शुक्रवार, 16 सितंबर 2022

प्रसन्न रहने की आदत या दुःख को स्वीकार करना अपने हाथ में है


इस बात का कोई निश्चित पैमाना नहीं है कि एक व्यक्ति क्यों खुश रहता है और लगभग वैसी ही परिस्थितियों में दूसरा क्यों दुःख का अनुभव करता है ? असल में हमारा दिमाग किसी भी घटना चाहे वह कैसी भी हो, उसके बारे में दो तरह से प्रतिक्रिया करता है। एक तो यह कि जो हुआ उस पर वश नहीं इसलिए उसे सहज भाव से स्वीकार कर लेने में ही भलाई है और दूसरा यह कि आखिर मेरे साथ ही ऐसा क्यों हुआ जो यह दिन देखना पड़ा, इसे खु़द पर हावी होने देना।

सब कुछ वश में नहीं होता

अक्सर जीवन में ऐसा कुछ होता रहता है, ऐसे मोड़ आते हैं और इस तरह के हालात बन जाते हैं जिनसे  व्यक्ति स्वयं को किसी मुसीबत में घिरा हुआ और असहाय महसूस करता है। बाहर निकलने के लिए  कोई उपाय नहीं सूझता, उम्मीद लगाता है कि एक तिनके की तरह किसी का सहारा मिल जाए या अचानक कोई रास्ता निकल आए ।

दूसरा विकल्प यह रहता है कि निराशा के भंवर में डूबने के बजाए अपने को उस वक्त तक के लिए तैयार कर लिया जाए जब तक परिस्थितियां सामान्य न हो जाएं। कहने का अर्थ यह कि हर किसी को अपनी समस्या का हल स्वयं ही निकालने के लिए अपने को तैयार करना होता है और जो करना है उसकी भूमिका से लेकर अंतिम प्रयास तक की रूपरेखा बनाने और उस पर अमल करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेनी पड़ती है।

उदाहरण के लिए मान लीजिए कि आपके साथ कोई व्यक्तिगत या पारिवारिक त्रासदी हुई है, कुछ ऐसा हुआ है कि वह हर समय मन पर छाया रहता है, उस घटना ने मानसिक रूप से डावांडोल और विचलित कर दिया है, उसका असर शरीर यानी सेहत पर पड़ने लगा है,  अनमनेपन का भाव और अकेले रहने की आदत बनती जा रही हो तो समझिए कि मामला गंभीर है।

किसी दुर्घटना या जो हुआ उसे बदलना आम तौर से संभव नहीं होता, इसलिए इस तथ्य को स्वीकार करना ही पड़ता है कि जिस चीज के होने पर हमारा वश नहीं तो उसे लेकर हमारी दिनचर्या क्यों प्रभावित हो। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि वह घटना हम पर हावी न हो और हम पहले की तरह अपना काम करते रहें। व्यवहार में बदलाव न आने दें और सहज भाव से जो हुआ या हो रहा है, स्वीकार करते हुए आगे जो होगा, उसे भी इसी रूप में लेने के लिए अपने को तैयार कर लें। ऐसा करने का सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि शरीर और मन एक स्वस्थ वातावरण का निर्माण करने के लिए स्वतंत्र होकर तत्पर हो जायेगा।

सुख या दुःख का हावी होना

दुःख हो या सुख, उसे अपने मन पर अधिकार कर लेने देने का कोई औचित्य नहीं क्योंकि दोनों ही हमेशा अपने साथ रहने वाली चीजें नहीं हैं । बेहतर तो यही है कि दोनों को ही कपड़ों पर पड़ी धूल की तरह छिटक देने का प्रयास ही उन्हें हावी न होने देने के लिए काफी है।

दुःख के बेअसर करने की प्रक्रिया यह है कि आप जो काम करते हैं, नौकरी या किसी व्यवसाय का संचालन करते हैं, उसमें पहले से ज्यादा जुट जाएं ताकि जिस चीज ने आपको विचलित किया हुआ है और जिसकी वजह से सुख चैन छिन गया लगता है, उसका ध्यान ही न रहे। अधिक श्रम चाहे मानसिक हो या शारीरिक, थकाने के लिए काफी है और इससे आप को आराम करने, सोने और जो हुआ, उसे याद न करने अर्थात भुलाने में मदद मिलेगी। इससे जल्दी ही वह क्षण आ सकता है जिसमें वह बात याद ही न रहे जिसने आपके खुश रहने में रुकावट डाली है।

यही प्रक्रिया तब भी अपनाई जा सकती है जब हमें कोई अपार सफलता प्राप्त हुई हो और जिसके परिणामस्वरूप प्रसन्नता स्वाभाविक रूप से मिल गई हो और आप उससे फूले न समा रहे हों। मान कर चलिए कि जिस तरह दुःख की सीमा तय है, उसी तरह सुख की अवधि भी सीमित है। इसलिए उसे भी अगर धूल समझकर छिटकना न चाहें तो कम से कम उसे अपने से लिप्त न होने दें क्योंकि न जाने कब वह आपसे दूर चली जाए और आप उसकी याद से ही बाहर न निकल सकने के कारण अपना वर्तमान स्वीकार न कर सकें और हमेशा उसकी याद से अपने भूतकाल से ही जूझते रहें।

एक बात और है और वह यह कि प्रसन्नता या खुशी और दुःख ऐसी वस्तुएं नहीं हैं जो बस हो जाएं या अचानक मिल जाएं। यह प्रत्येक व्यक्ति के अंतर में पहले से ही विद्यमान हैं। इसका मतलब यह कि उन्हें समझने के लिए अपने साथ दोस्ती करनी पड़ेगी, अपने मन को लेकर स्वार्थी बनना होगा। वास्तविकता यह है कि किसी अच्छी बुरी घटना का प्रभाव गरम तवे पर पड़े पानी के छीटों की तरह अधिक समय तक नहीं रहेगा।

यह कुछ ऐसा है जैसे कि अपनी कहानी आप स्वयं लिख रहे हैं, इससे किसी दूसरे का कोई लेना देना नहीं है।  आपकी भावनाओं पर केवल आपका अपना अधिकार है, इसमें किसी दूसरे की दखलंदाजी नहीं है। मतलब यह कि इस मानसिक कसरत के बाद यदि आपने इस बात के लिए अपने को तैयार कर लिया है कि कोई क्या कहता है, उसका असर अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया तो खुश रहने से वंचित नहीं रहा जा सकता। कैसे भी हालात हों, उनके अनुसार अपने मन को तैयार कर लेना ही किसी भी अच्छी बुरी घटना को स्वीकार करते हुए जीवन जीने की कला है।

इससे होगा यह कि किसी होनी या अनहोनी के लिए आप न तो स्वयं को व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार मानेंगे और न ही बिना भली भांति विचार किए किसी अन्य को दोषी मानेंगे। इससे होगा यह कि मन बेकार में तनाव से ग्रस्त नहीं होगा और जो भी परिस्थिति है उस पर सकारात्मक सोच से निर्णय लेने में सक्षम होगा। नकारात्मक विचारों से प्रभावित न होकर किसी भी समस्या का हल निकालने में सक्षम हुआ जा सकता है। इसका एक सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि जीतना या हारना महत्वपूर्ण न होकर सही फैसला लेना ही उद्देश्य होगा और तब जो हासिल होगा, वही अपने को खुशी प्रदान करेगा।

तालमेल जरूरी है

वर्तमान समय कुछ ऐसा है कि बड़े शहरों की आपाधापी और दौड़भाग और सब कुछ जल्दी से जल्दी प्राप्त कर लेने की प्रवृत्ति ग्रामीण क्षेत्रों में भी बहुत तेजी से बढ़ रही है। देखा जाए तो यह समाज का एक स्वाभाविक स्वरूप है क्योंकि जब माह, सप्ताह, दिन और घंटों की दूरियां कुछ पलों में सिमट जाएं तो नगरों और गांवों को एक दूसरे के प्रभाव में आकर होने वाले बदलाव से रोकना संभव नहीं है।

जब व्यक्तिगत हो या पारिवारिक, खुश रहना अपनी आदत बन जाए तो फिर सकारात्मक परिणाम हों या नकारात्मक, कोई अंतर नहीं पड़ता। असल में होता यह है कि जब समाज को हर हाल में खुश रहने की आदत पड़ जाती है तो वह अधिक तेजी से आगे बढ़ता है क्योंकि उसकी प्रतियोगिता किसी दूसरे से नहीं बल्कि अपने आप से होती है। उसका कोई भी शत्रु उस पर विजयी नहीं हो पाता क्योंकि उसे प्रसन्न होकर अपना काम करना आता है।

निष्कर्ष यही है कि प्रसन्न रहना है तो स्वयं को केंद्र में रखकर व्यवहार करना सीखना होगा, इसे निजी स्वार्थ न कहकर प्रकृति के साथ संतुलन बनाकर जीना कहना ठीक होगा।  


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