शुक्रवार, 18 अक्टूबर 2019

बैंक की नीति और नियत से जुड़ा है खातेदारों का भरोसा









बैंक से पैसा गायब हो जाने, अपना ही रुपया निकाल पाने की बेबसी और अपना तथा परिवार का छोटा मोटा खर्च चलाने को भी जेब में कुछ हो तो दिल हिल जाता है। पंजाब महाराष्ट्र सहकारी बैंक के खाताधारी बिना किसी अपराध के जो सजा भुगत रहे हैं, वह बैंकिंग व्यवस्था पर कलंक तो है ही, साथ में सरकार और प्रशासन की कमजोरी या मिलीभगत को भी उजागर करने के लिए पर्याप्त है।


एक उदाहरण देना काफी होगा। सन् 2001 में माधवपुरा मर्कंटायल कोआपरेटिव बैंक में जबरदस्त घोटाला हुआ था और उसके 45000 जमाकर्ताओं को पिछले वर्ष यानी सन् 2018 में यह आश्वासन मिला है कि उन्हें उनका पैसा वापिस मिल जाएगा। क्या पीएमसी के खाताधारियों का भी यही हश्र होने वाला है, यह सोचकर ही डर लगने लगता है।


ग्राहक की मानसिकता

असल में जब सहकारी बैंकों की शुरुआत हुई थी तो उन्होंने जनता को लुभाने के लिए दूसरे बैंकों से ज्यादा ब्याज देने की पेशकश की और थोड़ी सी अधिक कमाई के लालच में लोग अपनी बचत इन बैंकों में जमा कराने लगे।


इसमें उनकी कोई गलती नहीं क्योंकि हरेक अपनी रकम को बढ़ता हुआ देखना चाहता है और एक दो प्रतिशत ब्याज अधिक मिल रहा है तो वह उसे लेना चाहेगा। उसे यह भी बताया जाता है कि उसका धन सुरक्षित है और कानून के दायरे में है।


इसके साथ सहकारिता पर आधारित संगठनों को सरकारी प्रोत्साहन भी उन पर विश्वास करने का बड़ा कारण रहा है, हालाँकि सहकारिता आधारित संस्थान विशेषकर बैंक अधिक सफल नहीं हुए क्योंकि उनके संचालक निजी स्वार्थ के चलते और किसी कड़े कानून के होने से मनमानी करने के लिए स्वतंत्र हैं, अधिकतर नेता हैं और उनका उद्देश्य सेवा से ज्यादा मेवा खाना है।


इसके विपरीत जो सरकारी और निजी क्षेत्र के तथाकथित बड़े बैंक हैं, वे अपनी कम ब्याज की दरों को इस आधार पर जायज ठहराते हैं कि उनके खर्चे ज्यादा हैं, वे कम आबादी और दूरदराज के इलाकों में अपनी शाखायें नहीं खोल सकते और इसी तरह के तर्क दिए जाते हैं। विडम्बना यह है कि सरकार भी इसमें कुछ करने को अपनी मजबूरी बताती है और ग्राहक सहकारी बैंकिंग व्यवस्था पर भरोसा कर लेता है।


अब बारी आती है इन सहकारी बैंकों की नीति और नियत की, जिस पर उनके मालिकों का अधिकार होता है, सहकारिता का मुखौटा लगाकर वे कानून की धज्जियाँ उड़ाते हैं और जो असली मालिक अर्थात जमाकर्ताओं को लम्बे समय तक बहकाए रखते हैं और इस दौरान उनकी रकम ऐसे लोगों को ऋण देने के लिए इस्तेमाल करते हैं जिनका उद्देश्य ही यह होता है कि इसे उन्हें बैंक को लौटाना नहीं है।


सरकार सहकारिता को बढ़ावा देने के नाम पर हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती है और इसलिए भी कोई सख्त कदम नहीं उठाती क्योंकि इन सहकारी बैंकों के कर्ताधर्ता दबंग राजनीतिज्ञ होते हैं और सत्ता पर उनकी पकड़ मजबूत होती है। ऐसे में ये बैंक दिवालिया हो जाते हैं तो भी ग्राहक को केवल एक लाख रुपए तक की बीमा राशि मिल सकती है चाहे उसका कितना भी पैसा जमा हो।


कहते हैं कि वक्त सभी तरह के घाव भर देता है। जैसे जैसे समय बीतता जाता है, लोग अपने साथ हुए अन्याय को भूलने लगते हैं और इस प्रकार धोखा, छल, कपट, बेईमानी चलती रहती है। सरकार इन घोटालों को रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठाती क्योंकि उसे यह मालूम रहता है कि हमारे देश में इस की टोपी उसके सिर पहनाने की परम्परा है।


कोई बड़ा वित्तीय संस्थान, बैंक आगे कर दिया जाएगा जो घोटालेबाज सहकारी बैंक के निर्दोष खातेदारों का मसीहा बन जाएगा और इस तरह उनके जख्मों पर मरहम लगा दिया जाएगा। इस दौरान लम्बी कानूनी प्रक्रिया चलती रहेगी और जिन दोषियों को जनता को दिखाने के लिए पकड़ा गया है वे सबूत होने या ऐसा ही कोई कानूनी दाँव खेलकर बच जाएँगे।


नियंत्रण का अभाव

यह जानकर आश्चर्य होता है कि सहकारी बैंकिंग व्यवस्था पर सरकार से लेकर रिजर्व बैंक तक की कड़ी निगरानी नहीं होती। वैसे तो यह बात सरकारी और निजी बैंक हों या छोटे वित्तीय बैंक, सब पर ही लागू होती है कि उनके अपने नियम और नीतियाँ हैं और उन पर किसी का हस्तक्षेप या दबाब नहीं होता। 
इसका अर्थ यह हुआ कि जमाकर्ताओं को किसी भी तरह की सुरक्षा प्राप्त नहीं है और कोई ऐसा नियंत्रक नहीं है जो उनके धन की हिफाजत की गारंटी ले सके। यह कैसी अर्थव्यवस्था है जो इतनी बेलगाम है कि किसी को भी कुछ भी करने के लिए आजाद छोड़ देती है।


इससे समझ में आसानी से सकता है कि क्यों बरसों बरस घोटालेबाज बैंक के साथ लेनदेन में हेराफेरी करते रहने में कामयाब हो जाते हैं और जब उनके पाप का घड़ा फूटने के कगार पर होता है, वे गायब ही जाते हैं, विदेशों में ऐसी जगह चले जाते हैं जहाँ से उनके वापिस लाए जाने की कोई सम्भावना नहीं होती।


जमाकर्ताओं के लिए सावधानी


सरकार और रिजर्व बैंक के नियंत्रण का अभाव, कानून की खामियाँ और भ्रष्टाचार पर आधारित राजनीतिक व्यवस्था और केंद्र हो या राज्य, किसी से भी वक्त पर सहायता मिलने की वास्तविकता को देखते हुए उपभोक्ताओं को ही जागरूक होना होगा और इसके लिए वे कुछेक उपाय कर सकते हैं। कदाचित इससे उनके परिश्रम से अर्जित धन की सुरक्षा हो सके।


सबसे पहले अधिक ब्याज के लालच में पड़ें। अपना पैसा जमा रखने के लिए कम ब्याज दर होने पर भी उस बैंक में खाता खोलें जिसकी अधिक से अधिक शाखाएँ हों, उसकी काम करने की प्रणाली पारदर्शिता से पूर्ण हो और वह अपनी प्रतिष्ठा के लिए जाना जाता हो।


दूसरी बात यह कि अपनी रकम एक ही बैंक में फिक्सड डिपॉजिट में रखें,  अपने बचत खाते की समय समय पर जाँच करते रहें कि उसमें जमा या निकाली गयी राशि में कोई अनियमितता तो नहीं है। अगर कुछ गड़बड़ होने का संदेह हो तो उसका निवारण करने में समय गवाएँ, चाहे इसके लिए अपने काम से अवकाश ही क्यों लेना पड़े।


अक्सर बैंक अपनी ब्याज दरों में परिवर्तन करते रहते हैं, अपने ग्राहकों को नयी सुविधा देने की घोषणा करते रहते हैं, पुराने ग्राहकों के जागरूक होने का फायदा उठा कर वे उन्हें उन सुविधाओं से वंचित कर देते हैं, इस पर नजर रखें और इसका पता चलते ही तुरंत कार्यवाही करें और अगर खाता बंद भी करना पड़े तो कर दें।


आजकल नेट बैंकिंग और मोबाइल बैंकिंग का बोलबाला बढ़ रहा है, इसे जानिए, समझिए और अपनाइए। डेबिट और क्रेडिट कार्ड का इस्तेमाल करने में सावधानी बरतिए और इनका इस्तेमाल तब ही करें जब इनसे खरीदी वस्तु का  भुगतान करने की आपने पहले से व्यवस्था कर रखी हो क्योंकि इन पर जो ब्याज लगाया जाता है वह मुसीबत का कारण बन सकता है।


किसी भी आकर्षक छूट पर अमल करने से पहले उसकी जाँच कर लें कि कहीं वह आगे चलकर आपकी जेब पर भारी पड़ने वाली तो नहीं है, सस्ती वस्तु महँगे दाम पर तो छूट के लालच में नहीं खरीद रहे और कोई भी खरीदारी करते समय अपने बैंक खाते या कार्ड का विवरण गोपनीय रखें क्योंकि धोखे की शुरुआत यहीं से होती है।


(भारत)


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें