शुक्रवार, 3 मार्च 2023

सपूत हो या कपूत , पुत्र दिवस पर पिता - पुत्र के संबंधों की व्याख्या क्या हो ?

 


एक कहावत है कि अगर बेटा कुपुत्र है तो उसके लिए धन संपत्ति जुटाना और छोड़कर क्यों जाना क्योंकि वह तो इसे नष्ट ही करेगा। इसके विपरीत अगर सुपुत्र है तो भी क्यों यह सब करना क्योंकि वह तो अपनी योग्यता से सब कुछ जुटा ही लेगा।

इस सोच का आधार यही रहा होगा कि जीवन में जो कुछ जमा करो, वह अपने अर्थात् माता पिता के उपयोग और उपभोग के लिए ही है। मतलब यह कि संतान के लिए ज़मीन जायदाद, रुपया पैसा जमा करने का कोई अर्थ नहीं, यह सब जोड़ना अपने सुख और आरामदायक ज़िंदगी बिताने के लिए ही होना चाहिए। अपने मरने के बाद कौन इसका कैसा इस्तेमाल करेगा, यह सोचकर अपना वर्तमान बिगाड़ने की ज़रूरत नहीं है।

पुत्र दिवस

आज यह विषय इसलिए चुना क्योंकि कुछ वर्षों से अमेरिका और इंग्लैंड जैसे विकसित देशों और अब भारत में भी चार मार्च को राष्ट्रीय पुत्र दिवस मनाने की परंपरा चल पड़ी है।

पश्चिमी देशों में वयस्क होने पर बेटे को अपना डेरा तंबू अलग गाड़ने की परम्परा उनके विकसित देश होने के दौर से पड़ती गई और अब वहाँ यह मामूली बात। है। पिता यह सोचकर अपने को परेशान महसूस नहीं करता कि बेटा बालिग़ होकर अपनी दुनिया अलग बसाने जा रहा है बल्कि वह सहयोग करता है कि अलग होने की प्रक्रिया के दौरान बेटे को कुछ मदद चाहिये तो पिता इसके लिए तैयार है।

कह सकते हैं कि एकल परिवार यानी अब बड़ा हो गया हूँ तो मुझे अपने जीवन की दिशा स्वयं तैयार करनी है और मेरी जो भी दशा होगी. वह मेरी अपनी बनाई होगी, इसके लिए ख़ुद ज़िम्मेदार हूँ और मातापिता तो क़तई नहीं। इसके साथ ही उन्होंने अब तक मुझे जो जीवन दिया, उसके लिए उनका आभार मानने या ऋणी महसूस करने की न तो आवश्यकता है और न ही उसकी उम्मीद की जाती है।

फ़लसफ़ा यही है कि मैं यह करूँ, वह करूँ, मेरी मर्ज़ी, इसमें किसी की दख़लंदाज़ी नहीं और माता पिता की तो बिलकुल नहीं। अलग रहने और अकेले सभी फ़ैसले करने की आज़ादी मिलने की आदत पड़ जाने से बाप बेटे को एक दूसरे पर निर्भर रहने से मुक्ति मिल जाती है। वे न तो सोचते और कहते हैं कि हमने तेरे लिए यह किया और तू हमारे साथ यह कर रहा है या आपने मेरे लिए किया ही क्या है, जैसी बातें दोनों के दिमाग़ में आम तौर से नहीं आतीं। भावुक होकर या भावनाओं में बहकर अपने मन या इच्छा के ख़िलाफ़ कुछ कहने या करने की ज़रूरत नहीं पड़ती। जो कुछ होता है या जैसे भी संबंध बनते या बनाए जाते हैं, वे प्रैक्टिकल यानी व्यावहारिक आधार पर बनते हैं।

इन देशों में परिवारों के लिए विकसित होने का यही अर्थ है कि न अपने साथ कोई ज़्यादती होने दो और न ही अपने पिता से उम्मीद रखो कि उनसे क्या मिला और क्या नहीं मिला या यह मिलना चाहिये जो नहीं मिल रहा और उसे हासिल करने के लिए मुझे यह करना है। इस व्यवस्था में एक अच्छी बात यह है कि पिता के न रहने पर संतानों के बीच झगड़े होने की संभावना न के बराबर रहती है क्योंकि जिसे जो मिलता है, उसे उसकी उम्मीद नहीं होती, इसलिए वह उसे बिना किसी शिकायत के स्वीकार कर लेता है।

राष्ट्रीय पुत्र दिवस पर मक़सद यही रहता है कि पिता और पुत्र अपने परिवारों सहित एक दूसरे से मेलमिलाप करें, चाहे वर्ष में एक बार ही सही। इसके पीछे यही भावना है कि अगर यह न हो और बरसों तक न मिलें तो शायद अचानक सामना होने पर एक दूसरे को पहचान भी न पाएँ और अजनबियों की तरह मिलें। असल में होता यह है कि अलग रहने से आपस में बाप बेटे से ज़्यादा दोस्ती का रिश्ता पनप चुका होता है जिसमें एक दूसरे के प्रति मित्र की भाँति स्नेह और लगाव रहता है। इस स्थिति में ताने, उलाहने देने और शिकवे शिकायत करने जैसे हालात नहीं बनते। बस आपस में मिलजुल लिए, एक दूसरे की कुशल पूछी और फिर अपने अपने बसेरों पर जाने के लिए विदा हो गए। न मिलते और बिछड़ते समय रोना धोना और न ही मन में कोई मलाल रखना, बस मुस्कान लिए आए और मुस्कराहट बिखेरते चले गये।

भारतीय व्यवस्था

अब जहां तक हमारे देश की बात है, हम अभी विकासशील हैं मतलब विकसित होने की राह पर चल रहे हैं। हम संयुक्त परिवार व्यवस्था में पालन पोषण होने के लिए जाने जाते हैं। पारिवारिक परंपराओं को मानने और उन पर चलने को मज़बूर तक कर दिए जाने की बाध्यता रहती है। पुत्र पर तो इसकी ज़्यादा ही ज़िम्मेदारी रहती है। उसके किसी भी व्यवहार या कदम से जिसमें पिता की सहमति या आज्ञा न ली गई हो, पिता के लिए नाक कटने जैसा हो जाता है। पुत्र चाहे कितना भी संभलकर चले, पिता के लिए उसके किसी भी काम को नकारना बहुत सामान्य सी बात है। पुत्र पर पिता की पगड़ी उछालने, इज़्ज़त की बखिया उधेड़ने और सरे आम मुँह पर कालिख पोतने के आरोप लगना भारतीय परिवारों में आम बात है। पुत्र यही सोचता रहता है कि उसने आख़िर ऐसा किया ही क्या है जो पिता इतना बखेड़ा खड़ा कर रहे हैं। यहीं से दोनों के बीच अनबोलेपन अर्थात् बोलचाल बंद होने से लेकर एक दूसरे की सूरत तक न देखने की परंपरा शुरू हो जाती है। संयुक्त परिवार में यह स्थिति असहनीय हो जाती है और हरेक सदस्य पर इसका असर पड़ना स्वाभाविक है।

संबंध और तनाव

हमारे परिवारों में पिता को सबसे ज़्यादा चिढ़ या परेशानी अपने बेटे के दोस्तों से होती है। वो मान कर चलते हैं कि यही वे लोग हैं जिनकी संगत में बेटे का बिगड़ना तय है। इसी के साथ वे अपनी जानकारी में आए या जान पहचान वालों के बेटों की तुलना अपने बेटे और उसके मित्रों से करने लगते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि पुत्र अपना कोई दोस्त बना ही नहीं पाता। पिता द्वारा पुत्र को लेकर अक्सर ग़ैरज़रूरी टिप्पणी करना, उसकी सराहना के स्थान पर आलोचना और हरेक काम में मीनमेख निकालना तथा पुत्र को चाहे वह कितना भी बड़ा हो जाए, नादान, नासमझ मानकर कुछ भी करने से पहले उसकी हिम्मत तोड़ देने जैसा है। नतीज़ा यह होता है कि जाने अनजाने पुत्र धीरे धीरे हीनभावना का शिकार होने लगता है, उसमें अपने स्तर पर या बलबूते कुछ करने का साहस कमज़ोर पड़ता जाता है और वह एक तरह से जीवन भर पिता की उँगली थामे अर्थात् प्रत्येक निर्णय के लिए उन पर निर्भर रहने की आदत का ग़ुलाम बनने लगता है।

अब क्योंक भारत तेज़ी से बदल रहा है, इसलिए राष्ट्रीय पुत्र दिवस पर पिताओं को यह सोचना होगा कि वे अपने पुत्र को भारतीय परंपरा के अनुसार जीवन भर आश्रित रखना चाहते हैं या उसे वयस्क होते ही अपनी तथाकथित छत्रछाया से मुक्त कर अपने पैरों पर खड़े होकर अपनी मंज़िल तक उसके अपने फ़ैसलों से पहुँचने देना चाहते हैं।

पुत्र अकेले अपनी राह बना सकता है, उसके लिए पारिवारिक वैभव, धन दौलत पाने के लोभ को उससे जितना दूर रखा जाए उतना ही पुत्र और पिता दोनों के लिए बेहतर होगा। पिता के मन में पुत्र के लिए अपनी विरासत छोड़ने का भाव नहीं होगा तो फिर पुत्र के मन में उसे पाने का लोभ भी नहीं होगा। जब ऐसी सोच बन जाएगी तो फिर संतानों के बीच विवाद से लेकर संघर्ष भी नहीं होंगे। ऐसी घटनायें भी कम होंगी जिनमें भाई बहनों के बीच मुक़दमे चलें और वे एक दूसरे के लिए शुभ की बजाय अशुभ कामना करें।

पिता और पुत्र दोनों को स्वीकार करना ही होगा कि अब संयुक्त परिवार व्यवस्था का टूटना ही भविष्य है। एकल परिवार के रूप में निजी संबंधों की व्याख्या करनी होगी जिसमें अलग अलग रहते हुए भी मिलना जुलना होता रहे और बिखराव के स्थान पर अच्छा बुरा वक़्त आने पर आपस में जुड़ाव का अनुभव कर सकें। पिताओं को अपने पुत्र की तरफ़दारी से बचना होगा और पुत्र को अपने पिता या परिवार से कुछ मिलने की उम्मीद रखने से दूर रहना होगा।आपसी तनाव न होने देने के लिए न तो किसी चीज़ की अपेक्षा हो और न ही इसे लेकर एक दूसरे की उपेक्षा हो, यही राष्ट्रीय पुत्र दिवस का लक्ष्य होना चाहिए।

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