शुक्रवार, 6 जनवरी 2023

राजनीति से मुक्ति मिलने पर ही विज्ञान और वैज्ञानिक सोच संभव

 हमारे देश में जब तब राजनीतिज्ञ जिसमें मंत्री, मुख्य मंत्री और प्रधानमंत्री तथा राज्यपालों से लेकर राष्ट्रपति तक ज़्यादातर रस्म अदायगी की तरह और बहुत कम वास्तविकता को समझकर बयानबाज़ी करते रहते हैं। लेकिन इससे न तो विज्ञान का भला होता है, न ही वैज्ञानिक सोच बन पाती है। यही नहीं कथनी और करनी में इतना अंतर होता है कि वैज्ञानिक अगर इन पर भरोसा कर ले तो अपनी मंज़िल पाने में उसे अनंत काल तक प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है।


वैज्ञानिक प्रयोगशाला

प्रधानमंत्री का यह वक्तव्य या कहें कि उनका सपना भारत को इस सदी में विश्व की सबसे आधुनिक वैज्ञानिक प्रयोगशाला के रूप में देखने का है तो इस पर प्रत्येक भारतवासी को गर्व होना स्वाभाविक है। यदि वे इसके साथ ही वैज्ञानिकों के साथ नौकरशाही यानी ब्यूरोक्रैट्स द्वारा किए जाने वाले भेदभाव, लालफ़ीताशाही और उनकी ज़रूरतें पूरी करने में जानबूझकर या लेटलतीफ़ी के कारण देरी न होने देने के बारे में कुछ बंदोबस्त करते तो बेहतर होता।

क्योंकि विज्ञान से संबंधित फ़िल्में तथा रेडियो कार्यक्रम बनाने का काफ़ी अनुभव रहा है तो कुछ ऐसे उदाहरणों से बात समझने में आसानी होगी। दक्षिण भारत की एक बड़ी विज्ञान प्रयोगशाला में शरीर के तन्तुओं पर गहन शोध करने के लिए महिला वैज्ञानिक ने प्रस्ताव दिया कि आगे की खोज जर्मनी में उपलब्ध संसाधनों से ही हो सकती है इसलिए उसे आवश्यक सुविधाएँ दी जायें। आश्चर्य होगा कि इसके इंतज़ार में तीन साल बीत गये। तब ही ऑस्ट्रेलिया के एक संस्थान से उसे न्यौता मिला कि उसे वे सब सुविधाएँ तुरंत मिलेंगी अगर वे उनके लिये अनुसंधान करें। उसने स्वीकृति दी और अपनी मंज़िल पाई लेकिन उसका लाभ दूसरे देश को मिला।

एक प्रसिद्ध लेबोरेटरी में एक वैज्ञानिक सरकारी छात्रवृत्ति पर जर्मनी गये और वहाँ से जब आये तो अपने क्षेत्र में बहुत कुछ नया करने की इच्छा और जोश के साथ सरकार को प्रस्ताव दिया और उसके लिये संसाधन उपलब्ध कराने का प्निवेदन किया। फ़ाइलों की उठापटक और बेमतलब के सवाल जवाब तथा अनेक अनावश्यक स्पष्टीकरण में चार साल बीत गये। वैज्ञानिक महोदय निराश होकर शांत बैठ गये और रिटायर होने का इंतज़ार करने लगे। नौकरी छोड़कर विदेश जाकर अपनी खोज को आगे बढ़ाने का निर्णय भी उनके लिए एक विकल्प था लेकिन उसका लाभ किसी अन्य देश को मिलता, इसलिए उन्होंने अपना सपना अधूरा ही रहने दिया।

सरकारी प्रयोगशालाओं में काम कर रहे हमारे वैज्ञानिकों से अपनी खोज या किसी नयी टेक्नोलॉजी का विकास करने पर यह अपेक्षा की जाती है कि वे उसके बेचने का काम यानी मार्केटिंग भी करें। क्योंकि बेचने की कला उन्हें नहीं आती इसलिए ज़्यादातर टेक्नोलॉजी अलमारी में बंद होकर और समय के साथ उनमें बदलाव न होने के कारण किसी इस्तेमाल की नहीं रहतीं, पुरानी पड़ जाती हैं।

यह भी उम्मीद की जाती है कि जो ग्राहक अर्थात् टेक्नोलॉजी ख़रीदने और उससे अपना व्यापार या उद्योग विकसित करने वाला उद्यमी है, वह इनके पास जाये और यदि ख़रीदने का मन बनाये तो उसे उस तक पहुँचने यानी डिलीवरी होने में बरसों लग जाते हैं। इसीलिए उद्योगपति सरकारी प्रयोगशालाओं को ज़्यादा महत्व न देते हुए, जबकि उनमें अधिक संभावनाएँ होती हैं, निजी प्रयोगशालाओं से टेक्नोलॉजी लेने में अधिक रुचि दिखाते हैं।

असल में क्या है कि आज़ादी का अमृत महोत्सव आने तक भी सरकारी कामकाज़ में अंग्रेज़ी शासन की दासता समाप्त नहीं हो पाई है। अंग्रेज़ ने भारत में केवल उतने वैज्ञानिक विकास को महत्व दिया था जिससे उनकी ज़रूरतें पूरी हों और वे अपने देश में उनका व्यापारिक और औद्योगिक विकास कर सकें और फिर ज़बरदस्त मुनाफ़े तथा मुँहमाँगे दाम पर हमें और दूसरों को बेचें। इसका मतलब है कि दिमाग़ और कौशल हमारा और फ़ायदा उनका होता था। आज भी बहुत कुछ अपने बदले स्वरूप में जिसे ब्रेन ड्रेन कहते हैं, यही होता है।हमारी यही विडंबना है कि हमारे वैज्ञानिक विदेशों को मालामाल कर रहे हैं क्योंके हमारे यहाँ उनकी बात ध्यान से सुनने तक की फ़ुरसत नहीं, संसाधन उपलब्ध कराने की बात तो बहुत दूर की है।


किसी से कम नहीं पर विवश हैं

हमारे देश में प्रतिभा, कौशल, वैज्ञानिक सोच और स्वदेशी संसाधनों की कोई कमी नहीं हैं। कृषि क्षेत्र में हमारे वैज्ञानिकों ने हरित क्रांति की, स्वराज जैसे कम लागत के ट्रेक्टर का निर्माण किया, खेतीबाड़ी में आधुनिक मशीनों के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया। लेकिन यहाँ भी इंपोर्टेड या विदेशी तकनीक ने हमारा पीछा नहीं छोड़ा। भैंस के दूध से फैट अलग कर बेबी मिल्क पाउडर हमने ही बनाया वरना तो इसके लिए भी निर्भर थे।

चमड़ा उद्योग पचास लाख लोगों को रोज़गार देता है, जो कभी कच्चे माल के रूप में अग्रेज़ ले जाते थे, आज यूरोप की फैशन इंडस्ट्री को टक्कर दे रहा है। एक खोज जिसने चुनावों का ढर्रा ही बदल दिया, जो मतदान के समय लगाई जाने वाली स्याही और इलेक्ट्रिक वोटिंग मशीन है। इसी तरह स्वास्थ्य, चिकित्सा और बीमारियों की रोकथाम के लिये आधुनिक दवाईयों का निर्माण भी हमने किया है और वह भी घोर विदेशी कम्पटीशन के होते हुए। अणु विज्ञान में हम बहुत आगे हैं अंतरिक्ष में एक से बढ़कर एक कुलाँचें भर रहे हैं। जहां तक ऊर्जा की बात है तो उसमें भी हमने सोलर ग्रिड की खोज से सब को चैंकाया है।

हमारे वैज्ञानिकों और अनुसंधान में लगे कर्मियों ने सीमित साधनों के बावजूद कमाल किए हैं। ज़रा सोचिए कि यदि समय पर सही सहायता मिलती और राजनीतिज्ञ अपनी पीठ थपथपाने के बजाय इन्हें पूरा श्रेय देते तो हम जहां हैं उससे बहुत आगे होते। हमारे सामने पीने के पानी की समस्या नहीं होती, नदियों में प्रदूषण नहीं घुलता और हवा में धुएँ के कारण फ़ेफ़डे ख़राब न होते। शहरों में गंदगी और कूड़े के ढेर नहीं होते, बदबू न होती और रिहायशी इलाक़ों में गंदे नालों को सहन न करना पड़ता।

यह सब बदल सकता है पर इसके लिए ज़रूरी राजनीतिक इच्छाशक्ति, समय नष्ट किए बिना वैज्ञानिकों को समुचित संसाधनों की पूर्ति और जनता का सहयोग तथा सरकार की संकल्प शक्ति अपेक्षित है। अगर यह हो जाए तब ही प्रधान मंत्री का निश्चय सार्थक हो पाएगा अन्यथा दुनिया बहुत आगे निकल जाएगी और हम देखते रहेंगे।


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