शनिवार, 23 जुलाई 2022

आदिवासी राष्ट्रपति होने का अर्थ जनजातियों, वनवासियों की उन्नति है

 

राष्ट्रपति के रूप में आदिवासी महिला द्रौपदी मुर्मू का चुनाव क्या हमारे ट्राइबल क्षेत्रों की समस्याओं का समाधान कर पाएगा, निवासियों को शोषण से मुक्ति दिला पाएगा और उन्हें विकास की मुख्यधारा से जोड़ पाएगा ? यह एक ऐसा यक्ष प्रश्न है जिसका उत्तर केवल भविष्य के गर्भ में छिपा है।

इतिहास से सीख

ब्रिटिश शासन में आदिवासियों को जन्मजात गुनहगार और अपराधी मानकर सभी तरह के अत्याचार करने की खुली छूट का कानून बनाया गया था जिसका पालन आजादी के बहुत बाद तक होता रहा। जब यह बात बहुत अधिक जुल्म होने के बाद किसी तरह पहले प्रधानमंत्री नेहरू जी के पास पहुंची तो वे बहुत क्रोधित हुए। उन्होंने आदिवासियों को विमुक्त जनजाति का नाम देकर और इस संबंध में कानून बनाकर इस काम की इतिश्री अपनी ओर से कर दी। परंतु स्थिति पहले जैसी ही रही।

जो लोग आदिवासी बहुल इलाकों में गए हैं या उन्हें वहां काम करने और व्यवसाय करने का मौका मिला है, वे इस बात को अगर सच्चे मन से स्वीकार करेंगे तो अवश्य ही यह कहेंगे कि चाहे कानून हो लेकिन वहां के मूल निवासियों का शोषण बंद नहीं हुआ है, वे स्वयं भी यह करते रहे हैं और पुलिस तथा प्रशासन द्वारा किए जाने पर भी चुप रहे हैं। नतीजा बाहरी लोगों द्वारा अपना मतलब निकलने तक का विकास, सरकारी योजनाओं की बंदरबांट और प्राकृतिक संसाधनों विशेषकर जल, जंगल और जमीन पर कब्जा कर स्थानीय लोगों को अपना गुलाम समझने के रूप में हुआ है।

व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर कुछ उदाहरण इस कथन की पुष्टि के लिए काफी हैं। दूरदर्शन, पैरामिलिट्री फोर्स और कुछ अन्य संस्थानों के लिए नॉर्थ ईस्ट के इलाकों में फिल्में बनाते समय सरकारी नियमों और कानूनों की धज्जियां उड़ते देखकर समझ में आ गया कि जब तक स्थानीय स्तर पर लोग शिक्षित नहीं होंगे, बड़े शहरों में पढ़ने लिखने के बाद यहां वापिस नहीं आयेंगे और सरकारी नीतियों को लागू करने का काम स्वयं नहीं करेंगे तब तक इन इलाकों की तस्वीर बदल पाना संभव नहीं है।

विश्वास और भरोसा

ग्रामीण मंत्रालय के लिए रेडियो कार्यक्रम चलो गांव की ओर का प्रसारण उत्तर पूर्व की प्रमुख आठ भाषाओं या बोलियों में करने का आदेश मिला तो सबसे पहली समस्या दिल्ली में इन प्रदेशों से आकर रहने वालों में से ऐसे व्यक्तियों से संपर्क करने की थी जो हिंदी में बनने वाले मूल प्रोग्राम का अपनी भाषा में रूपांतर कर सकें। किसी तरह इन तक पहुंच बनाई तो पाया कि उन्हें हम पर तनिक भी विश्वास नहीं है। कारण यह था कि दिल्ली सहित सभी बड़े शहरों में रहने वाले लोगों ने उन्हें अपना नहीं माना, अनेक अपमानजनक शब्द उनके लिए इस्तेमाल किए, किराए पर घर देते समय ऐसी बंदिशें लगाईं कि वे अपने तीज त्यौहार भी न मना सकें, अपनी पसंद का खानपान भी न कर सकें और यही नहीं उनकी पोशाक, चलने फिरने और रहने सहने की आदतों पर भी अंकुश लगाने लगे।

बहुत समझाने पर वे यह प्रोग्राम करने को तैयार हुए, शुरू में हाथ के हाथ तय फीस मिलने पर राजी हुए। एक बार जब विश्वास हो गया कि उनका शोषण नहीं होगा, कोई उनसे अभद्र भाषा में बोलने या व्यवहार करने की हिम्मत नहीं करेगा और उनकी व्यक्तिगत और पारिवारिक उलझनों को सुलझाने का प्रयास होगा, तब कहीं जाकर उनका पूर्ण सहयोग मिल सका। भरोसे की यह कड़ी आज तक कायम है।

नॉर्थ ईस्ट के लगभग सभी प्रदेशों में जाने पर यह समझने में देर नहीं लगी कि आदिवासियों की जीवन शैली समझने और उनके रस्मों रिवाज को जानने तथा उन्हें उनके पारंपरिक तरीके अपनाने में कोई रुकावट न डालने से ही उनका भला हो सकता है।  उनकी अपनी न्याय और पंचायत व्यवस्था है, वन संरक्षण की अपनी विधियां हैं, खेतीबाड़ी के अपने तरीके हैं, रोजगार की अपनी अलग पहचान है, जरूरत केवल उन तक आधुनिक टेक्नोलॉजी और उसका इस्तेमाल करने के तरीके पहुंचाने की है।

एक दूसरा उदाहरण ओड़ीसा के झारसुगुड़ा जिले में दर्लीपली गांव का है जहां एनटीपीसी का प्लांट है। इस आदिवासी इलाके में गरीबी के कारण ये लोग अपने मृतकों का दाह संस्कार और उनकी अस्थियों का नदी में विसर्जन न कर पाने से शव को जमीन में गाड़ देते थे। वे अपनी जमीन समुचित मुआवजा मिलने पर भी नहीं दे रहे थे क्योंकि इससे उनके पूर्वज बिना विधिवत संस्कार के उखड़ जाते। अनेक प्रयासों के बाद अधिग्रहण करने वाले अधिकारी हकीकत समझ पाए और उन्हें  समझा पाए कि यह काम वे सरकारी अनुदान से अपनी इच्छानुसार कर सकते हैं और सभी पूजा पाठ, अस्थि विसर्जन में लगने वाली राशि उन्हें अलग से मिलेगी, तब कहीं जाकर वे अपनी जमीन देने पर सहमत हुए। अनुमान लगाएं कि यदि यह समझदारी न बरती जाती तो विद्रोह, मारपीट से लेकर खून खराबा तक हो सकता था और प्लांट कभी भी न लग पाता।

ओडिसा सहित अनेक आदिवासी क्षेत्रों के घने जंगलों, वनस्थलियों के पार, नदी, नालों के उफान और कुदरती कहर से त्रस्त तथा घोर समस्याओं से जूझ रहे आदिवासियों तक पहुंच कर अपनी आंखों से उनकी जरूरत समझने और पूरा करने का काम पिछले कुछ वर्षों में होते हुए देखा है। इसी प्रकार मध्य प्रदेश में पहली बार आदिवासी बहुल इलाकों में ग्राम पंचायतों में आदिवासी सदस्यों के बैठने के लिए सुविधाजनक कुर्सी मेज और कॉन्फ्रेंस रूम जैसी सुविधाएं देखकर लगा कि इनके प्रति सम्मान का भाव पैदा हो रहा है। वरना तो चाहे कितना भी समृद्ध आदिवासी हो, उसे जमीन पर झुक कर बैठ कर ही अपनी बात कहनी होती थी।

आदिवासी समाज और आत्मनिर्भरता

जब तक आदिवासी समाज और संस्कृति को गणतंत्र दिवस तथा अन्य आयोजनों में उन्हें एक दिखावटी वस्तु समझने की मानसिकता से ऊपर नहीं उठेंगे, उनका शोषण नहीं रुकेगा। वास्तविकता यह है कि यह समाज अपने भरण पोषण की जरूरतें पूरा करने और आत्मनिर्भर होने में शहर वालों से कहीं अधिक सक्षम है। उन्हें दिखावा करना नहीं आता, छल कपट से दूर रहते हैं, मानव धर्म का निर्वाह करने और वन्य जीवों के साथ तालमेल बिठा कर उनका संरक्षण और संवर्धन करने में उनका कोई मुकाबला नहीं कर सकता। यही नहीं वे अपने पारंपरिक अस्त्र शस्त्रों से शत्रुओं का सामना करने में समर्थ हैं। उनकी मर्जी के बिना उनके इलाकों में प्रवेश कर पाना नामुमकिन है।

जब तक आदिवासियों, वनवासियों और जनजातियों के स्वाभाविक गुणों को समझकर उन्हें अपने साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने के लिए हमारी ओर से पहल नहीं होगी, उनका विश्वास अर्जित करने के प्रयत्न नहीं होंगे, उनकी सोच के अनुसार नीतियां और योजनाएं नहीं बनेंगी, तब तक उनका सहयोग मिलने की बात बेकार है।

हमारा हाल यह है कि उनकी संस्कृति, पहनावे, खानपान से लेकर लोक संगीत, नृत्य, कला में उनकी परंपराओं का सस्ते दामों में सौदा करने में निपुण हैं और इस सब को महंगे दामों में बेचकर मुनाफा कमाने में माहिर हैं। अगर कोई इंकार करे तो पुलिस और प्रशासन अपनी मनमानी से लेकर इन सीधे लोगों पर अमानुषिक अत्याचार करने से नहीं चूकता।

महामहिम राष्ट्रपति से उम्मीद की जा सकती है कि वे अपने कार्यकाल में आदिवासियों को राजनीतिक और सामाजिक रूप से सशक्त बनाने में सफल होंगी। उनकी प्रकृति को बदले बिना उनके रक्षक प्राकृतिक स्रोतों के गैरजरूरी दोहन को रोकने में समर्थ होंगी। यह समाज आबादी के हिसाब से चाहे ग्यारह करोड़ के आसपास हो लेकिन इसकी क्षमता, ताकत और हिम्मत इतनी है कि समस्त भारत का गौरव बन सकता है। यह तब ही हो सकता है जब इनके साथ दुर्व्यवहार न हो, इनका शोषण न होने दिया जाए और इनके अधिकारों को किसी दूसरे के द्वारा हड़प लिए जाने की आशंका न हो।  


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