केवल राजनीति होती है
यह
एक हकीकत
है जिसे
जानते समझते
सब हैं
लेकिन अपने
स्वार्थ और
राजनीतिक उद्देश्यों
की पूर्ति
करने के
लिए हमारे
राजनेता और
नीति निर्धारक
तथा नौकरशाह
नासमझ होने
का भ्रम
फैलाते रहते
हैं।
शिक्षा
यानि पढ़
लिख कर
किसी रोजगार
के काबिल
बनना अर्थात
बेरोजगार केवल
वही व्यक्ति
नहीं रहेगा
जिसने ढंग
से और
ढंग की
पढ़ाई लिखाई
की हो
बाकी सब
बस किसी
न किसी
तरह जिंदगी
की गाड़ी
ढोने वाले
होंगे। जब
से आजादी
मिली है
तब से
बराबर हमारे
देश और
देशवासी इसी
असलियत से
रूबरू होते
रहे हैं।
विडम्बना
यह है
कि हमारे
नेता और
अधिकारी यह
समझाने में
कामयाब हो
जाते हैं
कि वे
बेरोजगारी दूर
करने के
लिए निरंतर
प्रयास कर
रहे हैं
और इसी
कड़ी में
वे पकोड़े
बेचने जैसे
हास्यास्पद बयान
भी देते
रहते हैं।
जनता
उनकी वास्तविकता
इसलिए नहीं
समझ पाती
क्योंकि वह
दो वक्त
की रोटी
का जुगाड़
करने में
ही सुबह
से शाम
तक कोशिश
करने के
बावजूद अभाव
की चक्की
में पिसती
रहती है।
मिसाल
के तौर
पर राहुल
गांधी जब
संसद में
अविश्वास प्रस्ताव
की पैरवी
करते हुए
प्रधानमंत्री नरेंद्र
मोदी से
सवाल पूछते
हैं कि
हर साल
दो करोड़
लोगों को
रोजगार देने
का वायदा
अभी तक
पूरा नहीं
किया गया
तो सुनने
वालों को
उनकी बात
सही लगती
है।
इस
बात को
कतई भूल
जाते हैं
कि रोजगार
तो तब
मिलेगा जब
उसके लिए
देश में
आधारभूत सुविधाएँ
होंगी, शिक्षा
का व्यापक
प्रसार होगा
और लोग
इतने पढ़
लिख जाएँगे
कि किसी
रोजगार या
नौकरी के
योग्य बन
सकें।
अब
यह सुविधाएँ
यानि इंफ्रास्ट्रक्चर
का निर्माण
कोई दो
चार वर्ष
में तो
हो नहीं
जाता और
उसके लिए
तीन चार
दशक चाहिए
और यह
समय वर्तमान
सरकार के
पास नहीं
बल्कि सबसे
अधिक वर्षों
तक देश
पर शासन
करने वाली
सरकारों के
पास था
जिनकी सिरमौर
सबसे अधिक
कांग्रेस पार्टी
और उसके
नेता रहे
हैं।
इसका
मतलब यह
हुआ कि
आजादी के
बाद देश
का नेतृत्व
करने वालों
की शिक्षा
नीति ऐसी
नहीं थी
कि उससे
रोजगार मिलना
आसान हो
जाए और
देश बेरोजगारी
की विभीषिका
से मुक्त
हो जाए।
जहाँ
तक वर्तमान
सरकार की
शिक्षा नीतियों
का प्रश्न
है तो
वह भी
पुराने ढर्रे
पर ही
चल रही
हैं और
उनमें कोई
नयापन या
अनूठापन नहीं
है।
इसका
सबसे बड़ा
दोष यह
रहा कि
शिक्षा को
कभी गंभीरता
से ही
नहीं लिया
गया। उसमें
जो वक्त
बदलने के
साथ आधुनिक
नज़रिये का
समावेश होना
चाहिए था
वह जरूरत
के मुताबिक
नहीं हुआ।
ज्यादातर
लीपापोती ही
होती रही।
इसका सबसे
बड़ा उदाहरण
शिक्षा बजट
में कटौती
और ज्यादातर
ऐसे लोगों
को शिक्षा
मंत्री बनाया
जाना था
जो राजनीति
के तो
माहिर खिलाड़ी
हो सकते
थे लेकिन
शिक्षा के
मामले में
नाकाबिल थे
और इसीलिए
अपने अपने
कार्यकाल में
कोई ऐसी
नीति न
बना सके
जिससे शिक्षा
की
बदौलत आसानी
से रोजगार
मिल सके।
दुधारी शिक्षा
हुआ
यह कि
शुरू से
जो शिक्षा
नीति अपनाई
गई उसने
पूरे समाज
को दो
भागों में
बाँट दिया।
एक गरीब
के लिए
और दूसरी
साधन सम्पन्न
और समाज
में अपनी
हैसियत के
बल पर
सब कुछ
पाने की
क्षमता रखने
वाले तथा
अमीर लोग।
गरीब
के लिए
सुविधाहीन और
शिक्षक विहीन
सरकारी या
दान दक्षिणा
और दूसरे
वर्ग की
कृपा पर
चलने वाले
तथाकथित शिक्षा
संस्थान जहाँ
आधी अधूरी
पढ़ाई लिखाई
कर कोई
छोटा मोटा
रोजगार या
किसी दफ्तर
में मामूली
नौकरी तो
जैसे तैसे
मिल सकती
है पर
उससे कोई
भविष्य का
सपना पूरा
हो सकता
हो यह
नामुमकिन है।
दूसरे
वर्ग के
हिस्से में
देश के
अधिकांश संसाधन
आ गए
और उसे
सब प्रकार
की सहूलियतें
दी गयीं।
मजे की
बात यह
कि यह
वर्ग देश
की सुविधाओं
का भरपूर
उपयोग करने
के बाद
अमरीका और
यूरोप तथा
अन्य विकसित
देशों में
अपनी प्रतिभा
का इस्तेमाल
कर धन
दौलत जमा
करने लगा
जिसे ब्रेन
ड्रेन कहा
गया।
यही
स्थिति आज
भी बरकरार
है जिसकी
बदौलत ऐसी
नौकरियों के
लिए उपयुक्त
उम्मीदवार ही
नहीं मिलते
जिनमे विशेषज्ञता
चाहिए।
परीक्षा
प्रणाली का
हाल यह
की जो
परीक्षक विद्यार्थियों
की परीक्षा
लेते हैं
और उनके
उत्तरों की
जाँच कर
अंक देते
है वह
ऐसे हैं
कि छात्र
यदि परिणाम
से असंतुष्ट
है और
दोबारा जाँच
करा लेता
है तो
उसके अंक
कुछ और
ही आते
हैं।
यह
हाल ही
में सीबीएसई
में देखा
गया जहाँ
आधे से
अधिक छात्र
परीक्षकों की
अयोग्यता का
शिकार हुए
और प्रथम
स्थान पर
घोषित छात्र
की जगह
दूसरे छात्र
को उस
स्थान के
योग्य पाया
गया।
जहाँ
तक पढ़ने
लिखने की
पुस्तकों और
परीक्षा के
तरीकों की
बात है
तो वह
सरकारी स्कूल
तो गुजरे
जमाने की
किताबों और
सिलेबस पढ़ा
रहे हैं
और जो
अमीरों तथा
ओहदेदारों की
संतान हैं
उनके लिए
आधुनिक पाठ्यक्रम
और विदेशों
में पढ़ने
की सुविधा
है।
आज
आप किसी
गाँव देहात
या छोटे
शहर और
बड़े शहरों
की शानदार
बस्तियों में
शिक्षा सुविधाओं
पर नजर
डालेंगे तो
तुरंत आभास
हो जाएगा
कि यह
एक ऐसी
दुधारी शिक्षा
प्रणाली है
जो योग्य
की प्रतिभा
का मूल्यांकन
करने की
बजाय उसे
अपनी धार
से समाप्त
करने का
काम करती
है और
दूसरी उसके
हिस्से की
सुविधाओं को
काट कर
दूसरे वर्ग
के हवाले
कर देती
है। यह
जनता के
धन का
विशेष वर्ग
के लिए
उपयोग और
जनता के
हाथ में
बाबा जी
का ठुल्लू
थमाना नहीं
तो और
क्या है।
एक
और हकीकत
यह है
कि पिछली
और वर्तमान
सरकारों ने
कभी बढ़ती
आबादी को
ध्यान में
रखकर स्कूल,
कॉलेज और
विश्वविद्यालयों की
स्थापना नही
की जिसके
कारण अच्छे
शिक्षा संस्थानों
में बेतहाशा
भीड़ देखने
को मिलती
है जिनमे
दाखिला मिल
जाना हिमालय
की चोटी
पर पहुँचने
जैसा है।
अब
एक और
अव्यवस्था है
और वह
यह कि
सरकार ने
गाँव और
छोटे नगरों
में जरूरत
के मुताबिक
शिक्षा संस्थान
तो खोले
नहीं बल्कि
ज्यादातर बड़े
शहरों में
ही खोले
हैं।
इनमें
स्थानीय छात्र
अक्सर बाजी
मार लेते
है और
जो थोड़ी
बहुत संख्या
में बाहर
से पढ़ने
के लिए
विद्यार्थी आ
भी जाते
हैं तो
उनके लिए
इन शहरों
में रहने
के लिए
हॉस्टल जैसी
सुविधाओं का
नितांत अभाव
है। उनके
लिए एक
ही चारा
बचता है
कि शहरों
में जहाँ
तहां असुविधाओं
से भरपूर
पीजी में
भारी किराए
पर रहने
की मजबूरी
है।
छोटे
छोटे कमरों
में चार
पाँच से
लेकर दस
बारह तक
लड़के और
लड़कियों को
जैसे तैसे
ठूंस दिया
जाता है।
क्या
सरकार का
यह कर्तव्य
नहीं कि
बाहर से
पढ़ने आए
विद्यार्थियों के
लिए उचित
मात्रा में
हॉस्टल खोल
कर और
मामूली शुल्क
पर उनमें
उन्हें स्थान
देकर रहने
और खाने
पीने का
इंतजाम करे।
अगर यकीन
न हो
तो शहरों
में इन
दड़बों में
हो आइए
जहाँ आप
अपने बच्चों
को रखना
तो दूर
वहाँ भेजने
के लिए
भी सौ
बार सोचेंगे।
रोजगार मिले तो कैसे
जब
ठीक से
शिक्षा ही
नहीं मिली
तो फिर
कहाँ से
कोई अच्छा
रोजगार मिलेगा।
इस
सब पर
नए सिरे
से सोचने
और नीति
बनाने की
आवश्यकता है
वरना बेरोजगारी
के आँकड़े
निरंतर बढ़ते
रहेंगे और
शिक्षा की
कीमत बराबर
घटती रहेगी।
हमारे
यहां जहां
योग्य शिक्षकों
का अभाव
है वहां
यह भी
सत्य है
कि नए
शिक्षक भी
नहीं आ
रहे हैं
क्योंकि अध्यापक
का सम्मान
निरंतर कम
होता जा
रहा है
और महंगे
कोचिंग संस्थान
अधिक पनप
रहे हैं
जहां ठेके
पर शिक्षक
आते हैं
और भारी
फीस मिलने
पर ही
पढ़ाते हैं।
बेरोजगारी
को दूर
करना है
तो उसे
शिक्षा को
रोजगार दे
सकने के
काबिल बनाना
होगा वरना
दिन प्रतिदिन
बेरोजगारी बढ़ती
जाएगी। इसका
एक कारण
यह भी
है कि
देश में
परिवार को
सीमित रखने
और आबादी
को तेजी
से न
बढ़ने देने
की दिशा
में कोई
कार्यक्रम नहीं
है।
इसे
देश का
दुर्भाग्य ही
कहेंगे कि
सवा सौ
करोड़ से
ज्यादा आबादी
वाले देश
में जहां
लाखों की
संख्या में
कालेज और
कुछ हज़ार
विश्वविद्यालय और
कई हज़ार
हायर और
प्रोफेशनल एजुकेशन
देने के
लिए होने
चाहिए वहां
इनकी संख्या
आबादी के
हिसाब से
ऊँट के
मुंह में
जीरा होने
के समान
है।
यह
हालत बदलनी
चाहिए वरना
हम विकसित
देशों की
तरफ ताकते
रहेंगे और
पिछड़े देश
की भूमिका
ही निभाते
रहेगें।
जरा
सोचिए कि
क्या देश
की जनसंख्या
के हिसाब
से शिक्षा
पर आधारित
रोजगार की
नीति या
योजना है।
उत्तर एक
बड़े नहीं
के रूप
में हमारा
मुँह चिढ़ाता
नजर आएगा।
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