शनिवार, 10 नवंबर 2018

धर्म, धर्मस्थलों का राजनीति और व्यापारीकरण बहुत घातक है


आस्था से खिलवाड़

जन्म लेते ही व्यक्ति का परिवार, समाज और धर्म निर्धारित हो जाता है जो अमूमन जीवन भर साथ रहता है। इसमें कुल, जाति, गोत्र और उनसे जुड़ी मान्यताएँ और परम्पराएँ व्यक्ति की पहचान बन जाती हैं। चाहे जातिसूचक उपनाम या सरनेम न लगायें पर यह समझना मुश्किल नहीं होता कि उसकी दुनिया किन आचार विचारों और सिद्धांतों पर टिकी है और उन पर जरा सी ठेस लगते ही महसूस होता है कि मानो समूचा व्यक्तित्व ही किसी ने हिला दिया हो।

यही भावना जन्मजात आस्था है जिसके साथ तनिक सा भी खिलवाड़ होने पर भूचाल आ जाता है, हड़कम्प मच जाता है यहाँ तक कि मारकाट और हिंसा का ऐसा ताण्डव देखने को मिलता है कि यह सोचना कठिन लगता है कि कल तक जो हम प्याला और हमनिवाला थे वो अचानक कैसे एक दूसरे के दुश्मन हो गए और विध्वंस की ऐसी गाथा लिखने लगे कि इतिहास भी शर्मा जाए।

भारत के बँटवारे के वक्त जो कुछ हुआ उससे बड़ा उदाहरण शायद दुनिया में कहीं और न मिले जब एक ही मकसद था कि कैसे एक दूसरे को नेस्तनाबूद किया जाए और यह सब एक दूसरी कौम अंग्रेज द्वारा धर्म का राजनीतिक इस्तेमाल करने से संभव हुआ। हम समझ ही नहीं पाए कि यह उसकी कितनी बड़ी राजनीतिक चाल थी जिसका नतीजा हम आज तक भुगत रहे हैं और न जाने कब तक भुगतेंगे।

अब हम एक और असलीयत आपके सामने रखते हैं।

धर्म निराकार होता है। उसे साकार रूप देने के लिए हम कल्पना, वास्तुकला और आस्था के मिश्रण से उन स्थलों का निर्माण करते हैं जिन्हें हम मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च, स्तूप आदि कहते हैं।
इन स्थलों का एकमात्र उपयोग यही है कि व्यक्ति वहाँ प्रार्थना, पूजा, अर्चना कर सके और अपने धर्म के अनुसार अपने आराध्य जिसे हम देवी, देवता, पैगम्बर आदि नामों से पुकारते हैं, इन धार्मिक स्थलों पर जाकर उनसे अपने मन की बात कह सकें।

जब कभी हम परेशानी में घिरे हों, क्या करें क्या न करें जैसी स्थिति में हों, मुसीबत से बचने का कोई उपाय न सूझता हो, परिवार से लेकर अपने काम, रोजगार और व्यापार पर कोई अनचाही विपदा आ गयी हो तो हम वहाँ जाकर अपने पूज्य की मूर्ति अथवा प्रतीक की साकार उपस्थिति में अपने आप से बातें करने लगते हैं।

आप किसी भी स्थल पर चले जाइए आपको ज््यादातर लोग कुछ न कुछ बोलते हुए मिलेंगे। अगर ध्यान से सुनेंगे तो वे सब अपनी आपबीती अपने को ही सुना रहे होते हैं। कोई आपसी या पारिवारिक कलह की बात करता मिलेगा, कोई नफे नुकसान की बात करता होगा तो कोई शत्रु पर विजय प्राप्त करने की योजना सुनाता मिलेगा। यहाँ तक कि प्यार मोहब्बत के अफसाने भी कानों में पड़ेंगे और एक दूसरे को पाने की तरकीबें भी यहाँ विस्तारपूर्वक बनती हुई दिखेंगी।

इसी तरह जब हम कुछ हासिल करते हैं, प्रसन्न होते हैं या हमारी कोई मनोकामना पूरी होती है तो हम अपनी खुशी व्यक्त करने के लिए यहाँ आते हैं और दान के रूप में धन, आभूषण किसी मूर्ति या धार्मिक प्रतीक को अर्पण करते हैं।

धार्मिक स्थलों का इससे अधिक कुछ और उपयोग या महत्व हो तो वे लोग बताएँ कि वह क्या है? ये लोग हमारी आस्था, विश्वास के साथ ऐसा खिलवाड़ करते हैं और जनभावनाओं का बलात्कार करने की हद तक जाकर ऐसा प्रपंच रचने में कामयाब हो जाते हैं कि विभिन्न धर्मों के लोग एक दूसरे की जान लेने तक के लिए तैय्यार हो जाते हैं। हिंसा का भयानक रूप देखने को मिलता है और उसके बाद जो बर्बादी होती है उसकी भरपाई करने में सदियाँ भी कम पड़ जाती हैं।

धर्म और धार्मिक स्थलों का राजनीतिकरण यही है जिसका फायदा उठाने का कोई भी मौका हरेक राजनीतिक दल हाथ से जाने नहीं देता। अगर ऐसा न होता तो चाहे हिंदुत्व को लेकर बहस हो, राम मंदिर का निर्माण हो, अल्पसंख्यकों के वोट लेने के लिए उनके धार्मिक स्थलों की रक्षा के नाम पर आपस में बैर कराना हो, कोई भी उपाय कारगर न हो पाता जो हमारे नेता जनता का ध्यान जीवन की असली समस्याओं से भटकाने के लिए अपनाते रहते हैं।

जरा सोचिए कि क्या फर्क पड़ जाएगा अगर विवादित स्थल की बगल में ही राम मंदिर का निर्माण हो जाए। लेकिन जिन्हें आस्था और भावना का सहारा लेकर दंगा करवाना ही अच्छा लगता हो तो क्या किया जा सकता है। ऐसे में एक ही तरीका है कि इनकी बात न केवल न सुनी जाए बल्कि उनका विरोध भी हो, तब कहीं जाकर धर्म और धार्मिक स्थलों का असली मकसद पूरा होगा जो यह है कि वह आपस में दुश्मनी नहीं कराता, तोड़ता नहीं जोड़ता है, हमारा सुकून कायम रखता है, अमन चैन की जिंदगी देता है, सुख की नींद देता है और हमारी खुशहाली का जरिया है। इतनी सी बात समझ में आने के लिए किसी वैज्ञानिक सोच की जरूरत नहीं केवल उसे सहजभाव से स्वीकार करने की आवश्यकता है।

धार्मिक आजादी का दुरुपयोग

भारत के संविधान में जब सेकूलर शब्द यानि धर्मनिरपेक्षता को जोड़ा गया था तो शायद यही सोच रही होगी कि सरकार के लिए सभी धर्म बराबर हैं और वो उनमें कोई दखलंदाजी नहीं करेगी। यहाँ सबसे बड़ी भूल यह हो गयी कि यह तय नहीं किया गया कि राज्य और धर्म का रिश्ता आखि़र क्या होगा? सेकूलर बनने की झोंक में यह ऐतिहासिक तथ्य भुला दिया गया कि भारत धर्म की नींव पर टिका है। यहाँ मुगलों के आने से पहले कोई भी काम बिना धार्मिक अनुष्ठान के कभी हुआ ही नहीं और न ही ऐसा हुआ कि चाहे किसी भी वंश का शासन रहा हो उसमें धार्मिक स्थलों का निर्माण बिना प्रशासन की छत्रछाया या सहयोग के हुआ हो।

भारत में सेकूलरिजम के पश्चिमी देशों के विचार को लागू तो कर दिया लेकिन उन देशों की तरह धार्मिक क्रियाकलापों में हस्तक्षेप करना नहीं छोड़ा।

यह गलती से या जानबूझकर भूलने का कि भारत की बुनियाद में धर्म और अध्यात्म है, परिणाम यह हुआ कि मानो धार्मिक आजादी का दुरुपयोग करने की हमें छूट ही मिल गयी। भारत में किसी भी दल की सरकार रही हो वह कभी फंडामेंटल यानि मूलभूत अधिकारों की रक्षा के नाम पर, भारतीय संस्कृति के प्रचार प्रसार के नाम पर तो कभी मायनॉरिटी को अपने पक्ष में करने के नाम पर धार्मिक स्वतंत्रता का गलत इस्तेमाल करने से जरा भी नहीं चूकती क्योंकि इन दलों को पता है कि धर्म ऐसी अफीम है जो किसी के भी होश उड़ा सकती है, उसे अनंत काल तक गाफिल बनाए रख सकती है। मिसाल के तौर पर बाबरी मस्जिद और रामजन्मभूमि के विवाद की जड़ यही है।

हमारे धार्मिक स्थल असल में लोगों की भक्ति भावना का बेरहमी से दोहन करने की उनके संचालकों की मानसिकता या व्यापारिक बुद्धि के कारण अकूत धन जमा करने का ऐसा स्रोत बन गए हैं कि हरेक राजनीतिक दल और उनके वरिष्ठ नेता इन्हें अपने पाले में रखने में ही अपनी राजनीतिक इच्छाओं की पूर्ति का मजबूत स्तम्भ समझते हैं। इसीलिए तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लोग धार्मिक स्थलों में जाकर अपनी हाजिरी देने का ढोंग रोजाना करते रहते हैं।

इन जगहों से बाहर निकलते ही धार्मिक आजादी का दुरुपयोग करने का खेल खेलने में इन्हें जरा भी देर नहीं लगती और यह जनता को अनिश्चय के चैराहे पर खड़ा कर स्वयम् अंतरध्यान हो जाते हैं। अब जनता आपस में लड़े मरे या सिरफोड़े इनका क्या जाता है। मामले के तूल पकड़ते ही यह एक या दूसरे के पक्ष में बयानबाजी कर छोटी सी बात को साँप की गुंजल की तरह इतना उलझा देते हैं कि जनता या तो साँप का शिकार बने या इनके बहकावे में आ जाए। दोनों तरफ से चाँदी नेताओं की होती है। अगर ऐसा न होता तो देश में गोहत्या या गोमांस को लेकर इतनी घटनाएँ न होतीं।

सेकूलर होने का मतलब

आँकड़ों के मुताबिक लगभग आधी दुनिया के देशों में सरकार की ओर से किसी विशेष धर्म की मान्यता है या उसे वहाँ तरजीह दी जाती है। बाकी आधी दुनिया या तो सेकूलरिजम को मानती है या कुछ देशों में धर्म को शत्रु के रूप में देखा जाता है जैसे कि चीन में है।

हमारे देश में सेकूलर होने का यह मतलब है कि सरकार अपनी सुविधा के अनुसार जब चाहे किसी एक धर्म के मानने वालों को कोई भी सहूलियत दे सकती है जैसे कि धार्मिक स्थलों के पुनर्निर्माण के लिए धन, तीर्थ यात्रा या हज यात्रा अथवा किसी और काम के लिए सभी इंतजाम करना जैसे कि कुम्भ का मेला।

अब जरा इस पर निगाह डालिए कि एक ओर तो हमारे धार्मिक स्थलों में इतना धन आता है कि उससे न जाने कितने समजोपयोगी काम किए जा सकते हैं दूसरी ओर इन्हीं जगहों पर इतनी गंदगी और अव्यवस्था देखने को मिलती है कि अच्छे से अच्छे श्रद्धालु का मन खराब हो जाए। कम से कम सरकार इनकी सफाई और नियमित देखभाल के लिए कड़े नियम तो बना ही सकती है ताकि यहाँ जाने पर सुखद अहसास हो।

 कोई यदि मन को शांत करने के लिए वहाँ जाए तो और अधिक अशांत न हो जाए बल्कि खुशी पाकर लौटे। इन जगहों के आसपास जितने भिखारी मिलते हैं उनके ही पुनर्वास का इंतजाम सरकार या निजी स्तर पर हो जाए, आने जाने के रास्ते ठीक हों और पहुँचने के लिए सुगम यातायात मिल जाए तो सोने पर सुहागा होगा। अभी तो अनेक स्थानों पर हालत यह है कि व्यक्ति खिन्म होकर ही लौटता है हालाँकि धार्मिक पर्यटन की हमारे देश में बहुत गुंजाइश है।

नकली और असली घर्मनिरपेक्षता में भेद करना हो या धर्मिक और अधार्मिक होने की व्याख्या करनी हो तो इतना ही काफी है कि हमारे नेताओ, साधु संतों के हाल के बयानो पर नजर डाल ली जाए!

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