कुदरत का कानून
सृष्टि निर्माण के समय ईश्वर या अलौकिक शक्ति ने जड़ और चेतन के विभिन्न स्वरूप प्रदान किए। जीवंत और निर्जीव का एक दूसरे के साथ तालमेल बना रहे इसकी भी व्यवस्था थी।
जीवन की परिभाषा में मनुष्य और पशु पक्षियों, कीट पतंगो के साथ साथ पेड़ पौधों को भी रखा गया। ये भी बीज, अंकुर, पौधे, वृक्ष के आकार में उसी प्रकार जन्म और मृत्यु से बँधे हैं जिस प्रकार अन्य जीवित प्राणी हैं और
कुदरत के कानून के अनुसार अन्य चराचर जीवों की भाँति एक दूसरे के साथ सहयोग और समन्वय बनाए रखते हैं।
अंतर केवल इतना है कि यह एक ही स्थान पर अंकुरित, पुष्पित और पल्लवित होते हैं जबकि अन्य जीव अपनी प्रकृति के अनुसार आवागमन कर सकते हैं। ये एक दूसरे के पूरक भी हैं। एक फल फूल से लेकर छाया और प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षा प्रदान करता है तो दूसरा उनकी सेवा सुश्रुषा करता है। यदि दोनों एक दूसरे के विनाश का कारण बनते हैं तो यह सीधे सीधे कुदरत के कानून का उल्लंघन है और उसके भयावह परिणामों के रूप में दण्ड मिलना स्वाभाविक है।
गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने अपने तपोवन शीर्षक से लिखित निबंध में सभ्यता और प्रजातांत्रिक नियमों का आधार वनों से विकसित बताते हुए लिखा है कि यदि हम प्रकृति के साथ तालमेल बिठाते हुए रहेंगे तो ठीक रहेगा वरना सर्वनाश निश्चित है।
वन विकास और आंदोलन
जब कुछ स्वार्थी तत्वों ने सरकार और प्रशासन के सहयोग से पेड़ पौधों और अन्य वन संपदा को काटना, नष्ट करना और अंधाधुँध तथा बिना सोचे समझे उनका अनावश्यक दोहन शुरू कर दिया तो चिपको और आपिको जैसे आंदोलन करने पड़े जिनकी नीव सन १७३० में बिश्नोई समुदाय ने अपने जीवन की कुर्बानी देकर डाली और सरकार को झुकने के लिए विवश कर दिया।
स्वतंत्र भारत में इसे दोहराने की जरूरत पड़ी और वह भी महिला शक्ति की पहल से क्योंकि पेड़ों के कटने से सबसे ज्यादा परेशानी उन्हें ही उठानी पड़ती है। चिपको आन्दोलन के लिए सुंदर लाल बहुगुणा को उनकी पत्नी विमला बहुगुणा से ही प्रेरणा मिली और इसका सूत्रपात महिलाओं द्वारा पेड़ों से चिपक कर रहने से हुआ ताकि पहला वार उन पर ही हो। उनका मानना था पेड़ों में भी उसी प्रकार ईश्वर का वास होता है जिस प्रकार अन्य जीवों में होता है।
गांधीवादी बहुगुणा के साथ मार्क्सवादी चण्डीप्रसाद भट्ट के साथ ऊर्जा प्रदान करने वाली कविताओं के रचनाकार घनश्याम सैलानी और अन्य समर्थक जुड़ गए तो तत्कालीन इंदिरा सरकार को सन १९८० में १५ वर्षों के लिए हिमालय क्षेत्र में वन काटने पर प्रतिबंध लगाने को मजबूर होना पड़ा। बहुगुणा की पाँच हजार किलोमीटर की पद यात्रा का असर पूरी दुनिया में दिखाई दिया।
जहाँ एक ओर महिलाओं ने पेड़ों को राखी का धागा बाँधकर रक्षा बंधन का पर्व मनाया तो पुरुष वर्ग को अपनी ओर करने के लिए जंगलात के ठेकेदारों ने शराब बाँटी लेकिन यह चाल कामयाब न हो सकी।
पेड़ कटाई का असर
जब हम यह जानते हैं कि पेड़ कटने से उपजाऊ मिट्टी बह जाती है, चट्टानें टूट कर गिरने लगती हैं, नदियों के रौद्र रूप से बाढ़ खेत घर बस्ती गाँव शहर नष्ट हो जाते हैं, जल स्रोत सूख जाते हैं और वन संपदा से होने वाले लाभों से वंचित हो जाते है तो फिर केवल धन के लिए वन विनाश क्यों करते हैं यह समझ से परे है।
पेड़ों की आयु मनुष्य से कहीं अधिक होती है तो क्या शहर बसाने की योजना इस प्रकार नहीं बनानी चाहिए कि पेड़ों को काटने की नौबत न आए। ऐसा होता है तो पेड़ काटने के बाद नए पौधे लगाने का बहाना बनाने की जरूरत नहीं रहेगी।
एक उदाहरण है। यूरोप के शहरों का विकास पेड़ों को बचाकर किया जाता है इसीलिए वहाँ पर्यावरण सुरक्षित रह पता है जबकि भारत में शहर बसाने या उनका विकास करने का काम नौजवान पेड़ों की बलि देकर किया जाता है। यही कारण है कि यूरोप के देश इतने विकसित और खुशहाल हैं। वहाँ खेतीबाड़ी और वन संरक्षण का काम एक साथ होता है तो मौसम भी उनके अनुरूप रहता है।
भविष्य की आहट
पर्यावरण और वन संरक्षण के प्रति कारगर उपाय न करने का परिणाम हम भुगत रहे हैं। जन संख्या विस्फोट के दुष्परिणामों से बचने का उपाय वन विकास और पौधारोपण में है।
यदि नीतियाँ सही न बनाई गयीं तो चिपको जैसे आंदोलनों की शुरुआत साफ पानी के लिए, ऊर्जा पूर्ति के लिए और प्लास्टिक जैसी चीजों की रीसाइक्लिंग करने के लिए करने का वक्त आ चुका है। इससे पहले कि यह आंदोलन हों अगर सरकार सुधार कर ले तो बेहतर होगा वरना संघर्ष के अतिरिक्त और कोई उपाय बचता नहीं है।
इसी कड़ी में बरगद और नीम के वार्तालाप के रूप में प्राप्त एक कविता के अंश प्रस्तुत हैं।
मार्मिक कविता
सड़क विस्तार के लिए
सारे पेड़ों के कटने के बाद
बस बचे हैं एक नीम और बरगद
जो अस्सी साल के साथ में
शोकाकुल हैं पहली बार
नीम और बरगद बोले आपस में
खैर जो हुआ सो हुआ
अब हम दोनों ही सम्भालेंगे
पक्षियों से लेकर
छाया में रूकने वालों को
अचानक बरगद बोला
ये लकड़हारे फिर लौट आए
कहीं हमें तो नहीं काटेंगे
कहकर बरगद ने जोर से झुरझरी ली
नीम ने भरोसा दिलाया
अरे, ऐसे ही आए होंगे
सड़क तो बन गई है ना
अब भला क्यों काटेंगे हमें
थोड़ी देर में निशान लगने लगते हैं
आदमलोग कह रहे हैं
कि बसस्टॉप के लिए यही सबसे सही जगह हैं
इन दोनों को काट देते हैं
छोटा-सा शेड लग जाएगा
लिख देंगे प्रार्थना बस-स्टैंड
नीम चिल्लाया
अरे, मत काटो
हमारी छाया में बेंच लगा दो
हवा दे देंगे हम टहनियां हिलाकर
निम्बोली भी मिलेगी
और अच्छा लगेगा पक्षियों को देखकर
बरगद ने हामी भरी
सारे पक्षी आशंकित से नीचे ताकने लगे
आर्तनाद बेकार गया
पहले नीम की बारी आई
आँख में आँसू भर नीम ने टहनियाँ हिलाई
बरगद ने थामा क्षण भर नीम को
गलबहियाँ डाली दोनों ने
और धड़ाम से खत्म हो गया एक संसार
अब बरगद देख रहा है
उन्हें अपने पास आते
सिकुड़ता है
टहनियां हिलाता है
कातर नजरों से ताकता है इधर-उधर
पक्षी बोलते-डोलते हैं
मगर नाशुक्रे आरी रखते हैं
और फिर सब खत्म
ये नीम और बरगद का कत्ल नहीं है
एक दुनिया का उजड़ना है
बेजुबान जब मरते हैं
तो बदले में
बहुत कुछ दफन हो जाता है !!
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