शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2023

युवाओं के बीच बढ़ती निराशा और कुंठा की रोकथाम किए बिना प्रगति संभव नहीं

अक्सर युवावर्ग पर, उस पीढ़ी द्वारा जो अपने को अनुभवी, परिपक्व और समझदार कहती है, ग़ैर ज़िम्मेदार, एक सीमा से अधिक महत्वाकांक्षी और सब कुछ पल भर में पा लेने का आरोप लगाया जाता है। अब क्योंकि नियम बनाने और अपनी मर्ज़ी से निर्णय लेने की शक्ति उसके पास नहीं है तो वह सब होता है जो युवाओं के लिए हानिकारक है और उन्हें निराश करने के लिए काफ़ी है।


कुंठित रहने की संस्कृति

परिवार हो या आपका कार्यक्षेत्र यानी जहां नौकरी या व्यापार करते हैं, वहाँ यदि यह महसूस होने लगे कि हमारी बात तो सुनी ही नहीं जाती तो फिर वातावरण सहज नहीं रहता, बोझिल बन जाता है। ऐसे में यही विकल्प बचता है कि या तो जो है और चल रहा है उसे स्वीकार कर लो या छोड़छाड़ कर दूसरे रास्ते तलाश करो। मतलब यह कि जो आप हैं, वह नहीं रहते या मज़बूर कर दिये जाते हैं कि न रहें। इससे कुंठा और निराशा का जन्म होता जाता है। समय के साथ यह एक संस्कृति हो जाती है कि अपनी ज़ुबान बंद रखने में ही भलाई है। अपनी बात पर दृढ़ रहने की क़ीमत चुकानी पड़ती है और यह हरेक के बस की बात नहीं होती क्योंकि परिवार और समाज के बंधनों को तोड़ना आसान नहीं होता।

नये वर्ग और समीकरण

इस परिस्थिति में युवा वर्ग दो भागों में बंट जाता है; एक कि मेरी ज़ुबान बंद रहेगी, दूसरा मेरे साथ ज़बरदस्ती करने की कोशिश मत करना। विडंबना यह है कि परिणाम दोनों स्थितियों में नकारात्मक ही निकलते हैं। एक में आपकी प्रतिभा की कद्र नहीं होती और दूसरे में अपनी बात की अहमीयत सिद्ध करने के लिए एक ऐसी लड़ाई लड़नी पड़ जाती है जिसमें यह नहीं पता होता कि किसके ख़िलाफ़ लड़ रहे हैं और उससे भी बढ़कर यह कि क्यूँ लड़ रहे हैं ? ऐसे में अगर आप महिला हैं तब तो मुश्किलें और भी ज़्यादा हो जाती हैं क्योंकि नियम या क़ानून क़ायदे बनाने वाले ज़्यादातर पुरुष होते हैं और वही उनका पालन करवाने वाले होते हैं।

परिणामस्वरूप ऐसे में तीन वर्ग बन जाते हैं; अपने को सर्वश्रेष्ठ और सभी गुणों से संपन्न मानने वाले, दूसरे साधारण यानी आम व्यक्ति और तीसरे दास जिनकी कोई आवाज़ नहीं होती। इनका मूल्य भी इसी आधार पर तय होता है। पहले वर्ग का व्यक्ति सबसे अधिक, दूसरा उससे आधा और तीसरा चौथाई से भी कम पाता है। पुरुष हो या महिला उनका आकलन इसी आधार पर होता है।

उदाहरण के लिए यदि कोई तथाकथित माननीय किसी साधारण व्यक्ति के साथ अन्याय, ज़ोर ज़बरदस्ती, अमानवीय व्यवहार या दुष्कर्म करता है तो उसकी सज़ा कम होती है या होती ही नहीं और यदि किसी दास की श्रेणी में आने वाले के साथ करता है तब तो उसकी न तो सुनवाई होती है और न ही दुहाई दी जा सकती है। इसके विपरीत यदि यह स्थिति उलट हो अर्थात् साधारण या दास वर्ग का व्यक्ति किसी माननीय के साथ वही हरकत करता है जो उसके साथ पहले वर्ग के व्यक्ति ने की थी तो उस पर दण्ड, सज़ा और उसकी प्रताड़ना सब कुछ लागू हो जाता है। यह ठीक वैसा ही है कि समर्थ, संपन्न और ओहदेदार व्यक्ति कुछ भी कहे, करे तो वह नियम माना जाए और कोई साधारण या दास करे तो वह उसका भाग्य जैसे कि पति अपनी पत्नी के अतिरिक्त किसी अन्य से संबंध बनाए तो वह मर्दानगी और यदि पत्नी यही करे तो वह सज़ा की हक़दार।

निर्णय लेने का अधिकार

मूल बात यह है कि यदि समानता की रक्षा करनी है तो निर्णय लेने, नियम और क़ानून क़ायदे बनाने का काम तीनों वर्गों को सम्मिलित रूप से करना होगा। यदि ऐसा नहीं होता तब संपूर्ण समाज को मिलने वाले लाभ कभी समान या एक बराबर नहीं हो सकते।एक वर्ग अपने लिए बहुत कुछ रख लेता है और शेष दोनों वर्गों के लिए जो बचता है वह ऊँट के मुँह में जीरे के समान होता है। आज जो यह देखने को मिलता है कि एक वर्ग की संपत्ति कुछ ही समय में दुगुनी चौगुनी हो रही है और बाक़ी की हालत दयनीय होती जा रही है तो उसका कारण यही है कि समान अधिकार और एक जैसी न्याय व्यवस्था की बात केवल काग़ज़ों में कही जाती है, व्यवहार में इसका उलट होता है।

युवा वर्ग को यही बात खलती है कि उसके सपनों और उसके अंदर कुछ नया करने की क्षमता और उसकी ऊर्ज़ा का इस्तेमाल करने का ठेका उस वर्ग ने ले रखा है जो अपनी परंपरागत, दक़ियानूसी और सड़ी गली सोच से बाहर निकलना ही नहीं चाहता। यही कारण है कि अपने पैरों में बेड़ियाँ डाले जाने और पंख कुतर दिये जाने से पहले वह किसी दूसरे देश में उड़ान भर लेता है और जो ऐसा नहीं कर पाते वे जीवन भर निराशा, कुंठा और असमंजस के भँवर में गोते खाते रहते हैं।

युवाओं को अपनी संस्कृति स्वयं बनाने दीजिए। उनके काम करने के तरीक़ों का फ़ैसला उन पर छोड़ दीजिए।ग़लतियाँ उनकी, अपनी कमज़ोरियों के कारण हुए नुक़सान के भी वे ही ज़िम्मेदार तो फिर डर किस बात का ?


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