यह कहावत, बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुध ले, अपने आप में सही है लेकिन सत्य यह है कि भूतकाल हमेशा वर्तमान पर हावी होता आया है। यह कैसे भुलाया जा सकता है कि आज जो हम हैं, उस पर हमारे कल की छाया की बहुत बड़ी भूमिका है।
गुलामी की विरासत
सांसद और कांग्रेस नेता शशि थरूर ने अंग्रेज युग के बारे में एक शोधपूर्ण और ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर ‘एन ईरा ऑफ डार्कनेस, द ब्रिटिश अंपायर इन इंडिया‘ लिखी है। इसे पढ़कर यह लगता ही नहीं बल्कि सिद्ध होता है कि स्वतंत्रता के बाद से अब तक भारतीयों के मन से अंग्रेजी राज की छाप या असर मिटा नहीं है।
यहां इस बात का जिक्र करना जरूरी है कि अंग्रेजों और मुगलों से भी पहले भारत की पहचान सोने की चिड़िया के रूप में थी। इसका कारण यह था कि हम संसार में अनेक क्षेत्रों में अद्वितीय थे, हमारे मुकाबले बहुत कम साम्राज्य थे। कोई भी विषय हो, हमारी राय का सबसे अधिक महत्व होता था। यह बात नोबल पुरस्कार से सम्मानित अमृत्य सेन से लेकर, रविंद्रनाथ टैगोर और अन्य विश्व प्रसिद्ध लेखकों और इतिहासकारों ने कही है। उदाहरण के लिए दर्शन, कृषि, शिक्षा, विज्ञान, कला, साहित्य, वास्तुकला, संगीत, व्यापार, उद्योग, निर्यात चिकित्सा, खगोल शास्त्र से लेकर ब्रह्माण्ड की अनेक गुत्थियों को सुलझाने में भारत सब से आगे था।
जब अंग्रेज आए तो सबसे पहले उन्होंने हमारी बुद्धि, कौशल, विरासत और सबसे आगे रहने के गर्व को चकनाचूर करने की नीतियां बनाईं ताकि हम मानसिक रूप से उनके गुलाम बन कर रह जाएं। इसके साथ यह भी कि अंग्रेज हमारी शारीरिक ताकत का अपने ही लोगों का दमन करने में इस्तेमाल कर सके।
जहां तक मुगल शासन का संबंध है, हालांकि वह क्रूरता के मामले में बहुत निर्मम थे और इसी के बल पर हमारे शासक बने लेकिन उन्होंने हमारी बहुत सी विरासत को नष्ट न कर उसमें वृद्धि करने का काम भी किया। वे दिखाना चाहते थे कि मुगल साम्राज्य की विरासत हमसे कम नहीं है और इसीलिए उन्होंने हमारे मंदिरों, भवनों और गढ़ तथा किलों से मुकाबला करने वाली बहुत सी मस्जिदों और इमारतों का निर्माण किया। इनमें से आज बहुत सी हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच विवाद का कारण बनी हुई हैं।
शशि थरूर की पुस्तक पढ़कर यह समझा जा सकता है कि अंग्रेजों ने जो भी कानून बनाए या नीतियों को लागू किया, वे सब अंग्रेजी साम्राज्य के लाभ और उसके विस्तार के लिए थे। इसमें से किसी भी काम में भारतीयों का हित नहीं होता था।
दुःख की बात यह है कि आजादी के बाद से अब तक बहुत से ऐसे कानून और नीतियां लागू हैं जो भारत में लूट खसोट के लिए अंग्रेजों ने बनाई थीं। विडंबना यह है कि हमारे संविधान में इन कानूनों को मान्यता मिली हुई है।
जुल्म पर आधारित कानून अब तक
एक उदाहरण है। जलियांवाला बाग में हत्याकांड के दोषी डायर को अंग्रेज सरकार ने इंग्लैंड में न केवल सम्मानित किया बल्कि उसे भारतीयों की कीमत पर बेशकीमती उपहार भी दिए। मतलब यह कि जुल्म करने वाले को सजा के बजाए पुरस्कार। इसी तरह बहुत से ब्रिटिश अधिकारियों को भारतीयों पर अत्याचार करने के लिए ईनाम दिए जाते थे। इस कड़ी में भ्रष्टाचार में लिप्त, बलात्कारी और कुशासन के लिए जाने जाने वाले अंग्रेज शामिल थे।
अब हम अपने देश की बात करते हैं। आज हमारी सरकारों में, चाहे केंद्र हो या राज्य सरकारें, अत्याचार के लिए मशहूर लोगों, भ्रष्ट नेताओं, रिश्वतखोर अधिकारियों और छल कपट से अपार संपत्ति हासिल करने वाले लोगों का बोलबाला उनसे कहीं ज्यादा है जो ईमानदार, मेहनती और अपने बल पर विभिन्न क्षेत्रों में भारत का नाम रौशन कर रहे हैं।
अगर ऐसा न होता तो किसी भी दोषी व्यक्ति और जेल में बंद अपराधी का दबंगई, गुंडागर्दी और धन के बल पर कोई भी चुनाव लडना संभव और सुविधाजनक न होता। अगर संविधान का संरक्षण न मिला होता तो ये चुनाव लड़कर मंत्री न बन पाते और यह भी न होता कि जिस पुलिस अधिकारी ने जिस गुंडे को गिरफ्तार किया हो, उसी की सुरक्षा करने की जिम्मेदारी उसे दे दी जाए।
यह हमारे ही देश में हो सकता है क्योंकि हमने अनेक दावों के बावजूद ऐसे कानून नहीं बदले हैं जो अंग्रेजों ने हमारा दमन करने के लिए बनाए थे।
शशि थरूर ने बहुत ही साफगोई से वर्णन किया है कि किस तरह हमारी कॉटन और दूसरे कृषि उत्पादों का अंग्रेज अपने मुनाफे के लिए निर्यात करते थे। आज भी यह हो रहा है कि किसान केवल उगाएं, व्यापारी तथा उद्योगपति उत्पादन करें लेकिन उसका सबसे अधिक फायदा सरकार और उसके अमीर साथियों को मिले।
एक दूसरा उदाहरण है । अक्सर कहा जाता है कि अंग्रेज ने भारत की यातायात व्यवस्था को सुधारने के लिए रेल चलाकर बहुत बड़ा काम किया। कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि अगर अंग्रेज रेल न लाए होते तो हम कितना और अधिक पिछड़े हुए होते। वास्तविकता यह है कि रेल का फायदा अंग्रेज के अपने लिए था क्योंकि उसे एक सस्ता साधन आने जाने और चीजों को लाने ले जाने के लिए चाहिए था। जब भी किसी भारतीय को इससे लाभ लेने की बात आती तो उसे नकार दिया जाता। यहां तक कि थर्ड क्लास डिब्बे में ही कोई हिंदुस्तानी जा सकता था और अंग्रेज जब चाहे तब वहां से उसे बाहर फिंकवा सकता था। सामान्य भारतीय को थर्ड क्लास का मानते हुए हमने भी इस व्यवस्था को बहुत समय तक कायम रखा।
अब हम शिक्षा की बात करते हैं । यह तर्क दिया जाता है कि भारत में अंग्रेजी भाषा नहीं पढ़ाई जाती और आज भी अगर न पढ़ाई जाए तो भारतवासी दुनिया में तरक्की नहीं कर सकते। हकीकत यह है कि अंग्रेज ने अंग्रेजी पढ़ाने का इंतजाम इसलिए किया ताकि वह ऐसे लोग तैयार हों जो शासन चलाने में मदद कर सकें। यह पढ़ाई भी बस इतनी कि कहीं बाबू जैसे कर्मचारी की जरूरत पूरी हो।
आज भी अंग्रेजी इसलिए पढ़ी जाती है ताकि उसके बलबूते बड़ी नौकरी, अधिकार संपन्न पद और अपनी एक अलग पहचान हासिल की जा सके। हमारी जो शिक्षा है वो रट्टा मारकर सफल तो कर देती है लेकिन उससे मानसिक विकास या अपनी अलग सोच पैदा नहीं होती। परीक्षा परिणाम तो सौ फीसदी आ सकते हैं लेकिन उसके आधार पर, केवल कुछेक अपवादों को छोड़कर जीवन में कोई कीर्तिमान स्थापित नहीं किया जा सकता।
अगर हम अपनी प्राचीन शिक्षा पद्धति को देखें तो उस समय ओरल यानी मुंहजुबानी शिक्षा देने का प्रचलन अधिक था। पढ़ने के लिए वेद, उपनिषद और दूसरे ग्रंथ थे लेकिन उनका पढ़ना उनके लिए ही अनिवार्य था जो उनके पठन पाठन से कोई नया शोध करना चाहें, वैज्ञानिक उपलब्धि हासिल करना हो या भविष्य की कोई नीति बनाने के लिए आवश्यक हो और इसके लिए विशेष रूप से विश्वविद्यालयों में पढ़ाई की व्यवस्था होती थी।
सामान्य व्यक्ति को ग्रंथों से अधिक व्यावहारिक ज्ञान के विषयों की शिक्षा दी जाती थी ताकि वह नौकरी या व्यवसाय अपनाकर अपनी गृहस्थी का पालन कर सके। इसके साथ ही गुरुकुल और बाद में पाठशाला या मदरसा उसकी शिक्षा का केंद्र होता था और सीमित सब्जेक्ट होते थे । अंग्रेजों ने इतने विषय सिखाने शुरू कर दिए जिनका जीवन में कोई महत्व नहीं था । ऐसा इसलिए किया गया ताकि विद्यार्थी के मन में अपने को दूसरों से श्रेष्ठ समझने की मानसिकता बन सके । मतलब यह कि देसी अंग्रेज बन कर वे हुकूमत करने में मददगार हो सकें।
यह परंपरा या परिपाटी आज तक बदस्तूर जारी है। सरकार को वैज्ञानिक, शोधकर्ता, प्रोफेशनल और अपनी अलग सोच रखने वाले भारतीय नहीं चाहिएं बल्कि ऐसे कर्मचारी चाहिएं जो बाबूगिरी कर सकें और किसी भी गलत आदेश का पालन बिना किसी विरोध के कर सकें। इसीलिए शिक्षा, विशेषकर उच्च शिक्षा को इतना मुश्किल और महंगा कर दिया गया है कि कुछ ही के लिए यह संभव है। इसके साथ ही विद्यार्थी को ज्यादातर वे सब विषय पढ़ने पड़ते हैं जिनका उसके जीवन में कभी कोई उपयोग होने वाला ही नहीं होता।
दासता की सोच
आज हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं। न जाने कितने समारोह अपनी आजादी को सुरक्षित रखने और स्वयं पर गर्व अनुभव करने के लिए मनाते रहे हैं। क्या यह वास्तविकता नहीं कि चाहे शासक हो या प्रजा, हम सब की सोच और मानसिकता अंग्रेजी शासन की गुलामी से अपने को मुक्त नहीं कर पाई है। बात बात पर अंग्रेजी शासन का उदाहरण देना क्या इसका प्रतीक नहीं है कि अभी तक ऐसी सोच रखने वाले इस देश में हैं कि अंग्रेजों के बनाए कानूनों और उनकी भाषा से ही हम उन्नति कर सकते हैं।े
यहां यह कहना जरूरी है कि सामान्य नागरिक द्वारा अपनी सोच का दायरा व्यापक और भारतीयता से ओतप्रोत करने का कोई अर्थ नहीं है जब तक कि शासन अर्थात सत्ताधारी व्यक्ति और राजनीतिक दल अपनी मानसिकता में आमूल चूल परिवर्तन नहीं करते। यथा राजा तथा प्रजा की उक्ति पूरी तरह लागू होती है।
ऐसा करने के लिए हिम्मत चाहिए, संविधान में संशोधन करने की तैयारी करनी होगी, सभी कानून जो गुलामी के दौर में बनाए गए थे, उन्हें रद्दी की टोकरी में फेंकना होगा।
एक उम्मीद
क्या इस बात की उम्मीद की जा सकती है कि किसी अपराधी को चुनाव लड़ने न दिया जाए, रिश्वतखोरी के बिना सरकारी काम करवाए जा सकें, भ्रष्ट नेताओं और अधिकारियों को राजनीतिक संरक्षण न मिल सके, बेसिक जरूरतों को पूरा करने के लिए सत्ता में बैठे लोगों का मुंह न ताकना पड़े और यदि किसी के साथ अन्याय हुआ है तो उसे वर्षों तक न्याय पाने के लिए लड़ना न पड़े । वर्तमान सरकार, क्योंकि पूर्ण बहुमत में है, इसलिए उसके लिए यह करना कतई मुश्किल नहीं, केवल इच्छाशक्ति चाहिए।
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