शनिवार, 24 जुलाई 2021

सरकार और किसान ज़िद छोड़ें वरना सबका नुकसान होना तय है

 

जब परिवार, समाज या देश के संदर्भ में कोई विवाद इतना खिंच जाए कि असली मुद्दा ही गायब हो जाए और बात इतनी बढ़ जाए कि शालीनता की जगह अभद्रता और शिष्टाचार के स्थान पर गाली गलौज का इस्तेमाल हो तो समझना चाहिए कि अराजकता की शुरुआत हो चुकी है और बातचीत से कोई हल निकलने की बात सोचना बेमानी है।

समस्या आमदनी से जुड़ी है।   

हमारे देश के तीन चैथाई लोग खेतीबाड़ी से जुड़े हैं लेकिन सच यह है कि किसानी करने वाले आधे लोग कर्ज़दार हैं और वह इसलिए कि कृषि कर्म से उन्हें इतना नहीं मिल पाता कि उधार लेने की ज़रूरत न हो, अपने बच्चों की फीस जमा करने और दूसरी जरूरतों के लिए खेत न बेचने पड़ते हों और मुख्य बात यह कि बीज, खाद, रसायन और सिंचाई के लिए साहूकार के पास अपनी होने वाली उपज को गिरवी रखने की मज़बूरी तो है ही।

यहां हम उन मुठ्ठी भर किसानों की चर्चा नहीं कर रहे जो पंजाब, हरियाणा या दूसरे उन इलाकों में हल चलाते हैं जहां की धरती उपजाऊ है, खेती के आधुनिक साधन हैं और इतने खुशहाल हैं कि बड़े जमींदार, संपन्न परिवार कहलाते हैं और उनके नाते रिश्तेदार देश के अमीर ही नहीं, इंग्लैंड, कनाडा और दूसरी जगहों पर शानदार जीवन व्यतीत करने वाले लोग हैं।

कृषि कानून और वास्तविकता

सरकार अपने बनाए कृषि कानूनों की वकालत करते हुए और उन्हें कृषकों के लिए लाभकारी बताते समय यह भूल कर जाती है कि ऐसे किसान जिनके खेतों का आकार बहुत छोटा है और जिनकी संख्या बहुत अधिक है, वे गरीबी के दलदल से जितना बाहर निकलने की कोशिश करते हैं, उतना ही और इसमें धंसते जाते हैं । उनके लिए सरकार का यह कहना बेमानी हो जाता है कि ऐसे ही किसानों की आय बढ़ाने के लिए यह कानून बनाए गए हैं और विडंबना यह कि उसे अन्नदाता कहा जाता है जबकि उसके लिए दो वक्त की रोटी जुटाना ही मुश्किल है।

जब यही हकीकत है तो सोचना यह होगा कि क्या किसान  इन कानूनों का लाभ उठाने में सक्षम हैं  ?

उदाहरण के लिए यह प्रवचन देना कि इन कानूनों के लागू होने पर किसान अपनी फ़सल कहीं भी किसी को भी अपने तय किए दाम पर बेच सकता है तो उस किसान के लिए यह दूर के ढोल सुहावने होने जैसा है क्योंकि उसके पास अपनी फसल को दूसरे स्थान पर बेचने के लिए न तो ले जाने की सुविधा है और न ही इतने पैसे कि वह ढुलाई तथा आने जाने का खर्च उठा सके ।

जो लोग यह कहते हैं कि वह अपनी उपज़ का भंडारण कर ले और जब अच्छे दाम मिलें तो बेचे, वे यह भूल जाते हैं कि इन छोटी जोतों वाले किसानों की स्टोरेज का किराया चुकाने की हैसियत होती तो वह साहुकार के यहां पैदावार पहले से गिरवी ही क्यों रखते ?

अब बात आती है कि किसान का कॉरपोरेट जगत और ऐसे व्यापारी के साथ कॉन्ट्रैक्ट करना जो खेतीबाड़ी में पैसा लगाकर एक रुपए के दस बनाने की नीयत रखते हों और जिनका कृषि से दूर दूर तक न कभी वास्ता रहा हो और न उनका इस व्यवसाय को अपनाने का इरादा हो।  वे ज़ाहिर है कि किसान के अनपढ़ या कम पढ़ा लिखा होने का फ़ायदा उठाकर इस तरह का कॉन्ट्रैक्ट करने का यत्न करेंगे जिससे उनका तो भरपूर फ़ायदा हो और किसान जिसकी ज़मीन है उसे इतना भी न मिले जो फसल उगाने में लगने वाली उसकी मेहनत की भरपाई तक कर सके ! मतलब यह कि ऐसे छोटे और मझौले किसान  के लिए कॉन्ट्रैक्ट की खेती करना अपनी बर्बादी को न्यौता देना है।

जब सरकार यह कहती है कि किसान के पास अमीर लोगों के साथ हुए एग्रीमेंट की कॉपी है और वह उसकी शर्तों का उल्लंघन होने पर ज़िला मजिस्ट्रेट या अदालत में मुक़दमा दायर कर सकता है और न्याय पा सकता है तो यह बात क्या किसी से छिपी है कि हमारे देश में न्याय पाने के लिए पीढ़ियां दांव पर लग जाती है लेकिन न्याय की बस उम्मीद ही रहती है, वह आसानी से मिलता नहीं है ?

यह कानून देखने में चाहे कितने अच्छे लगते हों, कागज़ पर कितने ही आकर्षक और लुभावने हों और सरकार की मंशा चाहे कितनी भी किसान का भला करने की रही हो लेकिन वास्तविकता यह है कि इन कानूनों के ज्यादातर हिस्से प्रैक्टिकल या व्यावहारिक नहीं हैं। यही कारण है कि सरकार और किसानों के बीच हुई बहुत बार की बातचीत का कोई नतीज़ा नहीं निकला।

किसान इन कानूनों को पूरी तरह वापिस लेने की बात ऐसे ही नहीं कर रहे बल्कि उसमें कुछ तथ्य ज़रूर है। सरकार का यह कहना कि वह इनमें संशोधन करने को तो राज़ी है लेकिन पूरी तरह रद्द करने के लिए तैयार नहीं है, उससे लगता है कि यह लड़ाई दोनों पक्षों की नाक का सवाल बन गई है।  दोनों ही अपनी अपनी ज़िद छोड़ने के बारे में सोचना तक नहीं चाहते, चाहे इससे देश की आर्थिक स्थिति पर कितना भी विपरीत प्रभाव क्यों न पड़े !

अब हम इस बात पर आते हैं कि जो कानून वास्तव में बहुत लाभकारी हैं और जिनमें थोड़ा बहुत फेरबदल कर उन्हें और भी उपयोगी बनाया जा सकता है तो फिर बुराई कहां है ?  इन कानूनों के बेहतर होने के बावजूद ये किसानों के लिए हितकारी क्यों नहीं हैं और वह इन्हें मानने से संकोच क्यों कर रहा है, जब तक इसका विश्लेषण नहीं होगा तब तक इस समस्या का कोई ऐसा समाधान निकलना असंभव है जो सबको मंजूर हो !

कानून नहीं, मूलभूत ढांचा चाहिए

इन कानूनों की सबसे बड़ी कमी यह है कि यह वक्त के मुताबिक नहीं हैं अर्थात अभी इनके अमल में लाए जाने का सही समय नहीं है। इसका अर्थ यह है कि जब तक कृषि क्षेत्र में ऐसा इन्फ्रास्ट्रक्चर यानी कि सुविधाएं नहीं होंगी जिनके भरोसे किसान यह सोच सके कि अगर कल कोई खतरा आ जाए, कुछ ऊंच नीच हो जाए तो उसकी कमर न टूट जाए, वह बर्बाद न हो जाए और ज़रा सा भी नुकसान न सह पाने की दशा में उसे आत्महत्या जैसा कदम न उठाना पड़ जाए।

यदि सरकार चाहती है कि किसान इन कानूनों को स्वीकार करें तो सबसे पहले उसे पूरे कृषि क्षेत्र में उन ज़रूरी सुविधाओं का प्रबंध करने की दूरदर्शी योजना बनानी होगी जिससे किसानों का आत्मविश्वास बढ़े और वे आर्थिक रूप से अपने को इतना सक्षम बना लें कि किसी भी अनहोनी का मुकाबला कर सकें।

इन उपायों में सबसे पहले उसके लिए सिंचाई, बिजली, बीज, उर्वरक और कीटनाशक का प्रबंध सुलभ और सस्ते दाम पर करने की ऐसी व्यवस्था करनी होगी जिसमें उसे इन चीजों के लिए किसी से ऋण न लेना पड़े।

इसके बाद उसकी उपज के भंडारण का इंतज़ाम निशुल्क करना होगा और उसके घर या खेत के आसपास ही फ़सल की बिक्री होने की व्यवस्था करनी होगी, चाहे इसके लिए मंडी को ही उसके घर तक क्यों न ले जाना पड़े। इससे उन कुछ लोगों का नुकसान हो सकता है जिनका वर्तमान मंडी व्यवस्था पर दबदबा है और जिनके पास अपने वेयरहाउस हैं तथा उनके निहित स्वार्थ इससे जुड़े हैं।  यह उनकी आमदनी का एक प्रमुख साधन भी है और मंडी के संचालन में हिस्सेदार होने से राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक लाभ मिलते हैं। उनके लिए नई व्यवस्था का विरोध करना स्वाभाविक है लेकिन यदि सरकार ठान ले और इन धनवान तथा ताकतवर किसानों का सहयोग हासिल कर ले  तो यह संभव है।

ध्यान रहे मूलभूत ढांचा अर्थात इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करने का काम सरकार को सरकारी उपक्रमों और विभागों के माध्यम से करना होगा जो कि सरकार के पास अपने एक विशाल तंत्र के रूप में मौजूद है। अगर यह निजी क्षेत्र को दे दिया तो किसान का शोषण होना निश्चित है क्योंकि पैसे वाला व्यापारी बिना मुनाफे के कोई काम नहीं करता।

इसके बाद सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य के स्थान पर ऊपज के लाभकारी मूल्य तय करने की नीति बनाए जिससे ज्यादा भाव पर बिक्री तो हो सके लेकिन उससे कम पर नहीं चाहे खरीददार सरकार हो या अन्य कोई भी हो।

वक्त के मुताबिक क्या सही है

देखा जाए तो वैसे भी इस समय कानून लागू करने की बाध्यता नहीं है क्योंकि अदालत की रोक है, इसलिए इन्हें निरस्त करने में ही समझदारी है ।

किसान नेताओं और सरकार को एक बार फ़िर नए सिरे से बातचीत की तैयारी करनी होगी जिसमें केवल इस विषय पर चर्चा और निर्णय हो कि देश भर के किसानों के लिए उनकी ज़रूरत के मुताबिक पूरा मूलभूत ढांचा किस तरह तैयार हो और इसके तैयार होने की समय सीमा तय कर दी जाए।  जब यह हो जायेगा तो किसान का आत्मबल और विश्वास मज़बूत होगा। उसके बाद यही कानून लागू कर दिए जाएं, तब किसी के लिए भी इनका विरोध करने की गुंजाइश नहीं होगी।

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