राजनीति और सौदेबाजी
चुनाव से पहले और उसके बाद सरकार बनाने तक नेताओं का जो रूप दिखाई पड़ता है उससे जनता के मन में यह बात आना स्वाभाविक है कि यह हो क्या रहा है। जिस दल और उसके प्रत्याशी को यह सोचकर वोट दिया था कि वह उसके विरोधी की तुलना में बेहतर हैं,
वो सरकार बनाने के लिए एक हो गए। मतलब साफ है कि पहले से इनकी मिलीभगत थी और यह जो कुछ कह रहे थे वह जनता की आँखों में धूल झोंकना और उसे गुमराह कर अपना उल्लू सीधा करना है।
अभी कर्नाटक में जो दृश्य देखने को मिला जिसमें एक दूसरे की नीतियों के नितांत विरोधी सत्ता के लिए अपने सभी सिद्धांतो को ठुकराकर एक दूसरे के गले मिलते दिखाई दिए उससे वोटर के मन में यही बात तो घर करेगी कि उसका वोट लूट लिया गया और वह भी पाँच साल के लिए।
सही और गलत की पहचान ही बदल गयी। अब यह मिलकर उसके बारे में कतई नहीं सोचेंगे बल्कि केवल अपना स्वार्थ साधने के लिए ही सत्ता का इस्तेमाल करेंगे। चुनाव के समय एक दूसरे के सामने ताल ठोककर खड़ा होना क्या केवल इनकी नूरा कुश्ती थी जिसमें जिसमें दोनो प्रतिद्वंदी पहले ही तय करते लेते हैं कौन जीतेगा और जीतने के बाद वह किस अनुपात में जीती हुई रकम की आपस में बंदरबाँट कर लेंगे।
इस स्थिति में क्या यह माँग करना सही नहीं है। जनता के पास यह कानूनी अधिकार हो कि वह इनसे पूछ सके कि इन्होंने जो किया वह धोखाधड़ी है और हमें बिलकुल मंजूर नहीं है।
चुनाव से पहले आप मिल जाते तो हम अपना वोट देने का फैसला उसी के मुताबिक करते पर अब आप सत्ता के लिए मिल गए हैं तो यह वोटर के साथ फरेब है। किसी को भी बहुमत न मिलने पर राष्ट्रपति शासन या फिर दोबारा चुनाव हमें मंजूर है लेकिन अपने साथ छलावा होने देना स्वीकार नहीं है।
दल बदल कानून में संशोधन कर चुनाव के बाद की जाने वाली सौदेबाजी को रोकना ही होगा।
इसके लिए जब तक जनता के पास पूछने का अधिकार नहीं होगा तब तक इस तरह जोड़तोड़ कर सरकारें बनती रहेंगी और सामान्य जनता इसी तरह इन दलों और नेताओं की लूटखसोट का शिकार होती रहेगी।
अगले वर्ष होने वाले आम चुनाव से पहले ही यह व्यवस्था हो जानी चाहिए और इसके लिए देशव्यापी आंदोलन भी करना पड़े तो यह देश के भविष्य के लिए बेहतर होगा।
यह जो हमारे सामने भ्रष्टाचार अनैतिकता दबंगई के कारण देश जिस तरह रसातल की ओर जा रहा है उसमें केवल इस एक कदम से जबरदस्त ब्रेक लगने की संभावना है।
पूछने के अधिकार को और अधिक व्यापक बनाने के लिए जिन चीजों को शामिल किया जाना जरूरी है वह इस तरह से हों कि उनसे सामान्य नागरिक के मन में सरकार और उसकी नीतियों के प्रति विश्वास हो और वह तथ्यों के आधार पर उन की जाँच पड़ताल कर भरोसा कर सके। सरकारी आँकडेबाजी से उसे भ्रमित न किया जा सके इसका ठोस उपाय भी इसमें होना चाहिए।
जो मूलभूत चीजें इस अधिकार में शामिल हों वे इस तरह हो सकती है।
शिक्षा और रोजगार
दुर्भाग्य से गुलामी के दौर में एक अंग्रेज मैकाले ने जो शिक्षा प्रणाली देश को दी थी वह कमोवेश आज तक चालू है।
शिक्षा मंत्रियों से लेकर शिक्षा नीति बनाने और उस पर अमल करने के लिए जिम्मेदार अधिकारियों से यह पूछने का अधिकार जनता को हो कि उनकी बनाई नीति का परिणाम उनकी ही बनाई गयी कसौटी पर खरा उतर रहा है या नहीं।
यदि सही परिणाम न आ रहे हों तो उन्हें बदलने की माँग की जा सके। इससे होगा यह कि मंत्री हो या अधिकारी उसे जनता की अपेक्षाओं पर सही उतरने के लिए केवल लफ्फाजी नहीं कर्मठता से अपने कर्तव्य का पालन करने के लिए विवश होना पड़ेगा।
शिक्षा का अर्थ केवल अक्षर ज्ञान ही नहीं बल्कि उसका उद्देश्य आजीविका और रोजगार प्राप्त करने में सक्षम भी होना है।
शिक्षा संस्थानों के कर्ताधर्ता अर्थात संचालक से लेकर प्रिन्सिपल और अध्यापक तक से यह पूछने का कानूनी अधिकार हो कि उनके यहाँ से पढ़ाई समाप्त करने के बाद क्या शिक्षा के अनुसार नौकरी अथवा व्यवसाय करने की योग्यता से विद्यार्थी मालामाल हो चुका है ?
अभी जैसे कुछ संस्थानो में प्रवेश लेने के लिए माता पिता का इंटर्व्यू लेने का चलन शुरू हो गया है उसकी जगह माता पिता को यह पूछने का अधिकार हो कि क्या उनके शिक्षक वर्ग में विद्यार्थी को उसकी रुचि तथा क्षमता के अनुसार शिक्षित करने की योग्यता है और जितनी धनराशि वे ले रहे हैं उसका औचित्य सिद्ध कर सकते हैं।
अगर यह अधिकार जनता को मिल गया तो फर्जी संस्थानो की लुटिया तो डूबेगी ही साथ में जो संस्थान शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर समर्पित हैं उनकी पहचान करना आसान हो जाएगा।
इसी तरह यदि जनता के पास सरकार से यह पूछने का अधिकार हो कि देश में बेरोजगारी दूर करने और सब को उनकी क़ाबिलियत के मुताबिक काम मिलने की नीति का क्या नतीजा रहा तो सरकार के लिए आँकड़ों और लुभावनी बातों से जनता को बहकाए रखना सम्भव नहीं होगा।
भोजन और आवास से लेकर कृषि और उद्योग तक के बारे में बनाई गयी सरकारी नीतियों के बारे में प्रश्न पूछने का कानूनी अधिकार नागरिकों के पास होना चाहिए जिससे यह पता तो चल सके कि जो कुछ उसकी भलाई के नाम पर हो रहा है उसकी वास्तविकता क्या है।
पूछने का अधिकार मिलने से सही अर्थ में पारदर्शिता की परिभाषा तय हो जाएगी और लोक लुभावन नीतियों की पोल खुलना भी तय हो जाएगा। सरकार अपनी लोकप्रियता को लेकर चिंतित रहेगी। ‘भय बिन होए न प्रीत ‘के मुताबिक सरकारें निरंकुश न बन सकेंगी।
अधिकार की सीमा
पूछने के अधिकार की सीमा केवल प्रश्न करने और उसका जवाब मिल जाने तक ही सीमित नहीं होनी चाहिए जैसा कि सूचना के अधिकार के अंतर्गत होता है।
यह कवायद अगर कभी सम्भव हुई तो इसके उचित परिणाम तब ही निकाले जा सकेंगे जब सरकार द्वारा दिए गए उत्तरों की समीक्षा किए जाने की कानूनी व्यवस्था हो और इसके लिए समय सीमा निश्चित हो।
समीक्षा के बाद जनता को यह अवसर मिले कि वर्तमान सरकार यदि ठीक दिशा में अग्रसर है तब तो ठीक है और यदि उसमें कमी है तो निश्चित अवधि में उसे दूर करने की योजना बताए और कार्यवाही सुनिश्चित करे। यदि वह इसमें विफल रहती है तो सरकार को शासन करने के अधिकार से वंचित किया जा सके।
इसके लिए अगर फिर से चुनाव कराने का ही एकमात्र विकल्प बचता हो तो वह भी अपनाने की व्यवस्था पूछने के अधिकार में सम्मिलित हो।
यदि यह अधिकार जनता को मिल गया तो फिर न तो सरकार अपनी मनमानी कर पाएगी और न ही विपक्ष सत्ता हथियाने के लिए ओछे हथकंडे अपना सकेगा। नेताओं का झूट पकड़ा जा सकेगा और नेतागीरी करना तलवार की धार पर चलने के समान होगा।
राजनीति में एक नया दौर शुरू हो सकेगा जिसमें केवल योग्यता ही राजनीतिक सफलता का पैमाना होगा। अभी जो केवल परिवार या वंश या धन और बाहुबल का बोलबाला होना ही राजनीति में सफलता की निशानी समझा जाता है इस धारणा की समाप्ति हो सकेगी।
केवल नेता ही नहीं पूरी सरकार को ही वापिस भेजकर नयी सरकार को ला सकने का अधिकार जिस दिन जनता को मिल गया तो फिर देश का स्वर्णिम युग शुरू होने से कोई ताकत नहीं रोक पाएगी।
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