शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2018

नियम तोड़ना मजा नहीं, सजा भी है



नियम कायदों से परहेज


कुदरत अपने नियमों के अनुसार चलती है और अगर उन्हें समझने और उनका पालन करने में मनुष्य से कोई चूक हो जाती है या जानबूझकर उन्हें दरकिनार कर अपनी मनमानी की जाती है तो उसके परिणामस्वरूप सजा भी मिलना तय है। इसी तरह इंसान अपने लिए भी नियम कानून बनाता है जिनका उद्देश्य जीवन को सुगम और गतिशील बनाए रखना है।

जब ऐसी स्थिति आती है जिसमें नागरिक कानून मानने से परहेज करने लगता है, उसका उल्लंघन करने में उसे मजा आने लगता है तो यह जानना जरूरी हो जाता है कि वह ऐसा करता क्यूँ है जिसमें उसकी अपनी और दूसरों की जान जोखिम में डालने की नौबत आ जाती है।

इस तरह की घटनाएँ हमारे आसपास हर रोज होती रहती हैं जो मीडिया के जरिए हम तक पहुँचती रहती हैं। उदाहरण के लिए रेल की पटरी पर भीड़ जमा कर ली और रेल सैंकड़ों लोगों को मौत की नींद सुलाती चली गयी। ट्रैफिक सिग्नल पर लाल बत्ती होने पर भी तेजी से जो गाड़ी निकाली तो वह कुछ कदम पर ही दूसरे वाहन से टकरा कर जबरदस्त दुर्घटना का कारण बन गयी। रॉंग साइड से थोड़ी सी दूरी बचाने के चक्कर में जो वाहन निकला तो सामने से सही दिशा में चल रहे वाहन से जो टक्कर हुई तो दोनों के परखचे उड़ गए और जान और माल दोनों का नुकसान हो गया।

 हैलमेट नहीं पहना या बेल्ट नहीं बांधी तो जो हादसा हुआ उसमें अंग भंग से लेकर मौत तक हो गयी। निर्धारित स्पीड से ज्यादा पर गाड़ी चलाने में मजा तो आया लेकिन जब मोड़ पर या सड़क फाँद कर जो गहरी खाई में गिरे तो तो किसी के बचने की उम्मीद ही जाती रही। 

यह तो कुछ जान को हथेली पर लेकर चलने की घटनाएँ हैं लेकिन ऐसे भी बहुत से नियम कानून हैं जिनका पालन न करने पर जान भले ही न जाए पर थाने कचहरी के चक्कर लगने जरूर शुरू हो जाते हैं जिसमें समय और पैसा तो बर्बाद होता ही है सुख चैन भी खत्म होने लगता है। 

नियम विरुद्ध जैसे कि टैक्स चोरी, रिश्वतखोरी, आय से अधिक सम्पत्ति, बेनामी जमीन जायदाद और इसी तरह के दूसरे काम करने पर कुछ दिनों की चाँदनी तो जरूर रहती है लेकिन फिर अंधेरी रात का जो आलम शुरू होता है तो जेल की कोठरी में जिंदगी गुजारने और इज़ाजत की नीलामी होने का दौर इस तरह शुरू होता है कि खत्म होने का नाम ही नहीं लेता चाहे जीवन की डोर टूट जाए।

नियम पालक बनाम नियम तोड़क 

जब नियम और कानून का पालन करने पर इतनी सुविधाएँ और सहूलियतें हैं तो फिर इंसान उन पर न चलने का खतरा क्यों उठाता है जिसमें उसे यह मालूम रहता है की देर सवेर कानून के हाथ उस तक पहुँच ही जाएँगे। 

असल में इसके पीछे दो कारण हैं एक तो यह कि कुछ कानून ऐसे हैं जिन का पालन करना न केवल लगभग असम्भव होता है बल्कि पूरी तरह गैर व्यावहारिक होना है। दूसरा कारण यह है कि कानून का पालन करवाने की जिम्मेदारी जिन पर है वे भेदभाव करते है जिसका परिणाम कानून पर से भरोसा उठ जाने के रूप में होता है।

जब किसी चीज को जिसे हम अपना रक्षक समझते रहे हों वह भक्षक की तरह हो जाए और एकदम अनुचित व्यवहार करने लगे तो उस चीज के प्रति नफरत नहीं होने लगेगी? इसी तरह जब नियम और कानून दो व्यक्ति या दो समुदाय के बीच भेदभाव करने लगे तो क्या उस पर विश्वास हो सकेगा?

बात चाहे छोटी हो या बड़ी कानून अर्थात उसका पालन करवाने वाले यदि भेदभाव करेंगे तो जिसके साथ अन्याय हुआ वह कैसे और कब तक इसे बर्दाश्त कर सकेगा? मान लीजिए सड़क पर कोई ट्रैफिक कानून तोड़ने पर आप का तो चालान कट रहा है, वहीं किसी असरदार व्यक्ति के आ जाने या पुलिस के ही कोई साहब बिना हैलमेट और लाल बत्ती तोड़ते हुए दनदनाते आपके पास से गुजर जायें और उन्हें तो कुछ न कहा जाए और आपकी जेब से पैसे निकलवा लिए जायें तो क्या आपका मन कानून का पालन करने के लिए करेगा ?


यही बात गम्भीर किस्म के मामलों पर लागू होती है जिनमें प्रभावशाली और रसूखदार तो बेदाग बच निकलता है या अगर उसके खिलाफ कोई कार्यवाही होती भी है तो उसे हमारे राजनीतिज्ञ और ऊँचें पदों पर बैठे व्यक्ति बचाने के लिए क्या क्या उपाय नहीं करते और कौन से गुल नहीं खिलाते यह किसी से छिपा नहीं है। विडम्बना यह है कि सामान्य नागरिक के पास केवल भोचक्का होकर यह सब देखने और सहन करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं है। ऐसे में क्या उसके मन से कानून का पालन करने या नियमानुसार चलने के प्रति नफरत सी नहीं हो जाएगी ?


कानून विरोधी मानसिकता

इस मानसिकता के दो पहलू हैं। एक तो यह कि मुझे तो कानून और नियमों के मुताबिक चलना ही है। दूसरा यह कि काल्पनिक सोच बना लेना कि मुझे न्याय तो मिलेगा ही नहीं तो मैं कानून और नियम मानूँ या न मानूँ क्या फर्क पड़ता है! 
जब समाज में इस तरह की सोच रखने वाले ज्यादा हो जाते हैं तब न्याय का तानाबाना बिगड़ने में ज्यादा देर नहीं लगती और देश में कानून मानने वालों की तादाद दिन प्रतिदिन कम होने लगती है।

क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम में केवल कुछ या बहुत कम लोग विश्वास कर पाते हैं जिसकी वजह यह है कि इसमें सिफारिश, भ्रष्टाचार, दबंगई और राजनीतिक हस्तक्षेप ज़्यादा होता है। इस कारण रोजाना के जीवन में नियम कानून का ज़्यादातर कागजी महत्व रह जाता है व्यावहारिक नहीं।


बहुत बार तो कानून इसलिए तोड़े जाते हैं क्योंकि उससे हमारी लोकप्रिय सांस्कृतिक या परम्परागत विरासत बाधक बन जाती है। जैसे कि धार्मिक या सामाजिक समारोह के लिए पूरी सड़क घेर लेना, दुकानदारों का त्यौहारों या विशेष दिनों में पटरी पर कब्जा कर लेना, मेले में लाउड्स्पीकर की तेज आवाज या फिर घर पर ही शादी विवाह, माता की चौकी, देवी जागरण या किसी ऐसे ही अवसर पर पड़ौसियों की नींद उड़ाए रखना। कई बार तो सड़कों पर ऐम्ब्युलेन्स तक को रास्ता नहीं मिलता और बेचारा मरीज अस्पताल पहुँचने से पहले ही दम तोड़ देता है।

अक्सर लोगों की यह जानने की हसरत पूरी हो ही नहीं पाती कि दोषी को सजा मिली या नहीं, दोषी को जमानत मिलने और सबूतों के अभाव या संदेह का लाभ देकर बरी होने के किस्से रोज ही सामने आते रहते हैं। ऐसे में कानून पर कैसे विश्वास किया जा सकता है जिसमें अपराधी के छूट जाने की जबरदस्त सम्भावनाएँ हैं।

नियम कानून से बचने, उसे तोड़ने पर बच निकलने और निर्दोष के कानून के शिकंजे में कसे जाने को फिल्मों, धारावाहिकों, नाटकों और बेस्ट्सेलर किताबों के जरिए जिस तरह से परोसा जाता है उससे भी साधारण व्यक्ति के मन में अविश्वास पैदा होता रहता है। आज के दौर में सोशल मीडिया इसमें तड़का लगाने का काम करता है। 


समाधान तो निकालना होगा 

इसका उपाय क्या है कि नियमों और कानूनों पर चलने की आदत हो? इसके लिए सबसे पहले तो सरकार को अन्याय का आभास देने वालों कानूनों की समीक्षा कर उन्हें बदलने की पहल करनी होगी। दूसरा यह कि जनता को काल्पनिक अन्याय का भय न सताए और कानून में उसका यकीन कायम हो। तीसरा यह कि आम आदमी को लगे कि कानून उसकी भलाई और रक्षा के लिए हैं, उस पर जबरदस्ती थोपे जाने के लिए नहीं। चौथा यह कि नियम कानून सामाजिक सुधार के साथ जोड़कर देखे जायें कि उनसे सामाजिक बुराइयों को दूर किया जा सके।

अपराध की कोशिश करने और अपराध होने देने में अंतर है। ज्यादातर मामलों में अपराध की कोशिश तब ही होती है जब किसी के साथ भेदभाव या अन्याय होने का अंदेशा हो जैसे कि घर, दफ्तर, नौकरी, तरक्की, पढ़ाई लिखाई, परीक्षा और योग्यता के स्थान पर अन्य बातों को प्रेफ्रेन्स देना। यदि इन सब में ईमानदारी हो और सबके लिए एक समान न्यायिक व्यवस्था हो तो फिर कोई सिरफिरा ही कानून तोड़ने की हिमाकत करेगा।

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