शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2023

रामकृष्ण परमहंस के अनुसार धार्मिक एकता से ही ईश्वर के दर्शन संभव हैं

 

हमारा देश आध्यात्मिक संतों, महात्माओं, गुरुओं और वेदों को सभ्यताओं का पोषक मानने वाली विभूतियों, दार्शनिकों तथा महापुरुषों की जननी रहा है। कह सकते हैं कि अध्यात्म जीवन की नींव है। कैसी भी परिस्थिति हो, मनुष्य को उसे समझने, समाधान खोजने और उससे बाहर निकलने के लिए एक साधन के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। लक्ष्य सिद्ध होने के बाद प्राप्त होने वाले आनंद की चरमावस्था यही है।

अठारहवीं सदी भारत के इतिहास में बहुत उथलपुथल भरी रही। अंग्रेज़ी शासन अपनी जड़ें जमा रहा था और भारतीय जनमानस उसे सफल न होने देने के लिए क्रांतिकारी विचारधारा पर चल रहा था। फ़िरंगी हमारी कमज़ोरियों को खोजकर हमें अपना ग़ुलाम बनाने की हरसंभव कोशिश कर रहे थे।यहाँ तक कि धर्म के आधार पर हमें आपस में लड़ाने और बाँटने का खेल रच रहे थे।

रामकृष्ण परमहंस

ऐसे में बंगाल की धरती पर एक साधारण और ग़रीबी झेल रहे परिवार में अठारह फ़रवरी को एक बालक का जन्म होता है जिसका नाम गजाधर रखा जाता है जो बड़े होकर स्वामी रामकृष्ण परमहंस के रूप में प्रसिद्धि पाता है।

आज हम उनका स्मरण और उनके द्वारा किए गए अनेक प्रयोगों की बात इसलिए करना चाहते हैं क्योंकि आज सभी धर्मों के अनुयायियों में अपने धर्म को दूसरे से बेहतर बताने की होड़ लगी हुई है। इसके लिए वे आपस में लड़ाई झगड़ा और संघर्ष तक करने पर आमादा हैं। इस बात का महत्व इसलिए भी है क्योंकि जहां एक ओर यह कहा जाता है कि कोई भी धर्म आपस में बैर करना नहीं सिखाता लेकिन कुछ लोग इसे लेकर ईर्ष्या, द्वेष और नफ़रत फैलाने का कोई भी मौक़ा नहीं छोड़ना चाहते ताकि अस्थिरता बढ़े और उनके निहित स्वार्थ सिद्ध हो सकें।

स्वामी रामकृष्ण को ऐसे ही परमहंस नहीं कहा गया। उसका कारण था कि वे एक शिक्षक की भाँति अपने शिष्यों से कुछ कहने से पहले स्वयं उस बात को अपने पर लागू कर के देखते थे और जब पूरी तरह संतुष्ट हो जाते तब ही उस पर चलने के लिए कहते थे।

उनका जन्म हिंदू धर्म में हुआ था और वे दूसरे प्रमुख धर्मों विशेषकर इस्लाम और ईसाईयत को समझना चाहते थे। इसे जानने के लिए उन्होंने स्वयं को इन दोनों धर्मों के प्रवर्तकों को अपने अंदर अर्थात् अपनी आत्मा के साथ मिला कर देखने का प्रयोग किया। उन्होंने पाया कि वे जितने हिंदू हैं, उतने ही मुस्लिम और ईसाई हैं। कुछ अंतर नहीं है।

कहते हैं कि जब नरेंद्र यानी स्वामी विवेकानंद उनसे अपनी गुरु की खोज के दौरान पहली बार मिलने गए तो रामकृष्ण के नेत्रों से आंसुओं की झड़ी लग गयी और उन्होंने इस युवक को नर अर्थात् नारायण का अवतार कहा। नरेंद्र कुछ समझ नहीं पाए लेकिन जैसे जैसे वे समीप आते गए, दोनों एक दूसरे में समाहित और एकाकार होते गए। गुरु और शिष्य की इससे सुंदर व्याख्या और क्या होगी ?

यह प्रयोग ऐसा नहीं था कि केवल नरेंद्र के साथ होता था बल्कि प्रत्येक उस साधक अर्थात् विद्यार्थी के साथ होता था जो उनसे शिक्षा ग्रहण करने अर्थात् उनका शिष्य बनने की इच्छा से उनके पास आता था।

नरेंद्र जब तीसरी बार मिलने पहुँचे तो केवल रामकृष्ण द्वारा उन्हें छूने भर से उनका पूरा शरीर रोमांचित हो उठा। नरेंद्र के दृढ़ मन को एक झटका सा लगा और उन्हें आभास हुआ कि यह व्यक्ति साधारण नहीं है। एक गुरु की भाँति उनकी प्रत्येक शंका का समाधान कर सकता है। उसके बाद पाँच वर्ष तक नरेंद्र उनकी प्रत्येक कथनी और करनी को तर्क की कसौटी पर कसते रहे।

रामकृष्ण को अपने शिष्यों द्वारा अपनी परीक्षा लिए जाने से आनंद प्राप्त होता था। वे अपनी जाँच पड़ताल किए जाने और अपने व्यवहार के परखे जाने को स्वयं अपने शिष्यों से कहते थे। यदि शिष्य अपने गुरु की बात से संतुष्ट नहीं है तब शिक्षक द्वारा दी जाने वाली शिक्षा का कोई अर्थ नहीं है। यह ऐसा ही है कि जैसे रट्टा लगाकर परीक्षा पास कर ली जाए। इसके विपरीत यदि अपने गुरु या शिक्षक के ज्ञान की थाह लेने के लिए अपने मन में आए प्रश्नों के जवाब माँगे जाएँ तब ही पढ़ाई और ज्ञान का वास्तविक अर्थ समझ में आ सकता है।

रामकृष्ण के अनुसार शिक्षक वही जो विद्यार्थी का मन पढ़ने की क्षमता रखता हो और इसे जानने के लिए अपने बनाए तरीक़ों का इस्तेमाल करता हो। इस तरह जो विद्यार्थी कम बुद्धि रखता हो वह भी गूढ़ विषयों को समझने की योग्यता हासिल कर लेता है। विद्यार्थी और शिक्षक एक दूसरे से निरंतर कुछ न कुछ सीखते रहते हैं। साधारण और सामान्य सी लगने वाली घटना से कुछ अनदेखा और महत्वपूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेने की कला ही व्यक्ति को शिक्षित बना सकती है वरना तो चाहे डिग्रियों के कितने भी ढेर जमा कर लिए जायें, उनसे केवल जीवन यापन किया जा सकता है, मानसिक और वैचारिक समृद्धि हासिल नहीं की जा सकती।

एक विद्यार्थी के रूप में स्वामी विवेकानंद कहते थे कि उनके शिक्षक स्वामी रामकृष्ण परमहंस हमेशा उनके मन और हृदय में ज्ञान की लौ जगाए रखते थे।जिस प्रकार किसी पौधे को बढ़ने के लिए केवल खाद और पानी चाहिए और वह भी एक निश्चित समय के लिए, जड़ पकड़ने पर तो पौधा अपना बढ़ना स्वयं निश्चित कर लेता है।

अपने अस्तित्व की पहचान

जहां तक अध्यात्म और धर्म की शिक्षा का संबंध है तो यह दोनों ही अपने को जानने और समझने के लिए ज़रूरी हैं क्योंकि यह पता होना ही चाहिए कि मैं क्या हूँ, मेरा अस्तित्व क्या है और संसार में आने का मेरा अर्थ क्या है ?

यदि हम आज की बात करें तो धर्म का अर्थ हिंदू, मुस्लिम, बौद्ध, जैन, सिख, ईसाई आदि होकर रह गया है जबकि ये सब केवल ज़िंदगी जीने का एक तरीक़ा या सिद्धांत हैं और परम् सत्य अर्थात् ईश्वर की आराधना करने और उसकी खोज करने तथा उस तक पहुँचने का साधन हैं। उसे चाहे जिस नाम से भी पुकारो, लक्ष्य वही सत्य है।

आज के दौर में जब धर्म के अनुसार राष्ट्र बनाने की बात सुनाई देती है तो वह बचकानी लगती है। इसे लेकर घोषणा करने वालों के अपने स्वार्थ हैं, सामान्य व्यक्ति के मन को विचलित करने का प्रयास हैं, इसका न केवल विरोध होना चाहिए बल्कि ऐसे लोगों के प्रति कठोर कार्यवाही भी हो क्योंकि यह समाज को बाँटने की कोशिश के अतिरिक्त कुछ नहीं है।

स्वामी रामकृष्ण परमहंस की मान्यता थी कि धर्म की पवित्रता का कोई अर्थ नहीं जब तक आत्मा शुद्ध नहीं है।धर्म की शिक्षा तब कट्टरपन बन जाती है जब ईश्वर या सर्वशक्तिमान् की सत्ता को नकारने के प्रयास शुरू हो जाते हैं और तब धर्म हमें बेक़ाबू कर देता है, परिणामस्वरूप दंगे होते हैं और जीवन बिखरने लगता है।

धर्म का लक्ष्य

धर्म मन की शांति के लिए है, उससे समाज में ख़ुशहाली की उम्मीद की जा सकती है। धर्म मानवता की सेवा के लिए है, उसका इस्तेमाल सामाजिक और आर्थिक समस्याओं को सुलझाने के लिए किया जा सकता है। धार्मिक संस्थाओं द्वारा ग़रीबी दूर की जा सकती है, ज़रूरतमंद विद्यार्थियों की मदद की जा सकती है, नौकरी या कारोबार करने के लिए सहायता दी जा सकती है, शिक्षा के प्रसार के लिए प्रबंध किए जा सकते हैं, स्वास्थ्य सेवाओं की पूर्ति की जा सकती है। इससे भी आगे बढ़कर समाज में एकरूपता लाने के लिए प्रयत्न किए जा सकते हैं।इसके अतिरिक्त धर्म का इस्तेमाल कोई व्यक्ति समाज में भेदभाव के लिए करता है तो सावधान होना आवश्यक है।

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