जिम्मेदारी किसकी
प्रति वर्ष इन दिनों दसवीं, बारहवीं की परीक्षाओं के देशव्यापी परिणाम आते हैं। उनके आते ही कहीं खुशी कहीं गम का माहौल बन जाता है। सफलता का आनन्द विद्यार्थियों, मातापिता और शिक्षकों द्वारा उठाया जाना स्वाभाविक है लेकिन इसी के साथ जब कहीं से मातम मनाने या सिसकियों की गूंज सुनाई देने और जीवन को समाप्त करने तक की घटनाएं पढ़ने-देखने में आती है तो सोचना जरूरी हो जाता है कि खराबी कहां हैं।
इन परीक्षाओं को उत्तीर्ण करने तक मातापिता की जिम्मेदारी होती है कि वे सोच समझकर बच्चों के लिए स्कूल, पाठ्यक्रम और शिक्षकों का अपनी समझ के मुताबिक चुनाव करें। इसके बाद उनकी भूमिका केवल इतनी रह जाती है कि वे बच्चों की इच्छापूर्ति में सहायता और सहयोग करें अर्थात् बच्चों के भविष्य को पूरी तरह अपने नियन्त्रण में रखने से दूर रहें। विद्यार्थी को इस आयु तक स्वंय अपना निर्णय लेने की कला सिखाने तक तो उनकी दखलन्दाजी ठीक है लेकिन इसके आगे की जिम्मेदारी न लेना ही बच्चों को सही निर्णय कर सकने की क्षमता का विकास करना सिखा सकता है।
एक उदाहरण है; मान लीजिए माता पिता, अभिभावक या शिक्षक ने विद्यार्थी पर दबाब डालकर या अपनी समझ के अनुसार सबसे बढ़िया शिक्षण संस्थान या पाठ्यक्रम लेने के लिए राजी कर लिया और बच्चे ने अच्छे परिणाम लाकर दिखाए तो वे कहेंगें ‘देखा हमने तुम्हारे लिए कितने अच्छे भविष्य का इंतजाम किया‘ और पूरा श्रेय स्वंय ले लेगें। इसके विपरीत यदि नतीजे अच्छे नहीं आए तो उनकी प्रतिक्रिया होगी कि यह तो बच्चे की जिम्मेदारी थी कि उसकी रूचि क्या करने में है और पूरा दोष बच्चे के सिर मढ़कर उसे दण्डित किया जाएगां।
इस स्थिति को और अधिक स्पष्ट करने के लिए उन आंकड़ों पर नजर डालना जरूरी हो जाता है जिसमें चपरासी, चौकीदार या क्लर्क की मुट्ठी भर नौकरियां पाने के लिए भारी भरकम डिग्रियां रखने वालों के आवेदन आते हैं। यह कहना केवल अपने कर्तव्य से मुंह मोड़ना होगा कि देश में बेरोजगारी बहुत है, रोजगार के अवसर कम हैं आदि आदि। इसका अर्थ यह है कि बच्चों को पढ़ाई की छूट तो मिली लेकिन वे क्या पढ़ें, इसकी जानकारी या सुविधा उन्हें नहीं मिली, इसलिए पुरानी लीक पर ही चलते हुए उनके सामने जो परोसा गया उसे उन्होंने बिना किसी विरोध के स्वीकार कर लिया। इसका परिणाम तो बेरोजगारी होना ही था जिसे हम अवसरों की कमी होने का बहाना बनाकर टालते रहते हैं। निष्कर्ष के तौर पर यह कहा जा सकता है कि यह जरूरी नहीं है कि कितना पढ़ रहे हैं बल्कि यह है कि क्या पढ़ रहे हैं?
सफलता क्या है?
हमारे देश में ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं जिनसे सिद्ध होता है कि सही वक्त पर लिये गये गलत निर्णय की कीमत समय, धन और परिश्रम की बर्बादी के रूप में जीवन भर चुकानी पड़ सकती है। जिस विषय की पढ़ाई लिखाई की, जो पाठ्यक्रम चुना या जिस संस्थान में दाखिला लिय, वह सब बेकार हो जाता है जब शिक्षा प्राप्त करने के बाद उसे जीवन की घुरी बनाने के बजाए कोई दूसरा प्रोफेशन, व्यवसाय या नौकरी करने में मन रमने लगता है। इसका मतलब यह हुआ कि सही वक्त पर गलत निर्णय लेना जिन्दगी पर भारी पड़ गया।
अब वह जमाना तो रहा नहीं कि कैरियर का दायरा बहुत ही सीमित हो बल्कि आज युवा शक्ति के पास विकल्पों की भरमार है, बस जरूरत है अपनी रूचि, सामर्थ्य तथा पारिवारिक परिस्थितियों के अनुसार सही चुनाव करने और वास्तविकता को स्वीकार करने की। इसमें अपने प्रति निर्मम भी होना पड़ सकता है। उदारता और समझौता करने की मानसिकता को त्यागना पड़ सकता है।
परीक्षा परिणामों के बाद यह कुछ ही दिनों की अवधि होती है जिसमें जीवन की मजबूत नींव रखी जा सकती है। यह ठीक वैसा ही हे जैसा कि एक किसान फसल कटाई के बाद तुरन्त एक सीमित अवधि में जमीन को इस लायक बनाने में जुट जाता है जिससे उसकी अगली पैदावार भरपूर हो। यदि बीज, रोपाई, सिंचाई उर्वरक और कीटनाशक का चयन करने में उससे भूल हो जाए तो उसकी आगामी फसल का चौपट होना निश्चित है। इसी प्रकार विद्यार्थी इस समय मौजमस्ती घूमने फिरने और जश्न मनाने में लग गया तो उसके भविष्य का महल केवल कल्पना और स्वप्न के सहारे खड़े होने के कारण ढहे बिना नहीं रह सकता।
अब हम इस बात पर आते हैं कि विकल्पों के महासागर में से वह अपने लिए मोती कैसे निकालकर लाने में सफल हो सकता है। इसके लिए उसे कुछ समय के लिए यह भूलना होगा कि उसने क्या पढ़ा लिखा है या उसके कितने नम्बर आए हैं। इसके स्थान पर उसे यह खोजना होगा कि वह जीवन में स्वंय को किस स्थान पर देखना चाहता है, उसकी रूचि क्या है, उसका मन क्या कहता है और उसकी अंतरात्मा किस पथ पर चलने का संकेत दे रही है। वह एकांत में स्वंय से ही संवाद कर अपने गुणों के आधार पर यह निर्णय कर सकने में सक्षम होने की पहली सीढ़ी पार कर सकता है कि आखिर वह जिन्दगी से क्या चाहता है और उसे पूरा करने का कौन सा रास्ता उसका इंतजार कर रहा है।
ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है जिनमें अनेक उपयोगी पाठ्यक्रमों और विशेष शिक्षा संस्थानों में उपलब्ध सीटें खाली पड़ी रहती हैं और कुछेक में इतनी भीड़ दिखाई देती है कि योग्यतम विद्यार्थी के लिए भी उसमें अपने पांव टिका सकना एक टेढ़ी खीर होता है।
आज संचार साधनों, इंटरनेट और मीडिया ने यह बहुत आसान कर दिया है कि विद्यार्थी अपने भविष्य के सपनों की चादर स्वंय बुन सके।
हकीकत यह है कि हमारे देश में ऐसे उद्योगों की संख्या बढ़ रही है जिनमें काम करने के लिए सही वर्कफोर्स नहीं मिल रही। ऐसे औद्योगिक तथा व्यावसायिक संस्थानों की कमी नहीं है जिन्होंने विदेशी और स्वदेशी टेक्नालॉजी से आधुनिक ईकाईयां स्थापित कीं लेकिन उन्हें चलाने के लिए मानव संसाधनों की कमी से निरन्तर जूझ रहे हैं।
निर्णायक पल यही है
दसवीं और बारहवीं की परीक्षाएं पास करने वाले विद्यार्थियों को अपनी आगे की पढ़ाई के बारे में निर्णय करने से पहले कुछ मूलभूत जानकारी हासिल करना जरूरी है और उस पर अमल करने से पहले स्वंय निर्धारित प्रक्रिया की कसौटी पर उस ज्ञान को कसना आवश्यक है। इसके बाद वे अपनी रूचि और योग्यता का आंकलन करने में सफल हो पाएगें। कुछ समय के लिए भूल जाएं कि उनके कितने मार्क्स आए हैं केवल इस बात को छोड़कर कि कौन सा विषय उनका पसन्दीदा रहा है और उसमें उनके सबसे अधिक अंक प्राप्त करने की क्लास दर क्लास परंपरा किस विषय में रही है। अपने उस विषय को सामने रखकर वे यह फैसला कर सकते हैं कि कौन सा उद्योग, व्यवसाय या कार्यक्षेत्र उन्हें जीवन की बुलन्दियां हासिल करने में मददगार हो सकता है।
इसमें होगा यह कि उनके कैरियर का रास्ता स्पष्ट होता जाएगा और वे उस पर चलने के लिए स्वंय को आसानी से तैयार कर सकेगें। ऐसा न करना बहाव के साथ बह जाने या अंधेरे में लाठी चलाने या फिर जो सामने आया उसे ही उठा लेने की तरह होगा जिसका परिणाम साधारण तो बेशक निकल सकता है लेकिन विशेष नहीं और आज का दौर विशेषज्ञता का है जिसमें भीड़ का हिस्सा बनना मूर्खता है। स्वंय की शक्ति को जांचने, परखने और अपनी क्षमता तथा काबलियत से अपने पैरों पर खड़ा होने के मुहावरे को जीवन में आत्मसात करने का यही अवसर है।
यहां यह भी जरूरी है कि मातापिता, अभिभावक, शिक्षक बच्चों अथवा विद्यार्थियों से जबरदस्ती अपनी बात मनवाने का हठ छोड दें।
उन्हें खुले आसमान में विहार करने का अवसर देने की पहल करें। उनकी भूमिका केवल बच्चों को व्यस्क अवस्था तक पहुंचने तक देखरेख करने की होती है, उसके बाद उनके जीवन के कार्यकलापों से अपनी बागडोर हटा लेना या लगाम खींच लेना ही बेहतर है। कदाचित् यही कारण है कि बहुत से देशों और सामाजिक व्यवस्थाओं में युवाओं को अपनी नाव स्वंय खेने का अधिकार दे दिया जाता है। हमारे देश में भी यह परंपरा शुरू होने पर हम युवाओं से अपने सपनों का भारत गढ़ने की आशा रख सकते हैं।
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