शनिवार, 31 जुलाई 2021

देश को उद्योग प्रधान बनाए बिना आर्थिक विकास संभव नहीं है।

 

खेतीबाड़ी को लेकर देशवासी अपने को कृषि प्रधान कहते हुए इतने भावुक हो जाते हैं कि धरती को मां और किसान को अन्नदाता कहते नहीं थकते। अब यह बात और है कि ज़मीन जब बंजर, सूखाग्रस्त और रेतीली हो जाती है तो उसका इलाज़ कर खेती के काबिल बनाने के बजाए या तो बेच देते हैं या सरकार द्वारा अधिग्रहण करने का इंतज़ार करते हैं। 

कृषि प्रधान होने के बावजूद किसानी में कम आमदनी होती है, खर्चे ज्यादा होने से किसान अभावग्रस्त जीवन व्यतीत करता है, सरकारी सहायता पर निर्भर रहता है और हमेशा कर्जे में डूबा रहता है। फिर भी कृषि को हमारी अर्थव्यवस्था का पहला स्तंभ माना जाता है।

उद्योग प्रधान बनना नियति है

कृषि के बाद उद्योग को आर्थिक विकास का दूसरा स्तंभ कहा गया है लेकिन उसकी हालत ऐसी है कि सब्सिडी और छूट पर निर्भर रहता है और हमेशा ऐसी सरकारी घोषणाओं और योजनाओं की तलाश में रहता है जिनसे कुछ आर्थिक लाभ होता हो। यही कारण है कि जो देश हमारे आसपास के वर्षों में ही स्वतंत्र हुए वे आज हमसे बहुत अधिक समृद्ध हैं और औद्योगिक देशों की पहली पंक्ति में खड़े दिखाई देते हैं।

यह कैसा संयोग है कि पंडित नेहरू ने भारत को औद्योगिक राष्ट्र बनाने की अपनी सोच की व्याख्या करते हुए कहा था कि हम जो उत्पादन करते हैं, वह हमारे उपभोग के लिए पर्याप्त हो, मतलब हम अपनी जरूरतों को स्वयं ही पूरा करने के योग्य हों। वर्तमान समय में नरेंद्र मोदी का भी यही कहना है कि भारत आत्मनिर्भर बने और हम अपने पैरों पर खड़े हों ।

रुकावट कहां है ?

अगर इतिहास में झांके तो देखेंगे कि भारत में औद्योगिक विकास का अर्थ ऐसे नियम कायदे बनाना था कि उद्यमी सरकार के चंगुल में फंसे रहकर ही उत्पादन करे और तनिक भी इधर उधर होने पर कानून का शिकंजा उसे कस सके।

उद्योगपति को  हमेशा शक की नज़र से देखा गया, उस पर सख्त  पाबंदियां लगती रहीं।  देश में इंस्पेक्टर राज पनपने से नौकरशाहों यानी ब्यूरोक्रेसी और ऐसे उद्योगपतियों का गठजोड़ बन गया जो एक दूसरे को आर्थिक लाभ पहुंचाते रहे और इस तरह पैरलल यानी समानांतर इकोनॉमी की शुरुआत हो गई जिसे काला धन कहा गया। देश की संपदा, रुपया पैसा, प्राकृतिक स्रोत सब कुछ मुठ्ठी भर लोगों के गैर कानूनी कब्जे में आता गया और अधिकांश जनता पर गरीबी, बेरोजगारी हावी होती गई जो अब तक बरकरार है।

जब देश का सोना गिरवी रखने की नौबत आई तो पी वी नरसिम्हा राव की सरकार ने अपने वित्त मंत्री मनमोहन सिंह के जरिए देश में आर्थिक सुधार और उदारीकरण के नाम पर प्रतिबंधों में ढील देनी शुरू की और परमिट राज खत्म होता दिखाई दिया। परंतु सरकारी अफसरों के मुंह खून लग चुका था तो उन्होंने ऐसे नियम बनाने शुरू कर दिए, अनावश्यक फॉर्म जमा करने और बेतुकी मांग पूरी करने के फ़रमान जारी कर दिए और उद्योग लगाने की इच्छा रखने वाले उद्यमियों के सामने इतनी जटिल प्रक्रिया रख दी जिसे केवल अफसरशाही ही सुलझा सकती थी। नतीज़ा यह हुआ कि रिश्वतखोरी और भाई भतीजावाद का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ जो भ्रष्ट  राजनीतिज्ञों, उद्योगपतियों और नौकरशाहों के लिए अकूत संपत्ति जमा करने का अवसर बन गया।

मिसाल के तौर पर मान लीजिए आपने सरकार या निजी मालिकों से ज़मीन खरीदी तो उद्योग लगाने से पहले आपको अपनी पुश्तों तक का ब्योरा देना, लैंड यूज बदलने से लेकर पहले से ही सभी तरह के सर्टिफिकेट लाना, कितने लोगों को रोज़गार मिलेगा, उन्हें कितना वेतन दिया जायेगा, कौन सी मशीनरी लगेगी, कहां से आयेगी, अगर विदेश से आनी है तो इंपोर्ट करने की परमीशन, कंप्लीशन सर्टिफिकेट लेने और उत्पादन शुरू करने से पहले मिनीमम कंस्ट्रक्शन, वर्क परमिट, पूरी बिल्डिंग बनने और भविष्य की जरूरत का काल्पनिक अनुमान लगाकर आज ही पार्किग की व्यवस्था करना और बहुत सी बेसिरपैर की बातों को पूरा करना जरूरी कर दिया।

यह सिलसिला रुका नहीं बल्कि आज भी लगातार बढ़ता जा रहा है चाहे वर्तमान सरकार कितने भी दावे कर ले कि उसने गली सड़ी व्यवस्था को बदल दिया है पर हकीकत यही है कि आज भी देश में सरकारी नियम पालन करना तब तक असम्भव है जब तक कि नेताओं की सिफारिश और अफसरों की मुट्ठी गरम करने के लिए ढेर सारा पैसा न हो। ऐसी हालत में कोई उद्योग सफल कैसे होगा ?

उद्योगों की बंदरबांट

उद्योगों को ग्राम, कुटीर, स्मॉल, मीडियम, बड़े उद्योगों में बांट दिया और उनके लिए इन्वेस्टमेंट, संचालन, उत्पादन, मूल्य तय करने आदि  पर इतने नियंत्रण लगा दिए कि उद्योग शुरू करने से पहले ही उद्योगपति निराश हो जाए । इसके साथ ही  उद्योगों के लिए अलग अलग संरक्षण और आरक्षण की नीति अपनाई जाने लगी।

इस तरह की नीति, बदन पर होने वाली खुजली की तरह सिद्ध हुई जो एक अंग पर अगर शांत हो जाती तो दूसरे अंग पर होने लगती । मतलब यह कि आज अगर किसी  श्रेणी को छूट मिल रही है तो दूसरा उद्योग भी उसकी मांग करने लगता है। यह ऐसा ही है कि जैसे कोई मोमबत्ती बनाने वाला कहे कि उसकी प्रतियोगिता सूर्य से है क्योंकि दिन भर वो इतनी रोशनी करता है कि उसकी मोमबत्ती को खरीददार नहीं मिलते, इसलिए उसे भी छूट चाहिए।

होना यह चाहिए था कि सभी उद्योगों के लिए समान नियम, सुविधाएं और आसान प्रक्रिया बनती जिससे सभी का ध्यान स्वतंत्र होकर केवल उत्पादन बढ़ाने पर होता न कि भेदभाव होने से छूट हासिल करने की प्रतियोगिता करना।

दिशाहीन होने के परिणाम

औद्योगिक विकास को सही दिशा न मिलने का परिणाम नौकरियां पैदा करने में असफलता, विकास दर में गिरावट, प्रति व्यक्ति आय में कमी, देसी और विदेशी निवेश में रुकावट और बेरोज़गारी बढ़ते जाने के रूप में हुआ जिसका भविष्य में भारी मुसीबत का  कारण बनना तय है, यदि समय रहते ठोस कदम न उठाए गए।

यहां यह भी उल्लेखनीय है कि रिसर्च और ज़मीनी हकीकत को दरकिनार कर ट्रेनिंग और सुविधाएं तैयार किए बिना स्किल इंडिया, मेक इन इंडिया, लोकल से ग्लोबल जैसी घोषणाएं कर दी गईं जो केवल कागज़ी बन कर रह गई हैं और उनमें लगने वाला धन नाले में बह जाने की तरह हो गया है ।

एक अनुमान के अनुसार अगले दस साल में यदि आर्थिक विकास की दर छः प्रतिशत रहती है तो १७५ मिलियन लोग रोजगार मांगने वालों की कतार में लगे होंगे जबकि केवल १२५ मिलियन को ही रोज़गार मिल सकेगा और बाकी ५० मिलियन निठल्ले और निकम्मे साबित होने से या तो भूख और गरीबी में पिसेंगे या आपराधिक गतिविधियों तथा गैर कानूनी कामों में शामिल हो जायेंगे। यहां यह बताना भी ज़रूरी है कि सन २०१५ में भारत सबसे तेज विकसित होने वाली अर्थव्यवस्थाओं में से एक था और २०२० तक वह सबसे धीमी गति से बढ़ने वालों में शामिल हो गया ।

उद्योग प्रधान बनने का संकल्प

यदि वक्त रहते औद्योगिक उत्पादन को बढ़ावा देने वाली नीतियों को लागू नहीं किया गया तो स्थिति बहुत ख़राब हो जाने में कोई शंका नहीं है। देश को उद्योग प्रधान बनाने के लिए नियमों में आमूल चूल परिवर्तन, विनिवेश में तेज़ी, उद्योग लगाने वालों को बंधनों से मुक्त कर अपना निर्णय स्वयं लेने की छूट देनी होगी विशेषकर उनमें जिनमें कामगार, श्रमिक, मज़दूर और स्किल्ड लोग चाहिएं।

ऐसे उद्योग जिनमें बहुत अधिक पूंजी लगती है उन्हें छोड़कर मैन्युफैक्चरिंग और सर्विस सेक्टर को युवा, साहसी और कुछ नया कर दिखाने की चाहत रखने वाले उद्यमियों  तथा अनुभवी उद्योगपतियों के हवाले करना होगा । उनके लिए पूंजी उपलब्ध करने के साथ साथ मूलभूत सुविधाओं का पूरे देश में जाल बिछाना होगा जिनमें ट्रांसपोर्टेशन, ज़मीन की उपलब्धता, बिजली, पानी, सीवर, सड़क और औद्योगिक तथा रिहायशी बस्तियों का निर्माण प्रमुख है।

इस बात को स्वीकार करना होगा कि कृषि से अधिक उद्योगों में आर्थिक विकास करने की क्षमता और संभावना है। भावुकता और राजनीतिक फायदों को ताक पर रखकर असलीयत का सामना करने से ही देश विकसित देशों की पंक्ति में स्थान सुनिश्चित कर सकता है, यह बात जितनी जल्दी समझ ली जाय, उतना ही देशवासियों के लिए बेहतर होगा।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें