शनिवार, 21 जुलाई 2018

मंत्री जी की गलत नीति से हानि हो तो उन्हें सजा भी हो










जवाबदेही

हमारे देश में कामकाजी वर्ग दो भागों में बँटा है। पहले वर्ग में वे सभी आते है जो अपनी
योग्यता के अनुसार सरकारी और गैर सरकारी कार्यालयों में काम करते हैं और वेतन भत्ते
तथा अन्य सुविधाएँ पाते हैं। इस वर्ग में व्यापारी, कल कारखाने, उद्योग चलाने वाले हैं जो
अपनी काबलियत से अपना कामकाज करते और उससे कमाई कर अपना जीवनयापन करते
हैं। 

अगर व्यवसाय में नुकसान हो तो उसकी भरपाई भी उन्हें करनी होती है और कई बार तो
व्यापार चौपट होने पर सड़क पर जाते हैं ठीक उसी प्रकार जैसे कोई कर्मचारी गलती
करने पर नौकरी से बर्खास्त कर दिया जाता है या दंड का भागी बनता है।

इस वर्ग में किसान भी आते हैं जिन्हें मौसम की मार झेलनी पड़ती है और बाजार यानि मंडी
के हवाले रहते हैं। उपज ज््यादा की तो सस्ते दाम पर बेचने को मजबूर और कम हुई तो जो
भी दाम मिले वही मंजूर। समर्थन अर्थात न्यूनतम मूल्य की केवल घोषणा होती है लेकिन उस
पर खरीद की पक्की व्यवस्था होने से बेचारा बन जाता है और जो भी दाम मिले उस पर
फसल बेच देता है।

यह पूरा वर्ग ऐसा है जो नियमों और कानूनों के जाल में बुरी तरह जकड़ा रहता है। जरा सी
हो या ज््यादा हो कोई भी भूलचूक होने या नियम कानून की अनजाने में या गलती से
उल्लंघन करने पर उसे सजा मिलनी तय है।

यह वह वर्ग है जो देश को तरक्की के रास्ते पर ले जाता है और अर्थव्यवस्था के उतार चढ़ाव
के लिए जिम्मेदार हो जाता है। कहने का मतलब यह कि यह देश की धुरी है और विडम्बना
यह है कि चाहे किसी दूसरे की गलती हो लेकिन खामियाजा इसी वर्ग को भुगतना पड़ता है।
अब हम दूसरे कामकाजी वर्ग पर आते हैं। इस वर्ग में सांसद विधायक मंत्री प्रधानमंत्री तथा
अन्य पदों पर आसीन व्यक्ति आते हैं जिनमें न्यायाधीश मुख्य न्यायाधीश राज्यपाल से लेकर
राष्ट्रपति तक आते हैं।

इस वर्ग को भी वेतन भत्ते और अन्य सुविधाएँ उसी प्रकार मिलती हैं जैसे कि पहले वर्ग को
मिलती हैं। हालाँकि इन पदों के लिए किसी योग्यता की नहीं बल्कि केवल जन प्रतिनिधि होने
अर्थात नेतागीरी की काबलियत होना ही पर्याप्त है और न्यायाधीशों के लिए स्वयं को संविधान
के प्रति समर्पित होकर न्याय व्यवस्था बनाए रखने की योग्यता अनिवार्य है।

अब हम बात करते हैं कि आखिर किस आधार पर पहले वर्ग को तो दंडित करने की
स्वाभाविक कानूनी प्रक्रिया अपना ली जाती है और दूसरे वर्ग की गलती से चाहे कितनी बड़ी
आर्थिक हानि हो जाए उसके लिए कोई नियम कानून नहीं है।

एक छोटा सा उदाहरण है। दिल्ली में बहुचर्चित बी आर टी कारिडोर तत्कालीन मुख्यमंत्री
शीला दीक्षित द्वारा हरी झंडी मिलने पर बनवाया गया और उस पर लगभग सौ करोड रुपए
की लागत लगी और कुछ ही दिनों में स्पष्ट हो गया कि इससे सुविधा होने की बजाय
नागरिकों के लिए यह परेशानी का सबब बन गया। 

बजह भी सामने गयी कि किसी दूसरे देश की नकल पर इसे अपने यहाँ के हालात को नजरंदाज कर केवल शीला जी के हुक्म पर निर्मित किया गया। उनकी सरकार गिर गयी और नयी सरकार ने इसे उखाड़ने का निर्णय
लिया और फिर से भारी रकम खर्च कर इसे नेस्तनाबूद कर दिया गया।


अब शीला जी की तो तरक्की हो जाती है। वे राज्यपाल बन जाती हैं और केजरीवाल सरकार
उनकी गलतियाँ गिनाने से अधिक कुछ नहीं करती। अब इस चक्कर में जनता की कमाई जो
सरकार को टैक्स से मिली थी वह तो पानी में डूब गयी और उसके लिए यह कहावत
चरितार्थ हो गयी कि खाया पिया कुछ नहीं और जुर्माना दिया बारह आना।






कानूनी भेदभाव

हमारे देश में पहले वर्ग को सजा देने के लिए ढेरों कानून हैं लेकिन दूसरे वर्ग की भारी से
भारी गलती की सजा देने के लिए कोई नियम ़ानून नहीं है। केवल इतना कहने भर से
बात नहीं बनती कि जनता उन्हें अगले चुनाव में हरा कर सजा दे सकती है।
चलिए कुछ और उदाहरणो से बात समझते हैं कि एक वर्ग को गलती की सजा और दूसरे
को पुरस्कार किस तरह मिलता है।

उत्तर प्रदेश में काफी समय तक मायावती और मुलायम सिंह सरकारों के बीच यह रस्सा कसी
चलती रहती थी कि एक के कार्यकाल में शुरू की गयी योजनाओं को दूसरी सरकार आने पर
ंद कर दिया जाता था और वह तब ही चाल होती थीं जब उसकी सरकार जाती जिसन
उन्हें शुरू किया था। सड़क हो या पुल सब कुछ के निर्माण पर विराम लग जाता था और
नयी जगह पर खुदाई शुरू हो जाती थी। नतीजा यह कि पब्लिक परेशान और अधिकारी
हैरान कि क्या करें मगर सरकार के मुख्यमंत्री और मंत्री प्रसन्न कि देख लिया हमें वोट देन
या देने का परिणाम।

हम राजनीतिक उठापटक की बात नहीं कर रहे बल्कि कानून के न्यायसंगत होने की ओर
ध्यान दिलाना चाहते हैं कि क्या वह दो पक्षों के बीच भेदभाव नहीं कर रहा ?
अभी इन दिनों मुंबई में भारी वर्षा सड़को में भयानक गड्ढे बन जाने से बहुत लोग अकाल
मृत्यु का ग्रास बन गए। इसके लिए एक जागरूक नागरिक ने अदालत में याचिका डाली है

कि इसके लिए सम्बंधित विभागों के साथ साथ मंत्री और मुख्यमंत्री पर भी कार्यवाही हो। यह
अच्छा कदम है लेकिन हमारा कानून तो यह कहता है कि संय्या भए कोतवाल तो डर काहे
का। किसी अधिकारी यानि पहले वर्ग पर तो कार्यवाही हो भी सकती है लेकिन मंत्री जी को
कुछ हो जाय इसकी तनिक भी सम्भावना नहीं है क्योंकि उन्हें कोई सजा दी जा सके ऐसा
कोई कानून ही नहीं है।

बरसों बरस लटकती योजनाएँ

यह देखकर आश्चर्य दुःख और निराशा होती है और देश की कार्य प्रणाली पर आँसू बहाने को
मन करता है जब यह हकीकत सामने आती है कि सन १९४९ में योजना बनती है, १९७३ में
जाकर शुरू होती है और १९९५ में पूरी होती है।

सन २००८ में शुरू होकर ढाई साल में पूरा हो जाने वाला एक्सप्रेस हाइवे कब बन कर
तय्यार होगा किसी को पता नहीं।

रेल, सड़क, परिवहन, नदी, समुद्र से लेकर शिक्षा और परिवार नियोजन तक की हजारों
योजनाएँ जो समय पर पूरी नहीं हुई उसकी वजह से डेढ़ सौ अरब रुपयों का अतिरिक्त बोझ
जनता पर पड़ गया और इसके लिए कोई जिम्मेदार नहीं। वर्तमान सरकार पिछली सरकार
को जिम्मेदार ठहराकर मुक्ति पा जाती है और पिछली सरकार अपना पल्ला झाड़ते हुए वर्तमान
सरकार की बखिया उधेड़ने में लग जाती है।

असली कारण

वास्तविकता यह कि कोई भी सरकार जब अपना कार्यकाल शुरू करती है तो जनता को
लुभाने या कहें कि गुमराह करने से लेकर मूर्ख बनाने के लिए बिना किसी रीसर्च और
समन्वय के ऐसी योजनाओं की घोषणा कर देती है जो कभी पूरी नहीं हो सकतीं और उनकी
दशा आसमान के तारे तोड़ लाने जैसी हो जाती है।

हमारे देश में पब्लिक प्राइवेट पार्टिसिपेशन, मेक इन इंडिया, स्किल डिवेलप्मेंट से लेकर
सांसदों द्वारा गाँव गोद लेने और मॉडल शहर बनाने से लेकर देश का यूरोप अमरीका और
चीन तक की तर्ज पर विकास करने का सपना दशकों से दिखाया जाता रहा है। यह पूरा
हो सकता है और होगा अगर वर्तमान कार्य प्रणाली में आमूल चूल परिवर्तन किया गया।

प्रधानमंत्री से अपील

कृपया इस बारे में कोई सार्थक कानून बनाने की पहल कीजिए जिससे उन मंत्रियों को भी
सजा मिल सके जिनकी गलत नीतियों के कारण योजनाएँ समय पर पूरी नहीं होतीं। यही
नहीं यदि बिना पर्याप्त इंतजाम किए कोई योजना मंत्री जी आरम्भ करते हैं और वह अटक
जाती है तो उसे उनका अपराध माना जाए। 

अपने दलगत हितों से ऊपर उठकर ऐसी व्यवस्था की पहल कीजिए जिससे जनता को विश्वास
हो कि उसकी मेहनत की कमाई जो टैक्स के रूप में सरकार को मिलती है उसका दुरुपयोग नहीं बल्कि सदुपयोग हो रहा है।

अभी तक यह होता आया है कि यदि किसी मंत्री की पर्फोर्मन्स अच्छी नहीं है तो उसका
विभाग बदल दिया जाता है या मंत्री पद से हटा दिया जाता है। इससे वह व्यक्ति अपने
निक्कमेपन के कारण लिए गए गलत निरनयों से साफ बच जाता है और उस पर कोई
कार्यवाही नहि होती। 

कानून बनेगा तो वह सोच समझकर और विशेषज्ञों से सलाह मशविरा कर नीतियाँ बनाएगा 
जो वास्तव में जनहित में होंगी और समय पर पूरी भी होंगी। 

हम जिन विकसित देशों के बराबर बनना चाहते हैं वहाँ तय समय सीमा में योजनाएँ पूरी होती हैं तब
ही वे अनुकरणीय बने हैं। यदि आपको यह अंदेशा हो कि सजा का प्रावधान होने से मंत्री जी
नीतियाँ ही नहीं बनाएँग और केवल सरकारी सुविधाओं का उपयोग करेंगे तो इसके लिए
प्रधानमंत्री कार्यालय की निगरानी और आपका डंडा ही काफी है जो उन्हें काम करने की याद
निरंतर दिलाता रहेगा।


यह होने पर ही आप की छवि में चार चाँद लग सकते हैं क्योंकि जनता के पास अभी तक ता
एकमात्र विकल्प केवल पाँच वर्ष में आने वाला चुनाव ही है। ऐसा कीजिए कि इस विकल्प को
आजमाने से पहले ही उसे राहत मिल जाए। यह तब ही हो सकता है जब सभी के लिए
समान कानून हो चाहे वह संतरी हो या मंत्री।

आज हमारे बीच कवि सम्राट गोपाल दास नीरज नहीं हैं लेकिन उनकी यह कविता वर्तमान
हालात में कितनी सटीक है।


कारवाँ गुजर गया, गुबार देखते रहे।

कारवाँ गुजर गया
स्वप्न झरे फूल से,
मीत चुभे शूल से,

लुट गए सिंगार सभी बाग के बबूल से,
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे।
कारवाँ गुजर गया, गुबार देखते रहे!

नींद भी खुली थी कि हाय धूप ढल गई,
पाँव जब तलक उठें कि जिन्दगी फिसल गई,
पात-पात झर गए कि शाख-शाख जल गई,
चाह तो निकल सकी , पर उमर निकल गई,
गीत अश्क बन गए,

छंद हो दफन गए,
साथ के सभी दिए धुआँ-धुआँ पहन गए,
और हम झुके-झुके,

मोड़ पर रुके-रुके,
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे।
कारवाँ गुजर गया, गुबार देखते रहे।

क्या शाबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा,
क्या सुरूप था कि देख आइना सिहर उठा,

इस तरफ जमीन और आसमाँ उधर उठा
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नजर उठा,

एक दिन मगर यहाँ,
ऐसी कुछ हवा चली,

लुट गई कली-कली कि घुट गई गली-गली,
और हम लुटे-लुटे,
वक्त से पिटे-पिटे,

साँस की शराब का खुमार देखते रहे।
कारवाँ गुजर गया, गुबार देखते रहे।
हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ,

होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ,
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ,
और साँस यों कि स्वर्ग भूमि पर उतार दूँ,
हो सका कुछ मगर,
शाम बन गई सहर,


वह उठी लहर कि दह गए किले बिखर-बिखर,
और हम डरे-डरे,
नीर नयन में भरे,

ओढ़कर कफन, पड़े मजार देखते रहे।
कारवाँ गुजर गया, गुबार देखते रहे!
माँग भर चली कि एक, जब नई-नई किरन,

ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमुक उठे चरन-चरन,
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन,
गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन-नयन,

पर तभी जहर भरी,
गाज एक वह गिरी,
पोंछ गया सिंदूर तार-तार हुईं चूनरी,
और हम अजान-से,
दूर के मकान से,

पालकी लिए हुए कहार देखते रहे।
कारवाँ गुजर गया, गुबार देखते रहे।

(भारत)

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