पारिवारिक पृष्ठभूमि पर लिखी कोई साहित्यिक रचना जैसे कहानी, कविता और उपन्यास पढ़ते हैं या फिल्म और सीरियल देखते हैं तो उनसे हमारा जुड़ाव तब ही हो पाता है जब उनमें कुछ ऐसा हो, जो लगे कि आसपास घटने वाली घटनाओं का चरित्र चित्रण है। पाठक या दर्शक इन्हें बेशक सास बहू टाईप की प्रस्तुति कहें और चाहे कितनी भी आलोचना करें, ये मन को भाती हैं, अच्छी लगती हैं और कितने भी विरोध हों, अपने कथानक के कारण लोकप्रियता के पायदान की सीढियां चढ़ती जाती हैं।
मन में यह बात आना स्वाभाविक है कि ऐसा क्यों होता है कि परिवारों में तनाव देखने को मिलता है, साधारण सी बात पर बिखराव हो जाता है और जीवन का अधिकांश समय एक साथ व्यतीत करने पर बंटवारे की नौबत आ जाती है। यही नहीं, आपसी मनमुटाव सड़कों पर आ जाता है और अडौसी पडौसी से लेकर नाते रिश्तेदार तक आश्चर्य करते पाए जाते हैं कि इस परिवार से ऐसी उम्मीद नहीं थी, सब लोग हमेशा एक साथ खड़े नज़र आते थे, इन्हें क्या हो गया कि एक दूसरे का मुंह तक नहीं देखना चाहते। यही नहीं, ऐसे उदाहरण हैं जिनमें मारपीट से लेकर हत्या तक की घटनाएं हो जाती हैं और आपसी रंजिश या दुश्मनी इतनी बढ़ जाती है कि खानदानी या पुश्तैनी बन जाती है। पीढ़ियां गुजर जाती हैं और यह तक याद नहीं रहता कि मनमुटाव की शुरुआत कब और कैसे हुई थी, बस एक परंपरा सी हो जाती है जिसे कायम रखना है।
अनावश्यक हस्तक्षेप
यह विधि का विधान है कि हम अपने मातापिता या संतान का चुनाव नहीं कर सकते। पति पत्नी द्वारा एक दूसरे का चुनाव करना अपने वश में होता है और उसके लिए सभी के पास बहुत से विकल्प होते हैं। यह भी मान्यता है कि जोड़ियां ऊपर से बनकर आती हैं और कौन किस का जीवन साथी बनेगा, यह सब भाग्य की बात है। परंतु वास्तविकता यह है कि आज के दौर में बहुत कुछ खोजबीन करने और अपने मन मुताबिक संबंध मिलने पर ही वैवाहिक जीवन का आरंभ हो पाता है। अक्सर जिन्हें हम बेमेल जोड़ी कहते हैं, चाहे किसी भी कारण से हों, वे जीवन भर साथ निभाती हैं और बहुत से संबंध शुरू से ही बिगड़ने लगते हैं और एक स्थिति ऐसी आती है जिसमें संबंध विच्छेद ही एकमात्र उपाय बचता है।
आखिर ऐसा क्या होता है कि बहुत देखने भालने के बावजूद रिश्तों में खटास आ जाती है, एक दूसरे से कोई बहुत बड़ी शिकायत न होने पर भी अलग होना ही बेहतर लगता है। इसका कारण परिवार में जिन्हें हम अपने कहते हैं, उनकी अनावश्यक दखलंदाजी है जो दरार पैदा करने का काम करती है ।
व्यावहारिक उपाय
यहां एक दूसरी व्यवस्था का ज़िक्र करना है जो नौकरी या व्यवसाय से जुड़ी है। किसी भी संस्थान में यह नियम लागू रहता है कि कोई भी कर्मचारी अपने काम के बारे में अपने परिवार वालों को केवल यह बता सकता है कि वह कहां काम करता है और ज्यादा से ज्यादा यह कि वहां मोटे तौर पर क्या काम होता है। इससे अधिक कुछ नहीं। यह पाए जाने पर कि कर्मचारी के घरवाले जब तब ऑफिस में उससे मिलने बिना किसी काम के आते रहते हैं तो इसके लिए चेतावनी से लेकर नौकरी तक पर आंच आ सकती है।
इसके पीछे यह तर्क है कि घरवालों से यदि कर्मचारी ने अपने काम के बारे में कोई चर्चा की या किसी समस्या के बारे में सलाह ली तो उसके परिणाम अच्छे नहीं होते। मान लीजिए, किसी सदस्य के मशविरे को मानकर कार्यवाही कर ली और उससे उलझन सुलझने के बजाए ज्यादा उलझ गई तो जिसकी सलाह ली गई, वह तुरंत कहेगा कि उसने अपनी समझ से कहा था, अगर वह गलत निकली तो उसके लिए वह जिम्मेदार नहीं, यदि सही निकली तो वह पूरा श्रेय लेने को तैयार हो जाएगा ।
अब हम उस परिवार की बात करते हैं जो बिखरने के कगार पर है। मान लीजिए, आपकी बेटी या बहन का विवाह हो गया है और वह अपने घर यानी ससुराल की कोई समस्या या अपनी परेशानी अथवा अपने साथ हो रहे व्यवहार के बारे में कोई बात बताती है और आपने अपनी समझ से कुछ ऐसा कह या कर दिया जो उसके परिवार वालों के व्यवहार से मेल नहीं खाता और लड़की ने आपके कहे अनुसार अपना कदम उठा लिया तो बात बिगड़ना निश्चित है।
इसे गैर ज़रूरी दखलंदाजी से दोनों परिवारों के बीच दरार पड़नी शुरू हो सकती है। इसी तरह यदि परिवार की बहु अपने मायके वालों की रुचि, उनकी आवभगत और जब चाहे तब उससे मिलने आ जाने की आदत को आवश्यकता से अधिक महत्व देती है तो समझिए कि संबंधों के बिगड़ने की शुरुआत हो चुकी है।
अक्सर परिवारों में मुखिया की मृत्यु होने पर संपत्ति को लेकर वाद विवाद होता है जिसका कारण अधिकतर किसी वसीयत के न होने या उसमें किसी को कम या ज्यादा देने से होता है।
कई मामलों में मृत्यु के समय जो व्यक्ति पास था, वह सहमति या जबरदस्ती यदि संपत्ति अपने नाम लिखा लेता है तो ऐसी स्थिति में परिवार के अन्य सदस्यों के सामने लंबी मुकदमेबाजी के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं रहता। इसका एक ही हल है कि अपने जीवन काल में ऐसी लिखित व्यवस्था कर दी जाए जिससे बाद में विवाद या झगड़ा होने की संभावना न रहे।
व्यापक स्तर पर प्रभाव
परिवार में यदि सब कुछ ठीक नहीं है तो उसका प्रभाव समाज पर पड़ना स्वाभाविक है क्योंकि मनुष्य सामाजिक प्राणी है। इसे यदि व्यापक अर्थों में देखा जाए तो पारिवारिक असंतुलन या उसके विघटन का असर देश पर भी पड़ता है। आर्थिक विकास भी प्रभावित होता है और एकजुट रहने की शक्ति कमज़ोर पड़ती है।
बहुत से देशों में यह एक पारिवारिक और सामाजिक व्यवस्था बन गई है कि जब संतान के पालन पोषण और उसकी शिक्षा की जिम्मेदारी पूरी हो जाती है और वह वयस्क होकर अपने मुताबिक जीवन जीने के लिए तैयार हो जाता है, उसे अलग कर दिया जाता है । वह अपने निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र हो जाता है। मातापिता उसका साथ तो देते हैं लेकिन दखलंदाजी नहीं करते, न ही अपनी बात थोपते हैं। इसमें सरकार भी उनका साथ देती है और यह उसकी नीतियों की जिम्मेदारी है कि वह युवा अपने व्यक्तिगत जीवन में समर्थ हो और अपने देश की प्रगति में योगदान करे।
हमारे देश में संयुक्त परिवार की परंपरा रही है इसलिए विदेशी मॉडल अपनाना सरल नहीं है। जिस तरह से आज एकल परिवार की धारणा को बल मिल रहा है, उससे स्थिति में बदलाव आना निश्चित है लेकिन वर्तमान समय में सबसे ज्यादा ज़रूरी है कि परिवार में बिखराव को रोकने के प्रयत्न किए जाएं। यह परिवार से लेकर सरकार तक का दायित्व है।
शुक्रवार, 4 नवंबर 2022
परिवारों में बिखराव का कारण विश्वास और समझ का अभाव
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें