शुक्रवार, 5 मार्च 2021

दंगा फसाद और अंधेर नगरी चौपट राजा की मिसाल

 

हमारे देश में दंगे विशेषकर वे जिनका आधार विभिन्न धर्मों के अनुयायियों की धार्मिक भावनाओं को ठेस लगना हो और अचानक वे एक दूसरे को मारने मरने के लिए दुश्मनी का रास्ता अपना लें तो समझना चाहिए कि कहीं तो कुछ ऐसा है जिससे  कल तक एक दूसरे के पड़ोसी रहे, अचानक शत्रु क्यों बन गए ?

जहां तक दंगों का इतिहास है तो इसकी शुरुआत भारत विभाजन के दौरान हुए भीषण रक्तपात से लेकर फरवरी 2020 में हुए दिल्ली के एक खास इलाके में हुए हिंदू मुस्लिम संघर्ष तक जाती है।

जो पीढ़ी इन दंगों की साक्षी रही है और जिन्होंने अपनी आंखों के सामने मारकाट होते देखी है वे इस बात से सहमत होंगे कि इनके पीछे जो सबसे बड़ा कारण है, वह यह है कि एक ऐसी अफवाह फैला दी जाती है जो एकदम झूठ होती है लेकिन लोगों को सच्ची लगती है और जब तक सच्चाई सामने आए तब तक विध्वंस हो चुका होता है।

सरकार पर सवालिया निशान    

प्रश्न उठता है कि इस प्रकार की अफवाहों को फैलने से रोकने के लिए हमारा खुफिया सरकारी तंत्र क्या कर रहा था कि उसे इसकी भनक तक नहीं लगी और अगर उसे पता था तो समय पर कार्यवाही क्यों नहीं की ?  क्या उस पर किसी तरह का दवाब था कि हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाए और कुछ न करे, क्या अफवाह से होने वाली हानि का अनुमान तक नहीं लगा पाई और इसलिए उसने इसे हलके में लेकर कुछ नहीं किया ?

इन प्रश्नों के उत्तर जानने से पहले यह समझ लीजिए कि हमारा खुफिया तंत्र बहुत विशाल है और ऐसा संभव नहीं है कि कोई अफवाह उसकी जानकारी में आने से बच जाए। हमारे यहां सीबीआई है जो इंटरपोल के बराबर है, एनआईए है जो कहीं भी जाकर किसी को भी तनिक सा संदेह होने पर हिरासत में ले सकती है, राज्यों की अपनी सीआईडी टीम हैं, रॉ है जो अंतरराष्ट्रीय साजिशों की निगरानी करती है। ये संस्थाएं लगभग पच्चीस हैं जिनमें आयकर, आर्थिक घोटाले, सूचना तंत्र का नियंत्रण तथा सभी कुछ आता है। इन संस्थाओं पर अपराधों को होने से पहले रोकने और अगर हो जाएं तो अपराधियों को पकड़ने, सजा दिलाने की जिम्मेदारी है।

दिल्ली के दंगों का फिल्मांकन

अब हम बात करते हैं पिछले साल दिल्ली में हुए दंगों को लेकर फिल्मकार कमलेश मिश्रा की फिल्म की जो उन्होंने दंगों के बाद बनाई थी लेकिन लॉकडाउन के कारण अब दर्शकों को दिखा पाए हैं। उनके निमंत्रण पर फिल्म देखी और कुछ सवाल मन में आए जो जानने जरूरी हैं।

इस फिल्म में दंगों के दौरान हुई तबाही के दृश्य हैं, किस तरह बरसों से साथ रह रहे पड़ोसी अचानक एक दूसरे की जान लेने पर उतर आए।  जो लोग मारे गए, उनके परिवार के लोगों का मार्मिक रूदन है, आंखों को नम करने वाले और मन में क्रोध का उबाल पैदा कर सकने की ताकत रखने वाले बयान हैं, करोड़ों की संपत्ति ख़ाक में मिला दिए जाने और अपना कारोबार, व्यापार, दुकान, दफ्तर, स्कूल, शिक्षण संस्थान सब कुछ लूट लिए जाने की दास्तान हैं, जिंदगी भर की कमाई नष्ट कर दिए जाने के प्रमाण हैं, पुरुषों, महिलाओं, बच्चों की आंखों में बेबसी की झलक है और ऐसा बहुत कुछ है जो किसी को भी सोचने के लिए मजबूर कर दे कि हम किस युग में जी रह रहे हैं और क्या बिना डरे और सहमे जिया जा सकता है?

इस फिल्म को अदालत में एक साक्ष्य के रूप में भी रखा जा सकता है, अगर यह दंगों पर निर्णय देने के लिए जिम्मेदार न्यायपालिका चाहे क्योंकि यह एक ऐसा दस्तावेज है जो न्याय करने में सहायक हो सकता है।

अफवाह का मायाजाल

इस फिल्म के बारे में ज्यादा कुछ न कहते हुए अब हम इस बात पर आते हैं कि इन दंगों के पीछे क्या था, दामन के नीचे क्या छुपा था और वह किसी को दिखाई क्यों नहीं दिया, अगर पता था तो पहले से कार्यवाही क्यों नहीं हुई ?

इन दंगों की पृष्ठभूमि में एक अफवाह यह थी कि पांच मार्च को मुसलमानों को देश निकाला दे दिया जाएगा इसलिए सरकार को सबक सिखाया जाए। इसके लिए समय और तारीख ऐसी तय की गई जो दुनिया के सबसे शक्तिशाली कहे जाने वाले देश अमेरिका के राष्ट्रपति के भारत दौरे के लिए रखी गई थी। इसे उस समय सुरक्षा एजेंसियों का ध्यान बांटने की कोशिश कही जा सकती है या अमेरिका की नजरों में भारत की छवि धूमिल करने का लक्ष्य हो सकता है या फिर पूरे देश को सांप्रदायिक हिंसा में झोंक देने की कवायद हो सकती है !

अब एक बार फिर इस फिल्म के उन दृश्यों के बारे में बताते हैं जो गवाही देते हैं कि राजनीति के चोले में छिपे नेता, सामाजिक कार्यकर्ता का लिबास पहने एक्टिविस्ट और धर्म का लबादा ओढ़कर आतंक का कारोबार करने वाले सौदागर एक जगह मिलकर सरकार को पलटने का प्रोग्राम बना रहे हैं। इन दृश्यों में छतों पर जमा ईंट पत्थर, पेट्रोल बम, गुलेल और हथियार हैं जो हिंसा करने में इस्तेमाल हुए और सड़कों पर वाहनों का कब्रिस्तान बनाने, लोगों को लाशों में तब्दील करने तथा मकान, दुकान, बिल्डिंग, कारखानों को मलबे का ढेर बनाने में कामयाब हुए।

यह सब इंतजाम कुछ मिनटों या घंटों में नहीं हो सकता था, इसके लिए कई दिन लगे होंगे और यह सब करने के लिए प्लानिंग हुई होगी, पैसे और रसूख का इस्तेमाल हुआ होगा और लोगों के मन में शंका भी हुई होगी कि कुछ अनर्थ होने वाला है।

अनसुनी दास्तान

उल्लेखनीय है कि रिकॉर्ड के मुताबिक लगभग 700 कॉल पुलिस का ध्यान दिलाने के लिए जागरूक नागरिकों द्वारा 23 फरवरी को की गई थीं जिन पर ध्यान नहीं दिया गया। उससे पहले भी संदिग्ध सामग्री ले जाए जाने और कुछ खास स्थानों पर रखे जाने की सूचना पुलिस को दी गई थी। पांच मार्च की अफवाह की जानकारी पूरे तंत्र को थी। नागरिकता कानून के विरोध में आंदोलन चल ही रहा था और सुरक्षा एजेंसियों से इस सब की जानकारी होने की उम्मीद प्रत्येक नागरिक को थी और उसे अपनी जान और सम्पति की हिफाजत किए जाने का भरोसा था।

यह सब होते हुए इतने बड़े पैमाने पर हिंसा हो जाना अपने आप में हमारे खुफिया तंत्र पर सवालिया निशान लगाता है कि उसके फैलाव की विशालता और असीमित शक्तियों के बावजूद यह कांड हो जाना क्या चिराग तले अंधेरा होने की कहावत चरितार्थ नहीं करता ?

अब हम एक दूसरी घटना का जिक्र करते हैं जो इस वर्ष छब्बीस जनवरी को दिल्ली में लालकिले पर एक धार्मिक झंडा फहराने और भयंकर हिंसा करने की पूरी तैयारी के साथ हुई। हो सकता है कि सुरक्षा एजेंसियों, पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों को इस बात की जानकारी हो और उसने पुलिस को कोई कार्यवाही न करने की हिदायत दी हो। यह सोचकर ही सिहरन हो जाती है कि उस दिन अगर सुरक्षा बलों ने समझदारी न दिखाई होती तो दिल्ली आग में झुलस जाती।

इन दोनों घटनाओं से यह स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि यदि प्रशासन चाहता तो दिल्ली में हुए दंगों को होने से रोका जा सकता था जैसा कि इस बार हुआ।

यहां हम एक दूसरे देश इजरायल की एक घटना का जिक्र करते हैं जो वहां की गुप्तचर एजेंसी मोसाद के बारे में है। इसका वर्णन इसी शीर्षक की पुस्तक में है जो इस प्रकार हैः

साठ के दशक में मोसाद को पता चलता है कि पड़ोसी इजिप्ट में जर्मनी के वैज्ञानिकों की मदद से ऐसे हथियार तैयार किए जा रहे हैं जिनसे इजरायल को हमेशा के लिए नेस्तनाबूद किया जा सकता है। इनमें ऐसे केमिकल, कीटाणु और गैस छोड़ने की योजना है जो इजरायल की आबादी को मारने, हमेशा के लिए अपाहिज बना देने और सभी इमारतों को ध्वस्त करने के लिए बनाई गई है। मोसाद को इसकी छानबीन करने की जिम्मेदारी दी जाती है। उसे पता चलता है कि इसमें केवल इतनी सच्चाई है कि इजिप्ट में यह सब कुछ हो तो रहा है और इसमें जर्मनी के वैज्ञानिक शामिल हैं लेकिन वे इतने काबिल नहीं कि ये सब हथियार बनाने में सफल हो सकें। इनमें हिटलर के नाजी अत्याचारों में भूमिका निभाने वाले भी थे और इजिप्ट को उनकी योग्यता पर भरोसा था।

मोसाद ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कार्यवाही करते हुए इस साजिश का खुलासा किया, अपने देश की सुरक्षा का भरपूर प्रबंध किया और दुनिया को संदेश दिया कि कोई भी देश इजरायल को हलके में लेने की गलती न करे।

अब एक बार फिर दिल्ली के दंगों पर आते हैं। अगर सुरक्षा एजेंसियों को जानकारी थी तो दंगे रोकने की योजना क्यों नहीं बनी जिससे साजिश का पर्दाफाश करते हुए नागरिकों की जान और सम्पति की रक्षा हो जाती ? अगर जानकारी नहीं थी तो फिर इसके लिए उन संस्थाओं के शीर्ष पर बैठे अधिकारियों को तलब किए जाने और उन्हें इस भूल की सजा देने की कार्यवाही के विषय में सरकार ने क्या किया ?

जनता को यह सब जानने का अधिकार है ताकि वह अपनी सुरक्षा के प्रति आश्वस्त और निर्भय होकर जिंदगी जी सके।

यहां एक और घटना का जिक्र करना ठीक होगा। कुछ वर्ष पूर्व एक फिल्म बनाते समय अहमदाबाद में अपनी यूनिट के साथ जैसे ही एक स्थल पर कैमरा लगाया कि पुलिस की गाड़ी आकर पूछताछ करने लगी और अनुमति पत्र दिखाने को कहा। हमारे पास वह था नहीं क्योंकि उसकी जरूरत नहीं समझी और क्योंकि यह फिल्म सरकारी आदेश से बना रहा था इसलिए भी इस ओर ध्यान नहीं दिया। परिणाम के रूप में हमें शूटिंग रोकनी पड़ी, गुजरात सरकार के संबंधित विभाग की खिंचाई हुई और हमें चेतावनी देकर तुरंत चले जाने के लिए कहा गया। यह घटना तब हुई थी जब वर्तमान प्रधानमंत्री वहां के मुख्यमंत्री थे।

यह प्रश्न स्वाभाविक है कि जो व्यक्ति अपने प्रदेश की सुरक्षा में सेंध न लगने के लिए चाक चैबंद व्यवस्था कर सकता है, वह देश की राजधानी में किस प्रकार चूक गया जिससे दिल्ली को दंगों की विभीषिका से गुजरना पड़ा। इन सभी सवालों के जवाब मिलने ही चाहिएं वरना कहीं अंधेर नगरी चैपट राजा की कहावत आने वाले समय में सिद्ध न हो जाए !

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