घर परिवार हो या दफ्तर, गली, मौहल्ले, कस्बे, शहर, महान
गर हों, अक्सर इस बात पर आपस में या खुलेआम यह चर्चा होती ही रहती है कि देश में, विशेषकर युवा वर्ग में नैतिकता का नामोनिशान मिटता जा रहा है। इसके लिए मातापिता, शिक्षक, अभिभावकों पर दोष मढ़ा जाता है कि वे अपनी संतान या विद्यार्थियों को नैतिक मूल्य नहीं सिखाते, आदर सम्मान करना नहीं बताते और इस बात की शिक्षा नहीं देते कि जीवन में आगे बढने के लिए परिश्रम, ईमानदारी और सद्भावना की ही जरूरत होती है। यह सीधा सीधा ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे‘ की कहावत पर चलना है। नसीहते देने में क्या जाता है; डांट फटकार भी दो तो छोटे हैं, उम्र में कम है तो युवा कुछ बोलेगें तो है नहीं और अगर उन्होंने पलटकर कुछ चुभता हुआ बोल दिया तो उन्हें उदण्ड, अनुशासनहीन, बदतमीज जैसी उपाधियों से तो नवाज़ा ही जा सकता है।
वास्तविकता यह है कि प्राचीन काल से आज तक न तो यह सत्य बदला है और न बदलेगा कि ‘यथा राजा तथा प्रथा‘, ‘जैसा बाप, वैसा बेटा‘ और ‘जैसी करनी, वैसी भरनी।‘
इस बात को स्पष्ट करने के लिए कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं, कुछेक ज्वलंत उदाहरण ही पर्याप्त हैं। यह सभ्य समाज तो इनकी सच्चाई जानता ही है लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट कोई टिप्पणी करे या फैसला करे तो उस पर संविधान और कानून का ठप्पा भी लग जाता है, लेकिन ‘परनाला वहीं बहेगा‘ की तर्ज पर चलते हुए हमारे माननीय, आदरणीय और सार्वजनिक पदों पर शोभायमान तथाकथित वीवीआईपी न्यायालय की अवमानना, न्याय की उपेक्षा और ताकत के नशे में चूर होने के कारण इन सबकी अवहेलना करने से कतई नहीं चूकते।
उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया है कि प्राकृतिक संसाधन, सार्वजनिक भूमि और वस्तुएं जैसे कि सरकारी बंगले, आवास जनता की सम्पत्तियां हैं। समानता का जो सिद्धांत है वह न्याय पर आधारित होता है इसलिए इन सब चीजों का वितरण या आवंटन उसी आधार पर होना चाहिए। एक बार मुख्यमंत्री, मंत्री, सांसद, विधायक से लेकर उच्च पदों पर बैठे सरकारी अधिकारी तक पदमुक्त होते ही सामान्य नागरिक बन जाते हैं, और उन्हें स्वंय ये सभी सुविधाएं लौटा देनी चाहिए वरना कानूनन इन सबको बेदखल कर दिया जाए। उन्हें सुरक्षा देने या दूसरे प्रोटोकोल जारी रखे जा सकते हैं लेकिन बंगले, आवास तथा उससे जुड़ी कोई भी सुविधा उन्हें नहीं मिलनी चाहिए।
काज़ल की कोठरी
अब अगर इन सब महानुभावों की सूची यहां दी जाए तो कुछ और लिखने को स्थान नहीं बचेगा, इसलिए इतना ही कहना काफी होगा कि इनमें सभी दलों, राज्यों और वर्तमान तथा भूतपूर्व सरकारों के वे सभी महारथी हैं जो अपने कार्यकाल में मिली सुविधा को जीवनभर के लिए हथियाने का कोई हथकंडा इस्तेमाल करने से पीछे नहीं रहते ।
दिल्ली के लुटियन्स इलाके से लेकर राज्यों की राजधानियों में कही भी नजर घुमाईये तो ऐसे आवास जो ज्यादातर खाली पड़े रहते है या उसका व्यवसायिक इस्तेमाल होता है और कुछ में तो मनोरंजन जिसे मौजमस्ती के अड्डे कहना ज्यादा उचित होगा, मिल जाएगें। इसके अतिरिक्त जंहा कोई रहता भी है तो वह न जाने कब का भूतपूर्व मंत्री, मुख्यमंत्री, सांसद या विधायक होता है या फिर उसका परिवार, नाते रिश्तेदार होगा जो न केवल वहां रहता है बल्कि उस जगह की देखभाल, मरम्मत, सुरक्षा आदि पर भी मुफ्त में सरकारी खर्चा कराने पर अपना हक समझता है।
यही नहीं, कुछ तो स्वंय को अमर करने के चक्कर में अपने कार्यकाल में पारिवारिक मूर्तियों का ज़खीरा खड़ा कर देते हैं, महापुरूषों के नाम पर स्मारक बनवा देते हैं और संग्रहालय स्थापित कर देते हैं। कुछ और नजर डालें तो सैंकड़ोंझारों एकड़ बेशकीमती भूमि महात्मा गांधी की बगल में और राष्ट्रपिता की भांति पूजनीय माने जाने की ललक में आवंटित कर दी जाती है। जहां केवल बापू की स्मृति होनी चाहिए वहां न जाने कितने घाट और स्थल अनन्त काल के लिए बन चुके हैं और मज़े की बात यह है कि वहां कोई आता जाता नहीं। इससे भी बड़ी बात यह है कि उसके बहाने अन्य राजनीतिक दल भी अपने अपने महापुरूषों के जहां चाहे वहां स्मारक बनाने के लिए जमीन कबजियाते रहते हैं।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा बार बार इस विषय में कार्रवाई करने का आदेश देने के बावजूद किसी के कान पर जूं तक नहीं रेंगती क्योंकि हमाम में सभी नंगे है और अनाधिकृत कब्जे के मामले में ‘हम सब एक हैं‘ की नीति पर चलते हैं।
गैर कानूनी
दिल्ली में इन दिनों अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई चल रही है। इसके तहत सरकारी भूमि यहां तक कि सड़कों और पटरियों तक पर लोगों ने कब्जा कर रखा है। झुग्गी बस्तियों में महल तामीर किये जाने के अनेकों उदाहरण हमारे सभी महानगरों में मिल जाएगें। कहना न होगा कि इन सब गैर कानूनी कब्जों, उन पर बेतरतीब बने कई मंजिला मकानों, दुकानों और वहां चल रही दुकानदारी और अनैकित गतिविधियों के कारण आसपास रहने वालों का जीवन नर्क बन रहा है।
सरकार के इस सही कदम का विरोध करने के लिए वे नेता और दल पूरी एकजुटता के साथ आन्दोलन से लेकर विद्रोह तक कर रहे हैं जो सत्ता में शुचिता, पवित्रता और ईमानदारी का राग अलापने के बाद सार्वजनिक जीवन मंे आए थे। अपने आप को अलग मानने वाले अब उनका साथ दे रहे है जो कानून का उल्लधंन करने के दोषी हैं।
इसी प्रकार शिक्षा से लेकर नौकरी ओर रोजगार से लेकर व्यवस्था करने तक ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस‘ का ऐसा दृश्य देखने को मिल रहा है जिसकी मिसाल पूरे विश्व में कदाचित ही मिले!
व्यापक प्रभाव
रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार और अनैतिक तथा गैरकाूननी काम जब कोई नेता या अधिकारी करता है तो उसका सीधा असर समाज और परिवार पर पड़ता है। जब किसी नेता या अधिकारी पर दस बीस बरस बाद कानून का शिंकजा कस जाता है और वह सज़ायाफ्ता हो जाता है तो उसे बदले की भावना, परिवार का उत्पीड़न और अन्याय की दुहाई देकर मारपीट, दंगाफसाद तक हो जाता है।
जरा सोचिए, जब सामान्य नागरिक यह सब होते देखता है तो वह रिश्वेतखोरी और भ्रष्टाचार को ही उन्नति का रास्ता मानते लगता है। वह सोचता है कि जब इनका कुछ न हुआ तो अगर मैंने थोड़ी सी बेईमानी, टैक्स की चोरी, नियमों की अनदेखी से लेकर मिलावटखोरी, कालाबाजारी कर ली तो मेरा भी क्या होगा? मैं भी काका हाथरथी की कविता की तरह ‘रिश्वत लेता पकड़ा जा तो रिश्वत देकर छूट जा‘ की तर्ज पर बेदाग बच जाउंगा।
अब मूल प्रश्न यह है कि जब परिवार और समाज यह अपने सामने घटते देखता है तो वह अपनी संतान और नागरिकों को भी इसी पथ पर चलने के लिए ही तो प्रेरित करेगा।
बच्चा यही नहीं समझ पाता कि जब कक्षा में शिक्षक ईमानदारी और नैतिकता का पाठ पढाते है और घर में पिताजी रिश्वत लेकर आते हैं तो दोनों में सही कौन है? ज़ाहिर है उस पर पिता का ही प्रभाव अधिक पडे़गा और यदि शिक्षक ने कुछ कहसुन भी दिया तो पहले तो स्वंय विद्यार्थी ही उसे धमकी देने, मारने पीटने से मामला सुलझा लेगा, नही ंतो अगले दिन पिता का रौब तो शिक्षक का मुंह बंद कर ही देगा।
इसके विपरीत जो लोग ईमानदारी, मेहनत और अपनी काबलियत को आगे बढ़ने का आधार बनाते हैं वे अक्सर दुख के सागर में गोते लगाते पाए जाते हैं।
यह जो परीक्षा में नकल करने, पर्चे लीक हो जाने और पैसा देकर डिग्री हासिल कर लेने की वारदातें होती है, उनका कारण ही नेताओं और राजनीतिक दलों की दबंगई है जो सीधे साधे आदमी को भी बेईमान बनना सिखा देती है।
पिछले दिनों एक परिचित चीन घूमकर आए। हालांकि चीन की आबादी हम से अधिक है और हम उसे आक्रमणकारी, विस्तारवादी और ंिहंसावादी कहते रहते हैं लेकिन चीन ने पिछले सात आठ दशक में जो दुनिया में अपना मुकाम बनाया है, उसकी प्रशंसा करने में वे यहां तक कह गये कि हम अगले पचास साल में भी चीन की बराबरी नहीं कर सकते। सच भी यही है कि हमारे नेता मुम्बई को शंघाई बनाने का सपना देख सकते हैं लेकिन कोई चीनी अपने किसी इलाके को भारतीय शहर जैसा बनाने की बात सोच भी नहीं सकता।
अंत में बस इतना ही कहना ठीक होगा।
‘नेता जी झूठ मत सिखाओ, तुम्हें भी जहां जाना है, वहां हाथी है न घोड़ा है, बस कंधों पर चढ़कर जाना है।‘
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें