलाज करना असम्भव सा हो गया।
आज जो हम निजी क्षेत्र के डॉक्टरों और अस्पतालों की फीस तथा खर्चे भुगतने में असमर्थ होते जा रहे हैं और बिना सही चिकित्सा के मर रहे हैं तो इसका सबसे बड़ा कारण इन सब पर सरकार का कोई नियंत्रण न होना है। आज किसी भी डॉक्टर की फीस एक बार में पांच सौ के आसपास  से शुरू होकर हजारों में पहुंच रही है। इसी तरह पैथोलॉजिकल लैब के खर्चे आम आदमी के लिए बहुत ज्यादा हो गए हैं।



इसी तरह जो चिकित्सा उपकरण सरकारी अस्पतालों में निशुल्क उपलब्ध हैं, वे प्राइवेट में इतने महंगे हैं कि उनके इस्तेमाल की हिम्मत नहीं होती। जहां एक तरफ एक अनार और सौ बीमार हैं तो दूसरी तरफ एक धनवान के लिए डॉक्टरों और उपकरणों की फौज है।



स्वस्थ रहने का मूलभूत अधिकार होने से ये सब सुविधाएं सब के लिए निशुल्क उपलब्ध कराई जानी होंगी जिसका खर्च सरकार को करना होगा  और सभी प्राइवेट तथा सरकारी सुविधाओं का एक पूल बनाकर इन्हें प्रत्येक के इस्तेमाल के लिए तैयार करना होगा।


इसी तरह दवाइयों, प्रत्यारोपण और दूसरी सुविधाएं भी प्रत्येक के लिए निशुल्क उपलब्ध होंगी।
आज निजी अस्पतालों की लूट खसोट किसी से छिपी नहीं है, उनमें इलाज कराने की हिम्मत बहुत कम लोगों में है, इसलिए जब इन अस्पतालों को मिलाकर एक श्रृंखला में बांध दिया जाएगा तो हर कोई इनमें बेहतर और आधुनिक चिकित्सा सुविधाओं का लाभ उठा सकेगा और इस तरह अपने स्वास्थ्य की रक्षा कर सकेगा क्योंकि यह तब उसका मौलिक अधिकार होगा।

आज ऐम्स जैसे अस्पताल क्यों नहीं देश की जरूरत के मुताबिक खुल रहे तो कहीं इसका कारण यह तो नहीं है कि उनके खुलने से प्राइवेट अस्पतालों का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा और यह अस्पताल के नाम पर जो व्यापार हो रहा है, वह बंद हो जाएगा ?


स्वास्थ्य सुरक्षा की गारंटी


स्वस्थ रहने का अधिकार मिलने पर प्रत्येक व्यक्ति के स्वस्थ रहने की गारंटी हो जाएगी। यदि कोई अपनी लापरवाही से स्वस्थ नहीं रह पाता या उसका परिवार इसमें कोई चूक करता है तो उसे दंडित किया जा सकता है क्योंकि स्वस्थ रहना एक स्वस्थ राष्ट्र का पैमाना बन जाएगा।
जरा सोचिए जब सरकार स्वस्थ रहने की गारंटी देगी, सभी को समान स्वास्थ्य सुविधाएं मिलेंगी तो ऐसे हालात बनने में कितनी देर लगेगी जिनसे किसी भी आपदा के समय पूरे देश को स्वस्थ रखा जा सकेगा? क्या इस अधिकार से देश की उत्पादन क्षमता नहीं बढ़ेगी? क्या स्वस्थ नागरिक राष्ट्रीय आय में वृद्धि नहीं करेंगे और देश शिक्षा, रोजगार, अनुसंधान के क्षेत्र में विकसित राष्ट्र बहुत कम समय में नहीं बन जाएगा ?


भारत

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