शुक्रवार, 19 मार्च 2021

तरक्की का उम्मीद सरकार से नहीं, अपने से होनी चाहिए

 

आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता, अपनी सहायता स्वयं करना जैसे शब्द आज से नहीं सैंकड़ों वर्षों में जनमानस के कानों में पड़ते रहे हैं।  नेताओं का तो यह एक तरह से तकिया कलाम ही है जिसका इस्तेमाल वे अक्सर करते हैं, विशेषकर तब जब उन्हें किसी की मदद करने से बचना होता है। परिवार हो या समाज जब सब ओर से निराशा होने लगती है तब एक ही वाक्य काम आता है कि खुद ही कुछ करना होगा क्योंकि अपने मरे बिना स्वर्ग नहीं पहुंचा जा सकता

बहकावे का खेल

सामान्य नागरिक को बहकाए रखने, उसे छलने, उसके साथ कपट करने से लेकर आसमान के तारे तोड़कर उसकी झोली में डाल देने के वायदे तक करना नेताओं और उनसे बनी सरकारों का  प्रतिदिन का काम है। स्पष्ट नीतियों और दृढ़ तथा सुनिश्चित  विचारधारा के अभाव और योजनाओं पर अमल करने की अयोग्यता के कारण जब किसी सरकार  के काम की आलोचना होती है तो उसका नतीजा एक से एक शानदार बहाने बना कर लोगों को भरमाए रखने के अंतहीन सिलसिले के रूप में शुरू हो जाता है।

उदाहरण के लिए जब मंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक गरीबी न मिटने के लिए यह कहते हैं कि ये जो रोहिंग्या आबादी हमारे देश में घुस आई है, वह इसके लिए जिम्मेदार है, जबकि हकीकत यह है कि वे केवल कुछेक लाख होंगे और देश एक सौ तीस करोड़ का है जिसमें वे समुद्र की एक बूंद की तरह हैं। लोगों के मन में यह बात भी भरी जाती है कि  पिछली सरकारों के निकम्मे होने के कारण  अब हमें ही सब कुछ शुरू से करना पड़ रहा है, इसलिए वक्त तो लगेगा ही। विपक्ष भी यह दोहराता रहता है कि ये सरकार तो बस दो चार पूंजीपतियों को ही मालामाल करने में लगी है और हमारे हाथ में सत्ता आते ही सारी परेशानियां चुटकी भर में दूर हो जाएंगी।

इस तरह के छलावे करना राजनीतिज्ञों  के लिए ती सही हो सकता है लेकिन जब यही नजरिया  समाज और परिवार में अपनी जड़ें जमाने लगता है तो अपने पर से विश्वास उठने लगता है, व्यक्ति असहाय महसूस करते हुए अपनी सोच को कुंद कर लेता है, अपने पौरुष पर शंका करने लगता है और हालात से समझौता करने के अलावा उसे कोई रास्ता नहीं सूझता ।

अपने पर विश्वास कैसे हो

इसे समझने के लिए एक घटना का जिक्र करता हूं। बहुत साल पहले चलो गांव की ओर कार्यक्रम का निर्माण करता था जो देश की सभी भाषाओं में आकाशवाणी से प्रसारित होता था। एक तेलुगु महिला का पत्र आया कि वह अपने चार बच्चों के साथ आत्महत्या करने जा रही थी और एक दुकान के पास  कुछ देर आराम करने के लिए रुक गई। दुकान में रेडियो से यह प्रोग्राम सुनने लगी जिसका असर यह हुआ कि सोचने लगी कि मैं आत्महत्या क्यों कर रही हूं ?

इस कार्यक्रम में मुख्य भूमिका में नट और नटी अपने अभिनय से औरतों द्वारा अपनी मदद खुद करने की बात कहते हुए गांव के सरपंच या ब्लॉक डेवलपमेंट अधिकारी के पास जाने को कह रहे थे। इस महिला ने पत्र में इसका जिक्र करते हुए लिखा कि वह पंचायत में गई जिसकी सरपंच महिला थी और अपनी आपबीती सुनाई तो सरपंच ने डांट कर कहा कि मरने से तुझे और तेरे बच्चों को क्या मिलेगा ?

उसके बाद उसे गांव में सरपंच के बनाए महिला स्वयं सहायता समूह से बिना ब्याज कुछ रुपए मिले जिससे भूख मिटी और जो काम उसे आता था उसे करने के साधन मिले जिससे वह आज अपने पैरों पर खड़ी है और यह चिट्ठी लिख रही है।

अगर इस घटना को बड़ा कर के देखा जाए तो यह देश के हरेक उस नागरिक का भला कर सकती है जो भूख, गरीबी, बेरोजगारी से जूझ रहा है। इसका मतलब यह है कि अगर सामान्य नागरिक के मन में अपने सहयोगी, कर्मचारी, सेवक या फिर पड़ौसी के किसी दुःख का पता चलने पर उसकी दिक्कत दूर करने का भाव पैदा हो जाए और वह अपनी हैसियत के अनुसार मदद कर दे तो यह किसी क्रांति से कम नहीं होगा।

ऐसी ही एक और घटना है जो बाल मजदूरों और बेसहारा भीख मांगते बच्चों और मजबूरी में किसी के आगे हाथ फैलाते लोगों से जुड़ी है। आम तौर से सरकार का व्यवहार इन्हें पकड़कर किसी आश्रम या अनाथालय या जेल जैसे सुधार घर में डाल दिए जाने का होता है।

कुछेक संवेदनशील लोगों जैसे कि बचपन बचाओ आंदोलन के प्रवर्तक कहे जाने वाले कैलाश सत्यार्थी ने बाल मजदूरों और भीख मांगते बच्चों को बिना किसी सरकारी सहायता या हस्तक्षेप के उनकी प्रतिभा के अनुसार उन्हें शिक्षित करने और उनके हुनर को पहचान कर प्रशिक्षित करने का इंतजाम किया तो अनेक परिवारों की पीढ़ियों तक का भला हो गया।

इसी तरह दुनिया की सबसे धनी महिलाओं में से एक मेलिंडा गेट्स ने भारत में उन दूर दराज के इलाकों की महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने का काम करना शुरू किया जिन तक पहुंचना किसी भी सरकार की प्राथमिकता नहीं थी।

परिवार सीमित रखने के लिए गर्भ निरोधक, गर्भवती महिलाओं के सुरक्षित प्रसव और शिशुओं को बाल मृत्यु से बचाने के लिए उनके पोषण का प्रबंध और प्रसव के बाद माता की सेहत बनाए रखने की व्यवस्था की। इसी के साथ उन्हें अपने परिवार का खर्चा चलाने के लिए आर्थिक मदद और उससे भी अधिक उनमें स्वाभिमान तथा आत्मविश्वास की पूर्ति की ताकि वे अपने आसपास ही अपना कुछ रोजगार कर सकें।

हमारे देश में ऐसे बहुत से व्यक्ति हैं जो बिना किसी उम्मीद के आसपास रहने वालों की यथा संभव मदद करते रहते हैं जिसे न वे याद रखते हैं और न ही उस व्यक्ति को जताते हैं जिसके प्रति उन्होंने कुछ किया था।

आदत सी बन जाए

असल में यह एक ऐसी प्रवृत्ति है जो जीना सिखाती है और अगर धार्मिक अंदाज में कहें तो इसे पुण्य कमाना या अपना परलोक सुधारना कह सकते हैं। बिना किसी प्रकार की अपेक्षा रखते हुए अपनी संतान और पूरे परिवार के लिए यदि कोई व्यक्ति कुछ करता है तो यह अनजाने में अपनी ही मदद हो जाती है जिसका परिणाम मानसिक तनाव से मुक्ति और एक प्रकार का सुखद अहसास होने जैसा होता है। इसे न तो शब्दों में कहा जा सकता है और न ही इसकी व्याख्या की जा सकती है।

व्यापार की दुनिया, विशेषकर विज्ञापन के व्यवसाय में यह कहा जाता है कि यदि आप अपने क्लाइंट अर्थात उपभोक्ता की भलाई को सबसे प्रमुख रखकर काम करेंगे तो आपका अपना भला स्वयं हो जाएगा। मतलब आपको इस मानसिक द्वंद का सामना नहीं करना पड़ेगा कि अगर मुझे घाटा हो गया तो मैं बर्बाद हो जाऊंगा !

इसके विपरीत सोच यह बनेगी कि मैंने अपनी ओर से ईमानदारी से पूरी कोशिश की लेकिन अगर परिणाम अपने मन के मुताबिक नहीं निकले तो इसका मतलब यह है कि कहीं कुछ कमी थी जिसे दूर कर फिर से कोशिश की जाय तो कामयाबी मिलना कोई बड़ी बात नहीं है। इसके मूल में केवल यही भावना रहती है कि मैं जो कर रहा हूं उससे किसी का नुकसान न होकर उसका फायदा ही होगा। अगर यह सोच बन जाए तो व्यक्ति बहुत से ऐसे काम करने से बच सकता है जो समाज के लिए नुकसानदायक हैं जैसे कि कम तोलना, खाने पीने की चीजों में मिलावट करना या किसी दूसरे के घायल होने पर  सहायता करने की जगह बच कर निकल जाना अथवा किसी को दुःखी देखकर उसमें अपने लिए खुशी ढूंढना।

इस सब का निष्कर्ष यही है कि जब तक व्यक्ति को अपनी मदद स्वयं करना नहीं आयेगा तब तक वह दूसरों का मुंह ताकता रहेगा और आत्मनिर्भर बनना दूर, अपना आत्मविश्वास भी खो बैठेगा। 

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