शनिवार, 7 मई 2022

कुरीतियों और परंपराओं का बोझ ढोते रहना कतई ज़रूरी नहीं है

 

अख़बार में एक खबर पढ़कर मन तो विचलित हुआ ही, साथ में एक तरह की निराशा, अवसाद और झुंझलाहट भी हुई कि क्या वास्तव में हम आधुनिक युग में जी रहे हैं जिसमें विज्ञान और टेक्नोलॉजी का बोलबाला है, ढोंग, अंधविश्वास को मान्यता न दी जाती हो और मनुष्यता को अहमियत दी जाती हो।

कथनी और करनी

खबर यह थी कि अल्मोड़ा जिले में एक अच्छी खासी नौकरी कर रहे सत्ताईस साल के युवक को अपनी बारात निकालने से रोक दिया गया जिसमें लगभग पचास बाराती थे।

लड़का दूल्हा बनकर घोड़ी पर सवार था। तब ही अपने को तथाकथित ऊंची जाति का बताने वाला एक समूह जिसमें महिलाएं अधिक थीं, दूल्हे को नीचे उतरने का हुक्म इस धमकी के साथ देता है कि यदि वह घोड़ी पर चढ़कर गया तो उसका और सभी बारातियों का वही हश्र होगा जो कुछ वर्ष पहले पास के ही एक गांव में हुआ था। उस समय घटी यह घटना बहुत ही ह्रदय विदारक थी और काफी चर्चित भी हुई थी। इसमें चैदह लोगों की लिंचिंग हुई थी, जिनमें से पांच को जिंदा जला दिया गया था।

इन दोनों घटनाओं में एक बात समान थी कि दूल्हे और बाराती दलित समाज के थे। वर्तमान घटना में दूल्हे के कुछ दोस्त जो दलित समुदाय के नहीं थे, इस तरह विवाह में अड़चन डाले जाने के खिलाफ़ थे। वर के पिता ने तय किया कि अब यह सहन नहीं होगा और अल्मोड़ा के डीएम और एससीएसटी कमीशन में शिकायत की। पुलिस आई और पांच स्त्रियों और एक पुरुष के विरुद्ध एफआईआर दर्ज़ की। ज़िला प्रशासन की एक टीम ने आकर इस घटना के बारे में अधिक विवरण जुटाए और आश्वासन दिया कि यदि सरकार से आदेश मिला तो पीड़ित पक्ष को पुलिस सुरक्षा प्रदान की जाएगी।

उल्लेखनीय यह है कि पहली घटना बीस साल से ज्यादा पहले हुई थी और दूसरी अब हुई है, मतलब यह कि इतने वर्ष बीत जाने पर भी उच्च जाति और निम्न जाति के बीच खाई पैदा करने वाली सोच में कोई बदलाव नहीं हुआ है।

इसका क्या कारण है ?  केवल कानून से इसका हल न निकला है, न निकलेगा, दण्ड देना बेकार साबित हुआ, शिक्षित होना भी काम न आया बल्कि समाज में एक प्रकार का डर बढ़ गया कि जिन लोगों को कानूनी संरक्षण मिला है, अगर वह न रहा तो क्या सामाजिक व्यवस्था में यह दोनों वर्ग एक दूसरे के साथ सामान्य रूप से एक ही छत के नीचे रह पाएंगे?

दोष कहां है ?

चलिए इस बात पर गौर करते हैं कि समाज में कुरीतियां कैसे पनपती हैं, गलत परंपराएं किस प्रकार पड़ती हैं और किसी का सामान्य व्यवहार क्योंकर दूसरों के लिए आपत्तिजनक ही नहीं, असहनीय भी हो जाता है।

इन दिनों देश के अनेक स्थानों से हनुमान चालीसा का पाठ करने बनाम मस्जिदों में लाउडस्पीकरों से अज़ान का मुद्दा जोरशोर से चर्चा में है।  यह पूजा, प्रार्थना, अर्चना या इबादत करने का एक तरीका भर न रहकर धार्मिक संघर्ष से लेकर दुश्मनी मोल लेने का साधन और कुछ लोगों की मतलबपरस्ती यानि अपनी स्वार्थसिद्धि का मौका बन गया है।

ज़रा सोचिए कि क्या यह व्यापक स्तर पर अशांति फैलाने और सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने की पृष्ठभूमि तो नहीं है ?

एक दूसरा उदाहरण है कि आज भी हिंदुओं की कुछ जातियों, महिलाओं और अन्य धर्म के लोगों के प्रवेश पर अनेक मंदिरों में रोक लगी हुई है। इसका पालन न करने पर आपसी मनमुटाव, तिरस्कार, हीन भाव का व्यवहार करने से लेकर हिंसक घटनाएं तक घटती रहती हैं और विडंबना यह कि यह वर्तमान भारत में हो रहा है।

कोई परंपरा कब पड़ी होगी या किसी कुरीति का जन्म कैसे हुआ होगा, इस पर सोचने से ज्यादा ज़रूरी यह है कि आज तक यह चल क्यों रही है ? लोग इस व्यवस्था से चिपके हुए क्यों हैं ? इसमें परिवर्तन करने या इसे समाप्त करने के बारे में सामाजिक पहल क्यों नहीं होती ?  सबसे बड़ी बात यह कि सरकार क्यों नहीं भेदभाव करने की परंपरा से जुड़े धार्मिक स्थलों की व्यवस्था को अपने हाथ में लेकर समस्या की जड़ को ही नष्ट करने के लिए कदम क्यों नहीं उठाती ?

इस बात पर विश्वास करने से भय लगता है और वो आज की युवा पीढ़ी के लिए किसी अजूबे से कम नहीं है कि अब भी कुएं, हैंडपंप या तालाब से पानी लेने के लिए जातियों के बीच झगड़े, मारपीट और हिंसक वारदातें हो जाती हैं। लेकिन सच यही है !

छुआछूत कानूनन तो जुर्म है लेकिन यह आज भी समाज के लगभग प्रत्येक वर्ग में व्याप्त है चाहे वह पढ़ा लिखा हो या अनपढ़, गरीब हो या अमीर, साधन संपन्न हो या कमज़ोर और यही नहीं अपने विभिन्न रूपों में हरेक व्यक्ति इसका पालन करता दिखाई देता है। उदाहरण के लिए घर में काम करने वाले घरेलू नौकरों के खाने पीने के बर्तन अलग रखना, कितनी मामूली बात है लेकिन कितनी गंभीर है क्योंकि इसी एक व्यवहार ने एक कभी न भरी जा सकने वाली खाई को जन्म दे दिया है।

शादी ब्याह, त्यौहार, उत्सव या सामूहिक भोज के दौरान अक्सर इस परंपरा का पालन किया जाता है कि जो अपनी जाति से कम है, उसके खाने पीने से लेकर रहने तक का इंतजाम अलग हो और गलती से अगर कहीं बड़ी जाति जिसके यहां यह आयोजन हो रहा है, किसी वस्तु या खाद्य पदार्थ की अदला बदली हो जाए तो समझिए कि कयामत ही आ जाएगी।  ऐसा बवंडर मचेगा कि समारोह का मज़ा ही जाता रहेगा।

पढ़े लिखे तथा प्रबुद्ध वर्ग और विशेषकर उच्च शिक्षा प्राप्त युवा वर्ग के लिए इन बातों का कोई मतलब न होने पर भी वे कुछ अपवादों को छोड़कर यह सब मानते और करते हैं क्योंकि उनके सामने परिवार या खानदान की इज़्ज़त बनाए रखने का डर इस हद तक भरा होता है कि वह इस सब को ढोंग मानते हुए भी अपनी सहमति और स्वीकृति ही नहीं देते बल्कि यह सब करने में अपनी भागीदारी का निर्वाह करते हैं।

कहने का अर्थ यह कि जब शिक्षा ही सोच नहीं बदल पाई तो फ़िर कानून या उसके अंतर्गत मिलने वाला दंड उसे कैसे बदल सकता है ?

असल में इस सब का सबसे बड़ा कारण हमारे राजनीतिक दलों, उनके नेताओं द्वारा इन भेदभाव की बातों का अपने मतलब के लिए इस्तेमाल करने की कला है।

क्या यह देखकर अज़ीब नहीं लगता कि कोई स्थानीय नेता हो, मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधान मंत्री ही क्यों न हो, किसी दलित या गरीब के यहां भोजन करने को इतना महत्व देते हैं कि यह सामान्य सी घटना देश भर में चर्चा का विषय बन जाती है।

किसी धर्म या जाति अथवा संप्रदाय के एक तबके को इस ढोंग से अपनी तरफ करने का यह प्रयास उन्हें कुछ वोट तो दिला सकता है लेकिन उनके इस अकेले व्यवहार ने किस गलत परम्परा को जन्म दे दिया इसका पता नेताओं को तो होता है लेकिन इसका आभास सामान्य नागरिक को होने तक बहुत देर हो चुकती है। तब तक यह एक सामान्य व्यवहार बन जाता है और दो तबकों के बीच दुश्मनी का बीज पड़ चुका होता है।

परंपरा अपने आप में गलत नहीं होती लेकिन वह कुरीति तब बन जाती है जब उसका इस्तेमाल व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए किया जाता है या फिर अपना दबदबा कायम रखने और कमज़ोर व्यक्ति को सताने के लिए किया जाता हैं।

इसी के साथ सच यह भी है कि जब सरकार ऐसे लोगों को प्रश्रय देती है, उन्हें बढ़ावा देती है और यही नहीं, इस तरह के काम करने पर ईनाम भी देती है तो समझना चाहिए कि समाज को धर्म और जाति के नाम पर बांटा जा रहा है। इसका परिणाम आज न दिखाई दे लेकिन भविष्य में कितना घातक सिद्ध होगा, यह समझना कोई रॉकेट साइंस नहीं है बल्कि बहुत साधारण सी बात है।

भारत विभाजन से लेकर समय समय पर होने वाले जातीय संघर्ष और धर्म के नाम पर फैलाई जाने वाली हिंसा से भी अगर हम न सीख पाएं हों तो इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है ? क्या इससे विश्व में हमारी छवि धूमिल नहीं होती और हम चाहे कितनी भी उपलब्धियां हासिल कर लें, जब तक देश में धर्म और जाति को भूलकर एकजुटता नहीं है, हम अपने पर गर्व कैसे कर सकते हैं ?



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें