प्रति वर्ष राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश और दुनिया भर की स्त्रियों के लिए एक निर्धारित तिथि पर उनके बारे में सोचने और कुछ करने की इच्छा ज़ाहिर करने की परंपरा महिला दिवस के रूप में बनती जा रही है।
आम तौर पर इस दिन जो आयोजन किए जाते हैं उनमें ज़्यादातर इलीट यानी संभ्रांत और पढ़े लिखे तथा वे संपन्न महिलायें जो दान पुण्य कर अपना दबदबा बनाए रखना चाहती हैं, उन वर्गों की महिलायें भाग लेती हैं। भाषण आदि होते हैं और कुछ औरतों को जो दीनहीन श्रेणी की होती हैं, उन्हें सिलाई मशीन जैसी चीज़ें देकर अपने बारे में अखबार में छपना और टीवी पर दिखना सुनिश्चित कर वे अपनी दुनिया में लौट जाती हैं। प्रश्न यह है कि क्या उनका संसार बस इतना सा ही है ?
एकाकी जीवन जीतीं महिलाएँ
यह एक खोजपूर्ण तथ्य है कि आँकड़ों के अनुसार दुनिया भर में महिलाओं की औसत आयु पुरुषों से अधिक होती है। उदाहरण के लिए किसी भी घर में देख लीजिये चाहे मेरा हो, दोस्तों और रिश्तेदारों का हो, माँ, बहन, दादी, नानी, बुआ, मौसी जैसे रिश्तों के रूप में कोई न कोई महिला अवश्य होगी जो अकेले जीवन व्यतीत कर रही होगी। किसी का पति नहीं रहा होगा तो किसी का बेटा और अगर हैं भी तो वे काम धंधे, नौकरी, व्यवसाय के कारण कहीं बाहर रहते होंगे। उन्हें कभी फ़ुरसत मिलती होगी या ध्यान आता होगा तो फ़ोन पर बात कर लेते होंगे या सैर सपाटे या घूमने फिरने अथवा मिलने की वास्तविक इच्छा रखते हुए कभी कभार अकेले या बच्चों के साथ आ जाते होंगे।
ये भी बस घड़ी दो घड़ी अकेली बुजुर्ग महिला के साथ बिताकर और जितने दिन उन्हें रहना है, उसमें दूसरे दोस्तों या मिलने जुलने वाले लोगों के पास उठने बैठने चले जाते हैं। मतलब यह कि जिससे मिलने और उसके साथ समय बिताने के लिए आए, उसे बस शक्ल दिखाई और वापिसी का टिकट कटा लिया। कुछ लोग इसलिए भी आते होंगे कि जिस ज़मीन जायदाद, घर मकान पर वो अपना हक़ समझते हैं उसे निपटा दिया जाए और जो महिला है उसके लिए किसी आश्रम आदि की व्यवस्था कर दी जाए ताकि उनके कर्तव्य की पूर्ति हो सके।
इन एकाकी जीवन जी रही महिलाओं की आयु की अवधि एक दो नहीं बल्कि तीस से पचास वर्षों तक की भी हो सकती है।
अब एक दूसरी स्थिति देखते हैं। संयुक्त परिवार में अकेली वृद्ध स्त्री का जीवन कितना एकाकी भरा होता है, इसका अनुमान इस दृश्य को सामने रखकर किया जा सकता है कि उससे बात करने की न बेटों को फ़ुरसत है और न बहुओं को ज़्यादा परवाह है, युवा होते बच्चों की तो बात छोड़ ही दीजिए क्योंकि उनकी दुनिया तो बिलकुल अलग है। ऐसे में अकेलापन क्या होता है, इसका अनुभव केवल तब हो सकता है, जब इस दौर से गुजरना पड़े।
कोरोना काल या अकाल मृत्यु के अभिशाप से ग्रस्त ऐसे बहुत से परिवार मिल जाएँगे जिनमें पति और पुत्र दोनों काल का ग्रास बन गए और घर में सास, बहू या बेटी के रूप में स्त्रियाँ ही बचीं। घर में मर्द न हो तो हालत यह होती है कि अगर वे समझदार हैं तो क़ायदे से जीवन की गाड़ी चलने लगती है और अगर अक़्ल घास चरने चली गई तो फिर लड़ाई झगड़ा, कलह से लेकर अपना हक़ लेने के लिए कोर्ट कचहरी तक की नौबत आ जाती है। ऐसे में भाई बन्धु और रिश्तेदार आम तौर पर जो सलाह देते हैं वह मिलाने की कम अलग करने की ज़्यादा होती है। ऐसे बहुत से परिवारों से परिचय है जो पुरुष के न रहने पर लंबी क़ानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं।
एक तीसरी स्थिति उन महिलाओं की है जिन्होंने किसी भी कारणवश अकेले जीवन जीने का निर्णय लिया। उन्हें भी एक उम्र के बाद अकेलापन खटकने लगता है ख़ासकर ऐसी हालत में जब वे नौकरी से रिटायर हो चुकी हों और अब तक जो कमाया उसके बल पर ठीक ठाक लाइफ़स्टाईल जी रही हों लेकिन एकाकी जीवन की विभीषिका उन पर भी हावी होती है। ऐसी अनेकों महिलाएँ हैं जो कोई काम न रहने पर मानसिक रूप से असंतुलन का शिकार हो जाती हैं, उम्र बढ़ने पर युवा उनका साथ नहीं देतीं और वे भी कब तक पुरानी यादों के सहारे जीवन जियें या कितना घूमें या किसी घरेलू काम में मन लगाएं, अकेलेपन का एहसास तो होने ही लगता है।
महिलाओं पर सख्त नज़र
व्यापक तौर पर देखा जाए किसी भी महिला की आवश्यकताएँ बहुत साधारण होती हैं। इनमें सब से पहले ग्रामीण क्षेत्रों में शौचालय, लड़कियों की शिक्षा और स्वास्थ्य तथा चिकित्सा सुविधाओं का होना, रसोई में धुएँ से मुक्ति और सामान्य सुरक्षा का प्रबंध है।
यही सब शहरों में भी चाहिए लेकिन उसमें बस इतना और जुड़ जाता है कि वे अपनी रुचि, योग्यताओं और इच्छा के मुताबिक़ किसी भी क्षेत्र में कुछ करना चाहती हैं तो उन्हें कड़वे अनुभव नहीं हों और वे अपनी शारीरिक, मानसिक और आर्थिक सुरक्षा के साथ रह सकें।
शहरों में एक बात और देखने को मिलती है कि यहाँ ऐसी महिलाओं की संख्या बहुत तेज़ी से बढ़ रही है जो गाँव देहात में अपना पति और परिवार होते हुए भी घरेलू काम करने आती हैं। वे कमाती तो यहाँ हैं लेकिन उन पर अंकुश पति का ही रहता है मतलब उनकी बराबर निगरानी रखी जाती है।
यही स्थिति उन लड़कियों की होती है जो अपना भविष्य उज्जवल करने की दृष्टि से पढ़ने, नौकरी करने या व्यापार के लिए नगरों और महानगरों में आती हैं। ये कितना भी कोशिश करें इन्हें भी हर बात में दूर बैठे पुरुषों जैसे कि पति, पिता या भाई की अनुमति अपने लगभग सभी फ़ैसलों के लिए लेनी पड़ती है। यह जो महिलाओं पर नज़र रखने की मानसिकता का पहलू है, इस पर न केवल बात होनी चाहिए बल्कि कहीं भी आने जाने और काम करने की आज़ादी की सामाजिक गारंटी होनी चाहिए।
समाज और क़ानून
महिलाओं की अभिव्यक्ति और उन्हें कुछ भी करने की आज़ादी मिलना एक सामाजिक पक्ष है लेकिन उनके अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए क़ानून बनाने और उन पर अमल होना सुनिश्चित करना सरकार का जिम्मेदारीपूर्ण कार्यवाही करना है। इसमें समान काम के लिए समान वेतन, पद देते समय उनकी गरिमा बनाए रखना और उनकी सुरक्षा की जवाबदेही वाली व्यवस्था बनाना आता है।
इसके साथ यह सुनिश्चित करना भी समाज और सरकार का कर्तव्य है कि वे नीर क्षीर विवेक अर्थात् दूध का दूध और पानी का पानी करने के सिद्धांत पर चलते हुए महिला हो या पुरुष दोनों के साथ समान न्याय की व्यवस्था लागू करने के लिए ठोस कदम उठाये। क़ानून होते हुए भी व्यवहार में भेदभाव किया जाना बंद हो। ऐसा होने पर ही महिला दिवस की सार्थकता है अन्यथा यह केवल एक परिपाटी बन कर रह जायेगा।
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