शुक्रवार, 3 मई 2019

दब्बूपन और हीनभावना जीवन भर ढोने के लिए नहीं है








दबाव का अहसास



आज विश्व में इस बात पर चिंता व्यक्त की जा रही है कि बढ़ती उम्र अर्थात बचपन से युवा होने तक की पीढ़ी एक ऐसे दौर से गुजर रही है जो या तो भावनाओं के कुंठित होने के कारण हीनभावना से लेकर अनेक मानसिक बीमारियों का शिकार हो रही है या फिर उग्र, हिंसात्मक व्यवहार के कारण अपराधी बनती जा रही है। यह समस्या भारत जैसे विकासशील देश के लिए और भी विकट है क्योंकि विकसित देशों की कतार में आने के लिए यह केवल रुकावट है बल्कि पीछे धकेलकर पिछड़े देशों की पंक्ति में भी फिर से ले जाकर खड़ा कर सकती है। इसकी वजह यह है कि विकसित और विकासशील होने के बीच जो अंतर है उसे समझने की भूल अक्सर माता पिता से लेकर देश के जो कर्णधार हैं, उनसे नीतियाँ बनाने तक में हो जाती है।


इसलिए जरूरी हो जाता है कि भारत को युवा देश कहने और उन्हें भविष्य का नायक बनाने की घोषणा करने वाले नेताओं से लेकर युवाओं के माता पिता और अभिभावक तक इस बारे में पहल करें और ऐसे इंतजाम करें जिससे यह सम्भव हो सके।


सबसे पहले यह बात आती है कि परिवार की तरफ से तरह तरह का दबाव जो आम तौर से उनकी पढ़ाई लिखाई, कम नम्बर लाने पर प्रताड़ना, दोस्तों से मेलजोल खानदान की हैसियत के मुताबिक रखना, पोशाक, उठने बैठने से लेकर चलने फिरने तक की हिदायतें देते रहना और आजकल सोशल मीडिया और स्मार्ट फोन के इस्तेमाल पर नसीहत करना और सबसे ज्यादा उनकी सुरक्षा के बहाने सब जगह उनके साथ जाने की जिद करना जैसी बातें हैं जो युवाओं को विद्रोह करने के लिए उकसा सकती हैं या हीनभावना का शिकार बना सकती हैं।


युवाओं में कुंठा पनपने का एक कारण यह भी होता है कि परिवार या रिश्तेदार और उनके मिलने जुलने वाले युवाओं पर अपनी धोंसपट्टी जमाते रहते हैं और उनकी किसी बात का उन्होंने जवाब दे दिया तो फिर उन्हें बदतमीज, आवारा, अहसानफरामोश कहकर उनका अपमान करने तक से नहीं चूकते।


इन सब बातों का परिणाम यह होता है कि युवा, लड़का हो या लड़की, एक ऐसे अपराधबोध से ग्रस्त होता जाता है जो उसने किया ही नहीं होता। उसके अंदर आत्मविश्वास की कमी होने लगती है और यह धारणा बनती जाती है कि कुछ भी कर लो, इन्हें खुश नहीं किया जा सकता वह चोरी छिपे और अकेला होने पर रोने लगता है और अगर यह सिलसिला लम्बा खिंच गया तो यह रोना उसका जिंदगी भर पीछा नहीं छोड़ता।
बड़े होने पर एक बार असफल होने पर भी वह खुद को कसूरवार मानने लगता है और उसके अंदर हिम्मत की ऐसी कमी होने लगती है कि मामूली से मामूली बात तक उसे तोड़ने से लेकर डिप्रेशन और फिर आत्महत्या का रास्ता दिखाने के लिए काफी होती है।


युवा वर्ग का पोषण



जो आज विकसित देश कहलाते हैं, उन्होंने अपनी विकासशील अवस्था में ही इस बात को समझ लिया था और युवाओं के पालन पोषण, उनकी शिक्षा तथा उन्हें तनाव से बचाए रखने के लिए ऐसी कानूनी और सामाजिक व्यवस्थाएँ लागू कीं कि वहाँ का युवा वर्ग अपने को सक्षम और अपनी पहचान स्वयं बनाने की दिशा में अग्रसर हो गया।



हमारे यहाँ भी जिन परिवारों में इस तरह का माहौल मिला, उनके युवाओं को हरेक क्षेत्र में आगे बढ़ते हुए देखा जा सकता है, परंतु दुर्भाग्य यह है कि इनकी संख्या सम्पूर्ण युवा वर्ग के मुकाबले बहुत ही कम है। इसका नतीजा यह होता है कि विशाल संख्या में युवा वर्ग शारीरिक और मानसिक रूप से इतना परिपक्व नहीं हो पाता कि वह अपना अच्छा या बुरा समझ सके, बस झुंड की तरह जहाँ हाँक दिया , चल पड़ता है।


हमारे देश के युवा वर्ग की यह कितनी खतरनाक स्थिति है कि वह बिना काम किए, मुफ्त में कुछ मिल जाने और बिना योग्यता के पद, नौकरी पाने के बारे में सोचने ही नहीं लगता बल्कि हक समझने लगता है, यह हालत उसे छीनाझपटी, छलकपट से लेकर चोरी करने तक के लिए उकसाती है।


असल में हमारे स्वाभाविक गुणों में जहाँ एक ओर प्राकृतिक गुण होते हैं, वहाँ पालन पोषण से बना स्वभाव भी होता है जो किसी के भी व्यक्तित्व का निर्धारण करता है। यदि कोई अपनी संतान को सामान्य बुद्धि और कौशल का होने पर भी असाधारण या लाखों में एक कहता है और उसे अपने जैसे दूसरों के साथ उठने बैठने या घुलने मिलने से रोकता है तो ऐसा व्यक्ति बड़े होने पर अपने को अलग थलग और अकेला पाता है और ज्यादातर हँसी का पात्र बनता है। वह समझता है कि उसे सब जगह इज्जत और सम्मान मिलना चाहिए, इस आधार पर वह हमेशा इस डर में जीता रहता है कि कोई उसकी जगह तो नहीं ले लेगा।


जो लोग अपने बचपन और युवावस्था में हीनभावना या श्रेष्ठभावना का शिकार हुए रहते हैं, वे जीवन भर इन भावनाओं की कीमत चुकाते रहते हैं। बचपन की निर्भरता बड़े होने तक वयस्क होने की आजादी में बदल जाती है। यह जो समाज में युवा वर्ग का ड्रग्स से लेकर आधुनिकता के नाम पर शारीरिक सम्बन्धों में खुलेपन का इजहार दिखाई देता है वह इसी बात का परिणाम है कि नैतिक मूल्यों में निरंतर गिरावट और भ्रष्ट आचरण को ही आगे बढ़ने की सीढ़ी मान लिया गया है।
जहाँ तक हीनभावना का सम्बंध है यह कुछ युवाओं पर इतनी अधिक हावी हो जाती है कि  उनके स्वाभाविक गुणों को पनपने नहीं देती, उन्हें अत्यधिक शर्मीला बना देती है, वे जिंदगी को ढोने जैसी हालत में जाते हैं और असफल होने का डर इस कदर हावी हो जाता है कि कोशिश करना ही छोड़ देते हैं। दूसरों की कही मामूली बात को भी दिल से लगा लेते हैं, अपमानित महसूस करते हैं और हद से ज्यादा भावुक हो जाते हैं।


इसी तरह श्रेष्ठ भावना से ग्रस्त व्यक्ति अपनी सही आलोचना भी नहीं सुनना चाहते हैं, अपने आसपास वही देखना सुनना चाहते हैं जो उन्हें पसंद हो, इसके विपरीत कुछ भी होने पर भला बुरा, मार पीट करते हैं हमेशा अपनी तारीफ सुनना चाहते हैं और जब यह नहीं मिलती तो दुःखी होने से लेकर मारामारी करने और हिंसात्मक व्यवहार तक करने लगते हैं। दूसरों की आलोचनाओं का इतना डर लगता है कि घर से बाहर नहीं निकलते, मिलना जुलना छोड़ देते हैं और अकेलापन ओढ़ लेते हैं जिसका अंत कभी कभी बहुत भयावह होता है।



भविष्य का संकेत


यह कोई डराने की बात नहीं है बल्कि वास्तविकता है कि हमारी युवा पीढ़ी में भी दो वर्ग हो गए हैं, एक है राजनीतिक परिवारों से निकला सम्पन्न युवा वर्ग जिसे विरासत में वह सब कुछ मिल गया जिसे पाने के लिए भली भाँति शिक्षित होने, मेहनत करने और अपने बल पर सामर्थ्य हासिल करने की जरूरत थी। अपने परिवार में ताकत और सत्ता के नशे का स्वाद वह बचपन में ही ले चुका होता है। इसके फलस्वरूप वह अपने आसपास चापलूसों की भीड़ रखने लगा और देश के संसाधनों पर अपना जन्मजात अधिकार समझने लगा। इसी कड़ी में आर्थिक रूप से सम्पन्न परिवारों के युवा हैं जो पैसे की ताकत देखते देखते ही बड़े हुए हैं और पैसे के बल पर सब कुछ, चाहे किसी किसी इज्जत ही क्यों हो, खरीदने में सबसे आगे रहते हैं।


इसके विपरीत बहुसंख्यक युवा वर्ग वह रहा जो गरीब और अनपढ़ है और जिसकी झोली में कुछ भी डाल दिया जाए तो वह स्वीकार कर लेता है। इस वर्ग में से बहुत थोड़े से युवा वे निकले हैं जो अपनी शिक्षा और सामर्थ्य से आगे बढ़ने में सफल तो हुए लेकिन उनका रास्ता रोकने के लिए सम्पन्न वर्ग सभी तरह के उपाय करने से नहीं चूका।




अब यदि उसे आगे बढ़ना है और देश को विकसित देशों की पंक्ति में खड़ा होना है तो सारा दारोमदार इसी वर्ग पर है। उसे ही पहले वर्ग को पीछे छोड़ते हुए अपने उद्देश्य को पाना होगा। इसके लिए उसे सबसे पहले हीन या श्रेष्ठ भावना के चक्कर में पड़कर अपने से ही वार्तालाप करने की प्रक्रिया को अपनाना होगा। उसे जूझारू बनकर असफल होने के डर को अपने मन से निकालना होगा। जो बीत गया उसे भूलकर वर्तमान में जीने की आदत को अपनाना और अपनी लक्ष्य सिद्धि के लिए सही वक्त पर अपनी बात कहने और अधिकतर खामोश रहने का मंत्र जपना होगा।

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