ऐसा तो सोचा न था
जब राजनीति के धुरंधर जनता की भलाई से कोई सरोकार न होने वाली बातें करने लगें तो समझ लेना चाहिए कि उनके पास कोई योजना, कोई विकल्प या भविष्य की कोई रूपरेखा नहीं है। इस प्रक्रिया में सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों ही जनता को बहकाने और छलने के लिए एक दूसरे पर आरोप लगाने लगते हैं।
विपक्ष का स्तर इतना गिर जाता है कि सीधे प्रधानमंत्री को चोर, भ्रष्टाचारी, कमीशनखोर, रूकावट डालने वाला, अनपढ़, गवांर और भी न जाने क्या, जो जिसके मुंह में आया, ठहराने लगता हैं। इधर सत्तापक्ष अपने प्रधानमंत्री, सिपहसालारों, सलाहकारों के मशविरे पर अपनी राजकीय शक्ति का इस्तेमाल करते हुए राष्ट्रीय तथा अंतराष्ट्रीय मंचों पर अपनी छवि को चमकाने का काम करने में लग जाता हैं ताकि उनकी ईमानदारी की सनद बनी रहे और विपक्ष भी चारों खाने चित्त हो जाए। इसके साथ ही वह गांव देहात, कस्बों और छोटे शहरों में रहने वालों के लिए एक के बाद एक योजनाएं पहुंचाने लगता हैं ताकि उसपर लोगों का भरोसा बना रहे।
जनता सत्तापक्ष की करनी को भांप लेती है और जो उसके हित में होता है उसे मान लेती है और जैसे ही सत्तापक्ष की गलतियों और भ्रामक निर्णयों के कारण हो रहे अपने नुकसान का अंदाजा होता है तो उसकी ओर से आक्रोश और विद्रोह के स्वर उठने स्वाभाविक हो जाते है।
यह देखकर स्थिति को काबू में रखने के लिए सत्तापक्ष बेसिर पैर की बाते करने लगता है। इसमें ऐसे मुद्दे इस्तेमाल किए जाते हैं जिनका विकास से कोई संबंध नहीं होता जैसे कि गोभक्ति, रामभक्ति, राष्ट्रभक्ति और शहरों के नाम बदलना आदि। इसका अर्थ यह हुआ कि क्या इस देश का यही भाग्य है कि उसे अपने नेताओं के रूप में ऐसे ही लोग मिलेगें जो चाहे दलीय दृष्टि से अलग अलग हों, व्यवहारिक रूप से एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं।
अटल सत्य
हमारे देश में विदेशी शासन की एक लम्बी पारी होने के बावजूद आस्था, विश्वास, धर्म, जाति, गोत्र का स्थान हमारी जीवनशैली का अभिन्न अंग रहा है। आयातित धर्म निरपेक्षता भी इसमें कोई बदलाव लाने में असफल रही। सेकुलर होने का यह अर्थ कतई नहीं है कि हमारे धर्म और उससे जुड़े रीति रिवाज, रस्म और परम्पराएं महत्वहीन हैं। इसी कारण अक्सर धर्मनिपेक्षता की पोल खुलती रहती हैं और तथाकथित सेकुलर लोगों को धर्मों का प्रतिनिधित्व करते हुए मन्दिर, मस्जिद, गुरूद्वारे, गिरिजाघर अथवा अपने किसी धार्मिक स्थल पर जाकर पूजा, अर्चना, प्रार्थना करते हुए देखा जा सकता है। यही हकीकत है।
विकास का मुद्दा
ऐसे में आश्चर्य इस बात पर होता है कि राजनीतिक दल अपने स्वार्थी आचरण के कारण हमें जो तस्वीर दिखाते हैं, उसे सही अर्थों में समझने में हम गलती कैसे कर जाते हैं? विकास के बजाए हमें धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष में उलझाने में राजनीतिक दल इसीलिए कामयाब हो जाते हैं क्योंकि वे जनता की नब्ज पहचानने के उस्ताद होते हैं और उसे गरीब, अनपढ़, अज्ञानी, संस्कारहीन बनाए रखने में ही अपना भविष्य देखते हैं।
एक उदाहरण से बात को समझना आसान होगा। हाल ही में अयोध्या में राम मन्दिर को लेकर बहुत बड़ा आयोजन हुआ जिसमें सबने अपनी अपनी ढपली और अपना अपना राग अलापा। इस दौरान अयोध्या जिले के आस पास के क्षेत्रों में एक फिल्म बनाने के दौरान जाने का अवसर मिला तो आश्चर्य हुआ कि सड़कों की जो हालत दस पन्द्रह साल पहले थी, वही आज भी है बल्कि बदतर हो गयी है।
हाईवे को छोड़कर जितने भी रास्ते आसपास के नगरों, कस्बों और गांवों में जाते हैं, वे टूटे फूटे, ऊबड़ खाबड़ तथा गंदगी से लबालब हैं। सड़क के किनारे जो ढाबे हैं, वे पिछले 30-40 साल पहले जिस हालत में बने होगें उस में और आज उनकी हालत में सिवाय ऊपरी बनावटी साजसज्जा के कोई परिवर्तन नहीं आया है। पास ही गन्दगी से भरी नाली जिसकी सफाई लगता है पांच दस साल में एकाध बार ही होती होगी, उसी तरह उबकाई और उल्टी करने की अवस्था में ला देती है जैसी 25-30 साल पहले होती थी।
स्वच्छता आन्दोलन ने पिछले कुछ वर्षों में इतिहास रचने का काम किया है और अब लोगों में शौचालय के प्रयोग तथा साफ सफाई से रहने के प्रति थोड़ी बहुत उत्सुकता जागी है। यह तुरंत समाप्त भी हो जाती है जब यह सच्चाई सामने आती है कि गन्दगी से निजात पाने के लिए जो सालिड और लिक्विड वेस्ट डिस्पोजल प्लाण्ट लगने चाहिए थे वे कतई नदारद हैं।
स्वच्छता की बातें करना केवल एक फैशनमात्र हो गया है? थोड़ा आगे बढ़ने और आस पास की नदी पर निगाह पड़ी तो देखा कि आज भी 90 प्रतिशत सीवेज उसी तरह गिरता है जैसा 50-60 साल से गिरता आ रहा है। नदियों की सफाई के नाम पर किये जाने वाले सभी उपाय निरर्थक लगते हैं और उन पर खर्च की जा रही विशाल धनराशि नदियों के जल में उसी तरह बह जाती है जैसे कि उनमें गन्दगी।
कल्पना पर आधारित यह बयानबाजी कि फरवरी 2019 तक हमारा लक्ष्य पूरे देश को खुले में शौच और गन्दगी से मुक्त करना है, बहुत ही हास्यास्पद है। वजह यह है कि तकनीक और टेक्नालाजी उपलब्ध होते हुए भी सरकार यह नहीं बता पाती कि होटल, अस्पताल, घर, दफ्तर, स्टेशन, हवाई अड्डे से लेकर धार्मिक स्थलों तक से निकलने वाले कूड़े़ कचरे गन्दगी का निपटान करने के लिए उसके पास क्या योजना है और उसकी शुरूआत कब, कहां से और कैसे होगी?
यह देखकर आश्चर्य होता है कि आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में आधे से ज्यादे स्कूलों के ताले तब ही खुलते हैं और उनमें केवल रस्म अदायगी के लिए विद्यार्थियो की हाजिरी दिखाई देती है जब उस क्षेत्र में कोई विशिष्ट मेहमान आए, राष्ट्रीय समारोह हो फिर मुफ्त में कोई वस्तु बांटे जाने की जानकारी हो। जब शिक्षा की यह हालत है तो बेरोजगारी का आलम क्या होगा, इसका अंदाजा लगाना कोई कठिन काम नहीं है।
कहने का मतलब यह है कि जब विकास की योजनाएं न हों, वायदे पूरे किए जाने की संभावना कम हो और इसके साथ ही विपक्ष के पास भी सरकार को कठघरे में खड़े करने के ठोस कारण न हों तो दोनों ही ओर से बेबुनियाद और अर्थहीन बातों का सिलसिला जनता को भहकाए रखने के लिए शुरू कर दिया जाता है।
यही हालत पूरे देश में आप कहीं भी चले जाईए देखने को मिल जाएगी। चाहे सड़कों का निर्माण हो, पेयजल की व्यवस्था करना हो, रोजगार के अवसर पैदा करना हो। सभी मामलों में ऐसा लगता है कि हम आजादी के बाद से केवल चींटी की चाल चले हैं जबकि आबादी हाथी के आकार के समान बढ़ी है।
विकास की बात क्यों नहीं होती?
असल में हमारे देश में आजादी के बाद गरीबी का ढांचा खड़ा कर दिया गया है जिसे बनाए रखने में सामाजिक गैर बराबरी को नींव की तरह इस्तेमाल किया गया और उसकी जड़े इतनी गहराई तक जमा दी गयी कि उनके उखड़ने की कोई संभावना दूर दूर तक नजर नहीं आती। इसमें किसी दल या उनके नेता की कोई दिलचस्पी भी इसलिए नहीं है कि सामाजिक अन्याय और आपसी बिखराव के बल पर ही उनकी राजनीति और सत्ता टिकी रहती है।
ऐसी स्थिति में सामान्य नागरिक के पास केवल एक ही विकल्प रह जाता है कि वह अपने इंसान होने की पहचान करे, अपना सम्मान करने की आदत डाले और यह समझने की प्रक्रिया अपनाए कि उसके हित में क्या है और क्या नहीं, मतलब कि कोई कितना भी बहकाए, जब तक उसकी कसौटी पर खरा न उतरे, कोई बात स्वीकार न करे। उसे अपनी सोच बदलनी ही होगी, इसके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है।
कवि घूमिल
9 नवम्बर को हिन्दी के प्रतिष्ठित कवि और नई कविता के संवाहकों में से एक सुदामा पाण्डेय धूमिल का जन्मदिन है। वे ऐसे कवि थे जिनकी रचना ‘कल सुनना मुझे‘ को मरणोपरांत साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उनकी एक रचना के कुछ अंश :
मोचीराम
रॉपी से उठी हुई आंखों ने मुझे
क्षण-भर टटोला
और फिर
जैसे पतियाये हुए स्वर में
वह हंसते हुए बोला
बाबूजी सच कहू-मेरी निगाह में
न कोई छोटा है
न कोई बड़ा है
मेरे लिये, हर आदमी एक जोड़ी जूता है
जो मेरे सामने
मरम्मत के लिए खड़ा है
और असल बात तो यह है
कि वह चाहे जो है
जैसा है, जहां कहीं है
आजकल
कोई आदमी जूते की नाप से
बाहर नहीं है
फिर भी मुझे ख्याल है रहता है
कि पेशेवर हाथों और फटे जूतो के बीच
जिस पर टांके पड़ते हैं
जो जूते से झांकती हुई अंगुली की चोट छाती पर
हथौडे की तरह सहता है
धूमिल की अन्तिम कविता
शब्द किस तरह
कविता बनते हैं
इसे देखो
अक्षरों के बीच गिरे हुए
आदमी को पढ़ो
क्या तुमने सुना कि यह
लोहे की आवाज है या
मिट्टी में गिरे हुए खून
का रंग।
लोहे का स्वाद
लोहार से मत पूछो
घोड़े से पूछो
जिसके मुहं में लगाम है
भारत
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