प्रतिवर्ष चार जून को एक ऐसा विश्व दिवस मनाया जाता है जो ऐसे बच्चों के भविष्य को लेकर है जिनके माता पिता, संरक्षक युद्ध में मारे गए हों। इसकी शुरुआत चालीस साल पहले हुई थी। इसका संदर्भ फिलिस्तीन और लेबनान पर इजरायल के हमले के कारण अनाथ हो गए बच्चों के पालन पोषण की समस्या पर दुनिया का ध्यान दिलाना था। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा इस दशक के अंत तक ऐसे बच्चों के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए कदम उठाए जाने की बात कही गई है और सभी देशों से इस बारे में ठोस कार्रवाई करने की अपेक्षा है।
बच्चों पर असर
वर्तमान संदर्भ में इस समस्या को रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध के कारण अपने माता पिता और अभिवावकों की लड़ाई में मृत्यु हो जाने पर बच्चों को हो रही परेशानियों को सामने रखकर समझा जा सकता है। युद्ध में बच्चों की फौज में भर्ती, स्कूल और अस्पताल पर हमले, यौन हिंसा से लेकर अपहरण और किसी भी मानवीय सहायता के मिलने में रूकावट के कारण होने वाली स्थिति बहुत गंभीर हो जाती है। इसका बच्चों की मानसिक और शारीरिक स्थिति पर बुरा प्रभाव पड़ना निश्चित है।
युद्ध या आपदा का शारीरिक, मानसिक और मनोवैज्ञानिक प्रभाव समझने के लिए एक घटना का जिक्र है। एक दिन एक परिचित अपने साथ लगभग अठारह वर्ष के युवक को लेकर आए। कहने लगे कि जब यह दस साल का था तो इसके सामने इसके माता पिता की कुछ गुंडों ने बेरहमी से हत्या कर दी थी। अपने रिश्तेदारों के बीच यह बड़ा होने लगा लेकिन इसे वह घटना भुलाए नहीं भूलती और यह अक्सर हिंसक रूप धारण कर लेता है। जब तब इसे एक दौरा सा पड़ता है और जो भी इसके हाथ में आता है, तोड़ने फोड़ने लगता है। इसी के साथ यह पढ़ने लिखने में होशियार है लेकिन शिक्षक इसकी हिंसक प्रवृत्ति के कारण बहुत डरते हैं। शरीर से भी यह काफी मजबूत है और अगर किसी का हाथ पकड़ ले तो छुड़ाना मुश्किल हो जाता है।
आम तौर पर यह एक नॉर्मल व्यक्ति की तरह रहता है लेकिन कभी इतना बेकाबू हो जाता है कि संभाले नहीं संभलता। अब रिश्तेदारों ने भी इसे अपने साथ रखने से मना कर दिया है इसलिए इसमें चोरी की आदत भी आ गई है। इसके भविष्य के बारे में मेरे मित्र की चिंता कुछ इसलिए भी है क्योंकि यह उनके पडौस में रहता है और जो कुछ इसके साथ हुआ वह सब जानते हैं।
एक मनोचिकित्सक से मिलवाने के बाद उसकी समस्या का हल निकलने की उम्मीद हुई लेकिन मन में यह बात आई कि हमारे यहां ऐसे बच्चों को लेकर कोई ऐसी नीति या व्यवस्था क्यों नहीं है जिससे कोई स्थाई समाधान निकल सके ?
यह सोचकर कि युद्ध के कारण तो ऐसे हजारों लाखों बच्चों का न केवल बचपन ही समाप्त हो जाता होगा बल्कि उनके सामने जीवन जीने की भी कठिन चुनौती रहेगी, चिंतित होना स्वाभाविक है।
अगर इतिहास पर नजर डालें तो भारत विभाजन के समय जिन लोगों ने बचपन में हिंसा, बलात्कार के दृश्य देखे, वे जिंदगी भर उन्हें नहीं भूल पाए हैं। इसके अलावा जितने भी अब तक युद्ध हुए हैं, उनके कारण कितने बच्चों का बचपन खो चुका होगा, इसकी संख्या तो हो सकता है सरकार के पास हो लेकिन उनके साथ जीवन में क्या हुआ होगा, इसका लेखा जोखा किसी के पास नहीं है।
कानून और सुरक्षा
इस परिस्थिति में बाल अधिकार को लेकर बने कानून भी ऐसे बच्चों को सुरक्षा नहीं दे पाते। हालांकि कानूनन देश में बहुत से बाल सुधार गृह या ऐसी ही बहुत सी संस्थाएं हैं जिन पर इनका भविष्य संवारने की जिम्मेदारी है। वास्तविकता यह है कि एक सर्वेक्षण के अनुसार इन सभी जगहों की हालत ज्यादातर एक कारागार की तरह है जहां इन बच्चों के साथ एक अपराधी जैसा व्यवहार होता है। मासूमियत के स्थान पर उनके चेहरे पर कठोरता दिखाई देती है। बचपन की चपलता या शरारत की जगह आक्रोश और क्रोध देखने को मिलता है।
ऐसे बच्चे जब किसी अनाथालय या सुधार गृह से वयस्क होकर निकलते हैं तो उन्हें सम्मानपूर्वक जीवन जीने की राह में रोड़े बिछे हुए लगते हैं। उनका नाम स्ट्रीट चिल्ड्रन पड़ जाता है और वे चाहे कितने भी मेघावी हों, उनके साथ पढ़ाई लिखाई से लेकर नौकरी तक के मामले में भेदभाव किया जाता है। असल में होता यह है कि बचपन और युवा होने के बीच उनकी स्वयं अपने आप से लगातार होने वाली लड़ाई उन्हें कहीं सफल नहीं होने देती।
ऐसे बच्चों की स्थिति भी कम दुखदाई नहीं है जिनके माता पिता में से कोई एक या दोनों किसी आपदा, बीमारी या दुर्घटना के कारण न रहे हों और उनके सामने दूसरों की दया पर रहने के अतिरिक्त कोई विकल्प न हो। वर्तमान में कोरोना के कारण ऐसे बच्चों की संख्या काफी अधिक है जो अनाथ हो गए हैं और किसी सरकारी या गैर सरकारी व्यवस्था के न होने से नारकीय जीवन जीने को विवश हैं।
हमारे संविधान में जीने का अधिकार है और बाल अधिकारों को लेकर पॉक्सो जैसे कानून भी हैं। प्रश्न यह है कि क्या यह किसी बच्चे को उसके जीने के अधिकार के साथ उसके विकास करने का अधिकार भी दिलाते हैं। उसकी पढ़ाई लिखाई, शिक्षा और रोजगार उपलब्ध कराने के बारे में भी कुछ कहते हैं ? व्यवहार में ऐसा कुछ नहीं होने से ये बच्चे अपने सर्वाइवल यानी जीवित रहने और वह भी सम्मान सहित जीवन यापन करने के अधिकार से वंचित रहते हैं।
उल्लेखनीय है कि युद्ध या आपदा के कारण बेसहारा हुए बच्चों की संख्या हजारों में नहीं बल्कि लाखों में है। अभी तक इतनी बड़ी जनसंख्या जैसे तैसे बड़ी होती रही है और किसी संरक्षण या सरपरस्ती के न होने से एक तरह से दिशाहीन होकर उम्र का फासला तय करती रही है। इनमें से कुछ का स्वभाव इतना उग्र होता है कि सब कुछ तहस नहस करने की सोच बनने लगती है, कुछ की फितरत इतनी दबी कुचली हो जाती है कि हमेशा एक बेचारगी रहती है और वे जीवन को बस ढोते रहने को ही अपना भाग्य समझते हैं।
क्या कभी इस बात पर किसी का ध्यान गया है कि समाज में एक युवा पीढ़ी क्यों इतनी असहनशील हो रही है कि उसे किसी बात पर विश्वास नहीं होता, उसे लगता है कि हर कोई उससे कुछ न कुछ छीनने के लिए तैयार है। इसका मूल कारण उनमें से अधिकांश के जीवन में उनके बचपन में भोगी गई असामान्य घटनाएं हैं जिनका समय रहते कोई हल नहीं निकला और ऐसे व्यक्तियों को उपचार के स्थान पर प्रताड़ित किया गया।
क्या यह सही समय नहीं है कि सरकार कोई ऐसी नीति बनाए, उसे कानूनी जामा पहनाए और लागू करने का पुख्ता इंतजाम करे जिसमें किसी भी कारण से बेसहारा हर बच्चे को सुरक्षा और संरक्षण मिलने की तुरंत व्यवस्था हो। यह ध्यान रखना जरूरी है कि ऐसे बच्चे का हरेक पल कीमती है और उसे यदि तुरंत सही तरीके से उसके अधिकार मिलने में देरी हुई ती वह जीवन भर अपने साथ हुई त्रासदी से उबर नहीं सकता।
सरकार के पास अपना तंत्र है, अपनी व्यवस्था है और अपनी ताकत भी और वह अगर निश्चय कर ले कि एक पूरी पीढ़ी को अंधकार में खोने से बचाना है तो यह काम कतई मुश्किल नहीं है। जरूरत केवल संवेदनशीलता के साथ समस्या को समझने और उसका हल निकालने की है। बच्चों को केवल देश का भविष्य कहने भर से काम नहीं चलेगा बल्कि उनके लिए ठोस और कारगर नीति तथा कानून बनाकर उन्हें लागू करने की व्यवस्था करनी होगी, जरा सोचिए?
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