शुक्रवार, 9 सितंबर 2022

शिक्षा या साक्षरता में कमी होगी तो देश का पिछड़ना तय है

 

विश्व साक्षरता दिवस हर साल आठ सितंबर को मनाया जाता है। हमारे देश में भी इसकी खानापूर्ति की जाती है। इस साल तो अध्यापक दिवस पर यह घोषणा भी सुनी कि देश में साढ़े चैदह हजार स्कूलों का कायाकल्प किए जाने का इंतजाम किया गया है जो अगले पांच सात साल में पूरा होगा।

बेशक हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं लेकिन शिक्षा के मामले में इतने पीछे हैं कि हमारे देश की गिनती सबसे कम साक्षर देशों में नीचे से कुछ ही ऊपर है। साक्षरता दर लगभग सत्तर प्रतिशत है, मतलब यह कि बाकी आबादी पढ़ना लिखना नहीं जानती जिनमें महिलाएं तो आधी से ज्यादा अनपढ़ हंै। यह शर्म की बात तो है ही, साथ में सरकारी शिक्षा और साक्षर बनाने वाली नीतियों का खोखलापन भी है।

विज्ञान की अनदेखी

अगर उन कारणों पर गौर करें जिनकी वजह से पढ़ाई लिखाई और अक्षर ज्ञान को लेकर कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई देती तो वह यह है कि अब तक शिक्षा देने का जो तरीका या ढांचा रहा है, उसमें बचपन से ही बेमतलब के विषयों को पढ़ना जरूरी बना दिया गया। जिन विषयों से जिंदगी जीने की राह निकलती हो, उनकी अनदेखी की जाती रही । पढ़ने वाले के मन में जब यह बात गहरी होने लगती है कि जो पढ़ाया जा रहा है, उससे व्यापार, रोजगार, नौकरी तो आसानी से मिलनी नहीं, केवल डिग्री मिलेगी तो वह पढ़ कर क्या करे? देहाती इलाकों में माता पिता भी सोचते हैं कि इससे तो अच्छा है कि बालक खेतीबाड़ी या घरेलू कामधंधा कर उनका सहारा बने तो वे भी स्कूल जाने पर जोर नहीं देते।

इसका कारण यह है कि विज्ञान की पढ़ाई को लेकर एक तरह का हौवा बना दिया गया कि यह बहुत खर्चीली है, इसमें पास होना मुश्किल है, हमारी औकात से बाहर है और यह पैसे वालों के लिए है या जिन्हें अपने बच्चों को डॉक्टर, इंजीनियर बनाना है, जबकि ऐसा कतई नहीं है। यदि बचपन से यह शिक्षा दी जाए कि आसपास का वातावरण, पशु पक्षी का साथ, प्रकृति के साथ तालमेल और जीवन यापन के लिए आवश्यक वस्तुएं हमारे चारों ओर बिखरी हुई हैं तो चाहे लड़का हो या लड़की, पढ़ाई के प्रति उसकी रुचि न हो, तो यह हो नहीं सकता।  मां बाप भी ऐसी शिक्षा प्राप्त करने के बारे में उसे स्वयं ही प्रोत्साहित करेंगे क्योंकि ऐसा न करने का उनके पास कोई कारण नहीं होगा। वे अपने बच्चों को राजी खुशी या जबरदस्ती पढ़ने भेजेंगे।

जीवन से जुड़ी पढ़ाई

अगर यह समझाया जाए कि बुलेट ट्रेन के आगे का हिस्सा नुकीला होने की प्रेरणा किंगफिशर पक्षी से मिली, हवाई जहाज और हेलीकॉप्टर बाज की तर्ज पर बने हैं, एक प्रजाति के जंगली चूहे सौ मील दूर तक सूंघ सकते हैं या फिर मेढ़क के फुदकने को समझने से आरामदायक जूते बनाए जा सकते हैं तो फिर कौन इन सब बातों पर ध्यान देना नहीं चाहेगा?  इसी तरह कमल के फूल की पंखुड़ियों पर धूल या गंदगी का असर नहीं होता और उससे पहनने लायक कपड़े बनाए जा सकते हंै। नारियल के पेड़ों के तने और भिंडी जैसी सब्जी से वस्त्र बनाए जा सकते हैं तो विद्यार्थी में इसके बारे में जानने की उत्सुकता अवश्य होगी।

अगर उसे स्कूल में यह पढ़ाया जाए कि खेती में इस्तेमाल होने वाले हल, ट्रैक्टर ट्रॉली, अन्य औजार कैसे आधुनिक बनते हैं या फिर बताया जाए कि कचरे, वेस्ट डिस्पोजल से कैसे ऊर्जा बनती है, बरसाती पानी को बचा कर कैसे रखा जाए, बाढ़ और सूखे से कैसे निपटा जाए और प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल विभिन्न आपदाओं से बचाने में किस प्रकार मदद कर सकता है, साधारण बीमारियों को आदिवासी क्षेत्रों में मिलने वाली औषधियों से ठीक किया जा सकता है और इसी तरह की सामान्य जीवन से जुड़े विषयों को सिलेबस में रखा जाएगा तो किसे पढ़ने से ऐतराज होगा !


शिक्षा नीति और विज्ञान

नई शिक्षा नीति में विज्ञान की शिक्षा को लेकर बहुत कुछ कहा गया है। उस पर अमल हो जाए तो निरक्षरता दूर करने और शिक्षा को जन जन तक पहुंचने में मदद मिलेगी। इसमें स्कूलों का समूह बनाकर उन्हें विज्ञान शिक्षा के केंद्र तैयार करने की महत्वाकांक्षी योजना है। इसी तरह चलती फिरती प्रयोगशालाओं को बनाने का लक्ष्य है। ये सभी स्कूलों, शिक्षा संस्थानों से जुड़कर विद्यार्थियों को कुदरत की प्रक्रिया समझने में सहायक होंगी।

एक सीमित संख्या में विद्यालयों को आधुनिक सुविधाओं से लैस करने, सीखने के नवीनतम तरीकों का इस्तेमाल करने से लेकर विद्यार्थियों में प्रदूषण नियंत्रण करने की विधि जानने, ऊर्जा स्रोतों, जल, जंगल जमीन से जुड़ी बातों को समझने, पौष्टिक भोजन, स्वस्थ रहने और खेलकूद को भी पढ़ाई जितना महत्व देने की बात कही गई है। इनमें प्रकृति से तालमेल रखना सिखाया जाएगा क्योंकि कुदरत की प्रक्रिया को समझना ही विज्ञान है।

यदि ये स्कूल स्थापित हो जाते हैं, लालफीताशाही और नेताओं की नेतागिरी का शिकार नहीं बनते तो शिक्षा के क्षेत्र में आमूल चूल परिवर्तन होने की उम्मीद की जा सकती है।

अशिक्षा और निरक्षरता का एक और बड़ा कारण  जनसंख्या का बेरोकटोक बढ़ते जाना है। विज्ञान की शिक्षा इस पर भी लगाम लगा सकती है। शिक्षित होने और साक्षर होने का अंतर यही है कि एक से हमें जीवन जीने के सही तरीके पता चलते हैं और दूसरे से अपना भला बुरा और नफा नुकसान समझने की तमीज आती है।

यूनेस्को ने जब अंतरराष्ट्रीय साक्षरता दिवस मनाए जाने की घोषणा की तो तब मकसद यही था कि दुनिया भर के लोग इतना तो अक्षर ज्ञान हासिल कर ही लें कि अनपढ़ न कहलाएं ताकि कोई उन्हें मूर्ख न बना सके। दुर्भाग्य से भारत में लगभग एक तिहाई आबादी निरक्षर है, पढ़ लिख नहीं सकती और मामूली बातों के लिए दूसरों पर निर्भर रहती है।

यदि देश को शत प्रतिशत शिक्षित और साक्षर बनाना है तो सबसे पहले पढ़ने लिखने की सामग्री, विषयों का चयन करने में सावधानी और शिक्षा देने में आधुनिक तरीकों का इस्तेमाल करना होगा। हमारे देश में शिक्षकों की भारी कमी है और उन्हें तैयार करने में वक्त भी बहुत लगता है। कोरोना महामारी ने इतना सबक तो सिखा ही दिया है कि बिना संपर्क में आए या आमने सामने न होने पर किस प्रकार पढ़ाई की जा सकती है। आज सैटेलाइट द्वार शिक्षा को दूर दराज के क्षेत्रों तक सुगमता से पहुंचाया जा सकता है। वर्चुअल क्लासरूम और मोबाईल टेक्नोलॉजी तथा रोबोट तकनीक का इस्तेमाल एक सामान्य बात है। जरूरत इस बात की है कि इसे सस्ता और सुलभ कर दिया जाए। इससे पूरे देश को एक ही समय में एक शिक्षक द्वारा अपनी बात समझाई जा सकती है।

किसी भी समाज के पतन के सबसे बड़े चार कारण गरीबी, निरक्षरता, जनसंख्या और बेरोजगारी हैं। इनसे मुकाबला करने का एक ही रामबाण उपाय है और वह है सही शिक्षा। क्या यह जरूरी है कि हम देशी, विदेशी शासकों की जीवनियां, प्राचीन इतिहास के विवरण, जो भूतकाल है उस की खोजबीन, यहां तक कि सांस्कृतिक विरासत, परंपराओं के चलन जैसे विषयों को पढ़ने पढ़ाने पर जोर दें और जो जिंदगी को जीने लायक बनाने में मदद करें, उससे विद्यार्थियों को दूर रखें। ये विषय केवल वे पढ़ें जिनकी इनमें रुचि हो, उनके कैरियर की संभावना हो लेकिन हर कोई तारीखों को याद रखने, शासकों के कारनामों, युद्धों के विवरणों और अत्याचारों या सुशासन को लेकर पूछे जाने वाले सवालों के जवाब रटने में अपना समय और धन क्यों नष्ट करे ?

शिक्षा हो या साक्षरता, वही सही है जो जीवन की दशा और दिशा निर्धारित करने में सहायक हो। यह काम स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद से ही शुरू हो जाना चाहिए था। अगर तब हो जाता तो हम आज यह नहीं सोच रहे होते कि पूरी आबादी शिक्षित या साक्षर क्यों नहीं हैं?

यहां एक बात और स्पष्ट करनी होगी कि शिक्षा नीति तब ही सफल हो सकती है जब वह बिना आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक भेदभाव के प्रत्येक व्यक्ति के लिए समान रूप से सुलभ हो, उसमें स्वस्थ प्रतियोगिता करने की भावना हो और निराशा का कोई स्थान न हो। यह काम केवल विज्ञान, वैज्ञानिक ढंग से की गई पढ़ाई और आधुनिक सोच बनाने से ही हो सकता है, इसके अतिरिक्त कोई अन्य उपाय नहीं है जो हमारी एक बड़ी आबादी पर लगे अशिक्षित और निरक्षर होने का कलंक दूर कर सके। 


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