झूठ के पाँव और रंग रूप
जिस समाज में बात बहादुर, पब्लिसिटी बहादुर, तोड़ो और राज करो बहादुर, क्रिटिक बहादुर, टाँग खिंचाई बहादुर और झूठों के सरदार बहादुर हों तो वहाँ नौकरशाही की बन आती है और वे प्रशासन तथा सरकार को अपने अपने हानि लाभ के गणित के आधार पर चलाने लगते हैं क्योंकि जब उनके सैंया यानि नेता कोतवाल बन जाते हैं तो उन्हें किसी बात का डर नहीं रहता।
जो उनके शिकंजे में नहीं फँसते वे चाहे आई ए एस हों, पी सी एस हों, आई एफ एस हों या किसी और पद पर हों, सरकारी नौकरी और उसके साथ जुड़ी अनंत सुविधाओं का त्याग करने के लिए मजबूर हो जाते हैं या विदेश जाकर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाते हैं। इसी कड़ी में वैज्ञानिक, आर्थिक विशेषज्ञ और अन्य प्रतिभाशाली लोग आते हैं जो सरकारी नौकरी को बोझ की तरह समझते हैं और घुटन भरी जिंदगी जीते रहते हैं क्योंकि उनके पास कोई विकल्प नहीं होता।
ऐसे में चाहे झूठ के पाओं न होते हों लेकिन वह गिरगिट की तरह रंग बदलने में माहिर होता है और कुछ समय बाद सच लगने लगता है।
प्रजातंत्र का एक यही दोष है कि वह असत्य को फैलने से रोकने में असमर्थ है। असल में इस व्यवस्था में जनता और सरकार नदी के दो तटों की तरह है और बीच में बिचौलियों के रूप में मगरमच्छ, घड़ियाल, सर्प आदि रहते हैं जो कभी दोनों तटों पर पुल बनने नहीं देते क्योंकि अगर दोनों की पहुँच एक दूसरे तक हो गयी तो उनका अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा।
ये ज्ञान की नाव को अज्ञानता और आशिक्षा के भँवर में इस कदर फँसा देते हैं कि सच्ची जानकारी जनता तक पहुँच ही नहीं पाती। प्रजातंत्र में इसका सीधा असर उसके वोट पर पड़ता है और वह अक्सर गलत लोगों को वोट देकर कम से कम पाँच साल तक पछताता रहता है।
लोकतंत्र की एक और समस्या है की यहाँ जनता हमेशा कर, शुल्क, फीस आदि के रूप में देनदार बनी रहती है और सरकार है कि सदा आयकर, जी एस टी और न जाने क्या क्या लेनदार की तरह जनता से छीनने के लिए तैयार रहती है। अगर किसी ने आवाज बुलंद की तो उसके लिए कानून का डंडा है, जेल की दीवारें हैं या फिर मुँह बंद करने के लिए मामूली रियायत देने का ढोंग कर लिया जाता है। विडम्बना यह है कि आजादी के बाद से सरकार का यह चाल चरित्र बेरोकटोक चला आ रहा है चाहे किसी भी दल का शासन हो।
यह एक सत्य है कि आलोचना के बिना कोई प्रशासन या देश नहीं चल सकता। इसलिए सरकार यदि राष्ट्रीय सुरक्षा की न्यूनतम बारीक परत को छोड़कर सब कुछ सत्य बता दे तो उसकी गरिमा बनी रहती है। वर्तमान में राफेल को लेकर उठ रहे शंका के बादलों को छाँटने का यही एक उपाय है। इसी तरह तेल की कीमतों से लेकर महँगाई, बेरोजगारी और अशिक्षा जैसी चीजों की वास्तविकता उजागर करनी होगी यदि जनता के बीच अपनी साख बचानी है।
पूरी दुनिया में सूचना तंत्र सरकारी और प्राइवेट सेक्टर के हाथों में सिमट गया है। सरकारी मशीनरी तो अपनी योजनाओं और उनकी सफलता का ढोल अपने संसाधनों के जरिए पीटती रहती है और निजी क्षेत्र के मीडिया संस्थान अपने हितों को सबसे ऊपर रखकर ही सूचनाओं का व्यापार करते हैं।
हालाँकि इनके पास सत्य का भंडार होता है, जानकारी का खजाना होता है और समस्त जानकारी कुछ लोगों की बपौती बनकर रह जाती है जिसके बल पर यह मीडिया को एक उद्योग की तरह चलाते हैं जहाँ अपने हितों का संरक्षण पहले किया जाता है और सार्वजनिक भलाई की जानकारी केवल उतनी ही दी जाती है जिससे उनकी भलमनसाहत की छवि को कोई ठेस न पहुँचे।
आज के दौर में सीमित साधनों से पूर्ण ईमानदारी से न कोई अखबार चल सकता है न कोई चैनल। सरकार इनका अपने लाभ के लिए इस्तेमाल करने के लिए विज्ञापन और दूसरी सुविधाएँ देती है जिसमें ये शायद ठीक से जी भी न पाते हों और कुछ आवाज निकालने की कोशिश की गयी तो उनके अस्तित्व के ही नेस्तनाबूद होने का खतरा हो जाता है।
मीडिया में पूँजीवाद की घुसपैठ से फ्रीडम ऑफ इक्स्प्रेशन का ज्यादातर मतलब यह हो गया कि पूँजीपति अखबारों और चैनलों को पत्रकारों और लेखकों सहित खरीदें, सरकार को बिभिन्न रूपों में रिश्वत दें और एक बनावटी पब्लिक ओपिनियन का निर्माण करें जो उनके और उनके सरकारी संरक्षकों के लिए सहूलियत रूपी ढाल का काम करे।
जानकारी के प्रति अरुचि और जिज्ञासा न होने के कारण ही पंजाब नैशनल बैंक को घोटालेबाजों के साथ मिले होने के बावजूद बैंकिंग विजिलन्स पुरस्कार मिल जाता है, माल्या बैंक को चूना लगाकर भाग जाता है और यही नहीं देश के ही लोग लूट का माल स्विस बैंक में जमा करा आते हैं और मजे की बात यह कि किसी का बाल तक बाँका नहीं होता।
ऐसा होने पर ही तानाशाही का बीज अंकुरित होने लगता है, प्रशासन और सरकार निरंकुश हो जाती है, आपातकाल इसका उदाहरण है। सत्ता एक व्यक्ति, संस्था या दल के हाथों में केंद्रित हो जाती है। जब एक अरबपति के पास दस मीडिया संस्थान होते हैं और एक अरब लोगों की आवाज उठाने वाला एक भी मीडिया संस्थान नहीं होता तो फिर आतंकवाद का जन्म होता है चाहे वह आर्थिक आतंकवाद हो, बम पिस्तौल धारी आतंकवाद हो या समाज में गुंडा तत्वों का आतंक हो।
यही कारण है कि सत्ता की चाह में वे विपक्षी दल जिनके दामन में सैकड़ों दाग लगे हैं, कभी अपनी एकता के नाम पर, कभी केवल विरोध करने के लिए और कभी स्वयं पर लगी कीचड़ को साफ करने के लिए बगुला भगत बनकर जनता को गुमराह करने लगते हैं। सत्ताधारी भी अपने पल्लू को पाक साफ दिखाने के लिए अष्टांग योग करते रहते हैं।
यह सब पूर्णतया हास्यास्पद और असलियत से दूर होता है लेकिन जनता इन पर यकीन इसलिए करने लगती है क्योंकि सत्य जानने की राह दोनों ही पक्षों द्वारा बंद कर दी जाती है। हकीकत यह है कि जनता चाहे तो पर्याप्त जानकारी से इन रास्तों को खोल सकती है और दोनों के दावों के खोखलेपन या ठोसपन की जाँच खुद कर सकती है। इसके बाद जनता जो भी निर्णय करेगी वही उसके लिए कल्याणकारी होगा।
उल्लेखनीय है कि हमारे देश में ही नहीं अमरीका, यूरोप और एशिया के ज्यादातर विकसित देशों में मीडिया के सौदागर यह हालत बनाने में कामयाब हो गए हैं केवल उन देशों को छोड़कर जिनमें जनता जागरूक है, उसके पास जानकारी का अभाव नहीं है और वह सत्य को सामने लाने की हिम्मत रखती है।
निष्कर्ष यह है कि ज्ञान ही अज्ञानता पर विजय पा सकता है और सरकार की लोकप्रियता की कसौटी भी जानकारी का सुलभ और सत्य पर आधारित होना है। यदि जनता को अपनी भलाई की राह जाननी है तो उसे सत्य की खोज करनी ही होगी और उसे प्रकट करने की हिम्मत भी जुटानी होगी।
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