जब कोई महिला गर्भ धारण करती है और फिर शिशु को जन्म देती है तो अक्सर ईश्वर की कृपा, अल्लाह की देन या जो भी कोई धर्म हो, उसके प्रवर्तक की अनुकंपा कहकर धन्यवाद करने की परंपरा है। हक़ीक़त यह है कि यह कहकर पुरुष और स्त्री दोनों अपनी करनी का जिम्मा किसी अज्ञात शक्ति पर डालकर अपना पल्ला झाड़ने का काम करते हैं जबकि सिवाय उनके इसमें किसी भी का कोई हाथ नहीं हैं चाहे वह ईश्वर हो या कोई दिव्य कही जाने वाली ताक़त।
मेरे शरीर पर मेरा अधिकार
हालाँकि प्रजनन या रिप्रोडक्शन की क्रिया में दोनों की मर्ज़ी होती है पर स्त्री पर सबसे ज़्यादा असर पड़ता है । उस पर नौ महीने तक गर्भ में और प्रसव होने के बाद घर या परिवार में शिशु का लालन पालन करने और एक अच्छी संतान के रूप में बड़ा करने की ज़िम्मेदारी होती है। अगर लड़का या लड़की बड़े होकर भले बने तो इसका श्रेय पिता या परिवार को जाता है और कहीं ग़लत निकले तो माता को बुरा कहने का दौर शुरू होकर उस पार लांछन लगाने से लेकर उसकी ज़िंदगी को दूभर तक करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती।
प्रश्न यह है कि जब महिला को ही पति, परिवार और समाज को जवाब देना है तो फिर यह अधिकार भी उसका ही बनता है, उसे गर्भवती होना है या नहीं होना है, यह निर्णय उसका हो। यदि वह नहीं चाहती कि पुरुष उसके साथ असुरक्षित अर्थात् बिना किसी गर्भ निरोधक उपाय का इस्तेमाल किए शारीरिक संबंध बनाने पर ज़ोर डाले या नज़बूर करे तो उसका अधिकार है कि वह मना कर दे।
यदि घरवाले, सामाज के ठेकेदार यानी असरदार लोग जैसे मुखिया, सरपंच आदि और उससे भी आगे मामला अदालत में चला जाए और पति दावा करे कि यह उसके कंजुगल राइट्स यानी यौन संबंध बनाने के अधिकार का उल्लंघन है तो उसे कोई क़ानूनी राहत न मिले। यह तब ही हो सकता है जब इस बारे में पब्लिक हैल्थ सिस्टम के अंर्तगत क़ानून बनाया जाए। यह स्त्री की मर्ज़ी है कि वह निर्णय ले कि उसे संतान कब होनी चाहिए न कि पुरुष या घर के अन्य सदस्य क्योंकि यह उसका शरीर है जिस पर सबसे अधिक असर पड़ेगा।यदि वह इसके लिए राज़ी नहीं है तो आज के युग में बहुत से ऐसे साधन हैं जिनसे बिना स्वयं गर्भ धारण किए माता पिता बना जा सकता है।
यह अधिकार या इसे लेकर बना क़ानून सभी पर लागू हो, मतलब चाहे कोई खेत में काम करे, फैक्ट्री वर्कर हो, मज़दूरी करे, दिहाड़ी पर हो, किसी दफ़्तर में काम करे, अपना व्यवसाय करे या जीवन यापन के लिए कुछ भी करे, यदि संतान चाहिए तो यह स्त्री पर हो कि कब चाहिए और यदि वह न चाहे तो उस पर कोई दोष, कलंक न लगे या ज़बरदस्ती न की जाए। क़ानूनी व्यवस्था के साथ सामाजिक चेतना हो कि स्त्री के शरीर पर उसका हक़ है और इसमें धर्म, जाति, संप्रदाय या समुदाय का दखल न हो।
अधिकार के लाभ
गर्भ निरोधक का इस्तेमाल किए बिना न कहने का अधिकार मिल जाने से होने वाले लाभ इतने हैं कि अगर यह हो गया तो इसके दूरगामी परिणाम होने निश्चित हैं। चूँकि यह विषय बहुत संवेदनशील , नाज़ुक और पुरुष तथा स्त्री की भावनाओं से जुड़ा है इसलिए यह समझना ज़रूरी है कि इसके फ़ायदे क्या हैं ;
सबसे पहला लाभ तो यह होगा कि उतने ही बच्चे होंगे जितने की ज़रूरत परिवार, समाज और देश को होगी। जिसकी जितनी औक़ात या पालने की हिम्मत होगी, उससे ज़्यादा बच्चे नहीं होंगे। इस क़ानून के बन जाने से सरकार को पता होगा कि उसे कितनी आबादी के लिए स्वास्थ्य सेवाएँ मुहैया करानी है, उनकी शिक्षा के लिए कितनी व्यवस्था करनी है और रोज़गार एवं व्यापार तथा काम धंधों का इंफ़्रास्ट्रक्चर कितना बड़ा तैयार करना है।
इसका दूसरा लाभ यह होगा कि सरकार को परिवार नियोजन के लिए कोई नीति बनाने, कार्यक्रम या प्रचार प्रसार करने की ज़रूरत नहीं रहेगी और इस तरह करोड़ों रुपया बचेगा। इस पैसे का इस्तेमाल गर्भ निरोधक साधन जैसे कंडोम बनाने और उनकी सप्लाई सुनिश्चित करने पर होगा। इसके साथ ही गर्भवती महिलाओं को अपने घर से स्वास्थ्य केंद्र या अस्पताल में टीका लगवाने या प्रसव के लिए आने या उन्हें सुरक्षित तरीक़े से वहाँ तक ले जाने की सुविधा और साधन तैयार करने पर खर्च हो। प्रसव और उसके बाद जच्चा बच्चा के लिए निःशुल्क सैनिटोरियम या क्रैडल सुविधा, विशेषकर गाँव देहात और दूरदराज़ क्षेत्रों में देने पर सरकार को खर्चा करना होगा।
तीसरा लाभ यह होगा कि इस क़ानून से महिलाओं को यह एहसास और आभास होगा कि परिवार और समाज में उनकी एक हैसियत यानी आइडेंटिटी है, उनकी स्त्रियोचित गरिमा को कोई ठेस नहीं पहुँचा सकता।पति या परिवार उसके गर्भवती होने को लेकर लड़ाई झगड़ा, बदतमीज़ी या दुर्व्यवहार करता है तो समाज और क़ानून उसे सज़ा दे सकता है। इससे महिला का मनोबल बढ़ेगा और वे मेरे शरीर पर मेरे अधिकार की भावना के साथ अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ कोई भी फ़ैसला कर सकती हैं।
चौथा लाभ यह होगा कि चूँकि कोई भी महिला सोच समझकर अर्थात् अपनी आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखकर ही गर्भवती होने का निर्णय लेगी तो आज यह जो सड़कों पर नंग धडंग बच्चे आवारा घूमते, चौराहों पर कारों के पीछे भागते दिखाई देते हैं या फिर माँ बाप के काम पर जाने के बाद ग़लत संगत में पड़ जाते हैं, ऐसे दृश्य देखने को नहीं मिलेंगे। इसी के साथ बच्चों में यौन हिंसा या संबंध होने के मामलों में भी कमी आएगी। असल में होता यह है कि एक ही कमरे में बच्चों की मौजूदगी अर्थात् एक साथ सोने से माता पिता के प्रेमालाप के कारण उनमें जो जिज्ञासा पैदा होती है, उसकी शांति के लिए वे वैसी हो हरकत करते हैं जो वे देखते हैं।
इस क़ानून का एक लाभ यह भी होगा कि गर्भपात के मामलों में कमी आयेगी। अक्सर इच्छा और ज़रूरत न होने के कारण जब गर्भ ठहर जाता है तो उसे गिराने में ही भलाई लगती है और जब यह बार बार होता है तो इसका नुक़सान स्त्री को ही अपनी सेहत की क़ीमत से चुकाना पड़ता है।
यह क़ानून ज़रूरी क्यों है ?
वास्तविकता यह है कि देश में ग़रीबी हो या बेरोज़गारी, इसका सबसे बड़ा कारण बढ़ती आबादी है और जो है उसका सही ढंग से परवरिश न कर पाना है। जब गर्भ धारण करने के अधिकार का इस्तेमाल महिला को अपनी मर्ज़ी से करना होगा तो वह कभी नहीं चाहेगी कि उसकी संतान किसी अभाव में रहते हुए बड़ी हो।
एक बात यह भी है कि बहुत से धर्मों में गर्भ निरोधक इस्तेमाल करने की मनाही है और धर्मगुरु, पादरी, पुजारी यह तक हिदायत देते हैं कि जन्म के बाद शिशु को माँ का पहला दूध कब पिलाया जाए। इसी के साथ वे संतान होने या न होने पर टोने टोटके भी कराते हैं। जब महिला यह फ़ैसला लेने के लिए तैयार हो जाएगी कि उसे बच्चा चाहिए या नहीं और वह मज़बूती से अपनी बात पर क़ायम रहने का मन बना लेगी तो वह किसी ढोंगी के चक्कर में नहीं पड़ेगी।
महिला सशक्तिकरण की दिशा में यह क़ानून जो सिर्फ़ इतना है कि स्त्री को न कहने का क़ानूनी और सामाजिक अधिकार मिले तो फिर देश की दशा और दिशा बदलना निश्चित है।
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