शुक्रवार, 6 सितंबर 2019

मंदी नहीं बेईमानी की नजरबंदी है, नीयत साफ होनी चाहिए








अर्थव्यवस्था चौपट हो रही है, मंदी आ रही है, गिरावट का दौर है, इतना भी सच नहीं है। एक आम आदमी जब बड़े बड़े अर्थशास्त्रियों, तथाकथित विद्वानों के कथन और मीडिया में बहस सुनता है तो अक्सर चकरा जाता है कि किस पर यकीन करे और किस पर नहीं। सरकार कहती है तरक्की की राह पर देश तेजी से दौड़ रहा है और बस कुछ ही समय में बड़े बड़े देशों से न केवल बराबरी करने लगेंगे बल्कि कई देशों को तो पीछे छोड़ देंगे। इसके उलट कुछ लोग इस तरह की बातें करते हैं कि मानो देश रसातल में जा रहा है और अंधेर नगरी चौपट राजा की कहावत सिद्ध हो रही है। परंतु ऐसा नहीं है और अगर असलियत समझी जाए तो बात कुछ और ही है।



भूतपूर्व प्रधान मंत्री और अर्थशास्त्री डॉक्टर मनमोहन सिंह ने जब ऑटो सेक्टर में बिक्री में हो रही गिरावट पर मंदी का ठीकरा फोड़ा तो लगा कि वाकई में ऐसा है, लेकिन थोड़ा दिमाग पर जोर डालने पर लगा कि गाड़ियों की बिक्री कम होने के दूसरे ही कारण है।


मान लीजिए आप अच्छे खासे बजट की गाड़ी खरीदने जाते हैं और पता करते हैं कि उसकी बाजार में कीमत क्या है तो हैरान हो जाते हैं कि जो नई गाड़ी अभी अभी शोरूम से खरीदकर लाए हैं उसकी कीमत बाहर आते ही दस से बीस प्रतिशत कम हो जाती है। क्या इसका मतलब यह नहीं है उस गाड़ी की कीमत वही है जो बाहर लाने पर हो गई है और कार निर्माता ने ज्यादा कीमत वसूली है। आप ने अगर गाड़ी खरीद ली तो पछताते हैं और नहीं खरीदी तो मुफ्त में चूना लगने से बच गए हों, ऐसा महसूस करते हैं।


पिछले कुछ समय से ओला, उबर, मेरु जैसी कम्पनियाँ वाजिब किराए पर सभी तरह की गाड़ियाँ उपलब्ध करा रही हैं, आप कहीं भी जाने के लिए इन्हें बुक कर सकते हैं, न ड्राइवर का झंझट, न पार्किंग की किल्लत, आराम से गाड़ी के मालिक की तरह अपने गंतव्य तक पहुँच जाइए। अब हुआ यह कि उन लोगों को गाड़ी खरीदने की जरूरत कम होने लगी, और यही नहीं अपनी गाड़ी अगर है तो उसे घर पर खड़ी रहने देकर इन वाहनों से आना जाना आसान लगने लगा, ऐसे में नई गाड़ी की जरूरत ही नहीं लगती।


इसी के साथ साथ आम आदमी के आने जाने के लिए इलेक्ट्रिक रिक्शा अब छोटे बड़े शहरों और ग्रामीण इलाकों तक पहुँच रहा है और हाथ से रिक्शा खींचकर सवारी ले जाने का अमानवीय काम और साईकल रिक्शा की कमरतोड़ मेहनत करने वाले अब ईरिक्शा खरीदकर अपनी रोजी रोटी कमाने लगे हैं तो इससे अब बसों में लटकने या तिपहियों की मनमानी और उनसे निकलते धुएँ से बचने का रास्ता भी निकल आया है। अगर कोई उद्यमी जगह जगह चार्जिंग स्टेशन और सस्ती तथा टिकाऊ बैटरियाँ उपलब्ध कराने का व्यापार कर ले तो इसमें आमदनी और रोजगार की बहुत सम्भावनाएँ हैं।



जब से इलेक्ट्रिक गाड़ियों के बहुतायत से आने की चर्चा शुरू हुई है तो प्रदूषण फैलाने वाली पेट्रोल, डीजल की गाड़ियों को न खरीदने का मन हो रहा है कि कुछ इंतजार करने में कोई हर्ज नहीं, अगर गाड़ी खरीदनी ही है! इसलिए पैसेंजर गाड़ियों की बिक्री में कमी होने से मंदी आने की कोई सम्भावना नहीं है क्योंकि अब उन वाहनों की बिक्री दस प्रतिशत से ज्यादा हो रही है जो माल, सवारियाँ और सभी तरह की अन्य सामग्री ढोने के काम आती हैं, यहाँ तक कि खेतीबाड़ी में काम आने वाले भी, जैसे बस, ट्रक, लॉरी, ट्रैक्टर आदि।


अर्थशास्त्र के सिद्धांत माँग और पूर्ति के आधार पर ही कोई व्यापार टिकता है, इसलिए जब अब पुल, राजमार्ग, हर जगह सड़कें और यहाँ तक कि देहात में घर और शौचालय तथा दूसरी जरूरत की चीजें बन रही है तो फिर मालवाहक गाड़ियों की बिक्री तो बढ़ेगी ही, इसलिए ऑटो सेक्टर में आई गिरावट तो मंदी का पैमाना हो नहीं सकती।
असल में आज जरूरत लक्जरी पैसेंजर गाड़ियों की नहीं बल्कि आधुनिक और संचार साधनों से लैस बढ़िया बसें चाहियें जो टूरिस्ट से लेकर हम आम भारतियों को भी आरामदायक यात्रा का सुख दे सकें और खटारा तथा धुआँ उगलती बसों से निजात दिला सकें। इसी तरह ट्रक, ट्रैक्टर और खेतीबाड़ी के काम आने वाले यंत्र और वाहन चाहियें जिनकी पूर्ति माँग से कम होने के कारण ओवरर्लोडिंग और उत्पादन में कमी आना लाजिमी है।


मंदी और महँगाई 

असल में आम आदमी के लिए मंदी की समझ यह है कि आप ढेर सारे पैसे लेकर बाजार जाएँ और सामान इतना सस्ता मिलने लगे कि काफी कुछ खरीदने पर भी पैसे बच रहें और महँगाई यह है कि चीजें इतनी महँगी हैं कि जेब भी खाली हो गयी और जरूरत का सामान भी खरीद न पाए।

यह जानकर कि अब जो लोग अमीर हैं और पैसा लुटाने की हद तक खर्च करने में कभी दोबारा नहीं सोचते थे उन्हें भी अब चीजें महँगी लगने लगी हैं और वे भी दस रुपए के दो केलों के आठ सौ रुपए देने पर शिकायत करने लगे हैं तो एक आदमी को जरूर तसल्ली महसूस हुई होगी कि चलो अब इन्हें भी अपनी जेब कटती महसूस हो रही है क्योंकि ऐसे ही लोगों की वजह से ही उसे बाजार में हर चीज के कई गुणा दाम देने पड़ते हैं और वह सस्ती से सस्ती चीज ढूँढता रहता है क्योंकि उसकी जेब में सिर्फ मेहनत के पैसे होते हैं।


जब मॉल में दस रुपए की पानी की बोतल के अस्सी रुपए और बीस रुपए के मक्का के दानों के दो सौ रुपए लिए जाएँ तो आम आदमी उन्हें न खरीदने में ही समझदारी दिखाने लगा है। अब जब बाजार में बहुत कम लागत के सामान के बीस गुना दाम वसूले जाएँगे तो उनकी बिक्री में कमी आना तो अनिवार्य है तो फिर यह महँगाई कहाँ हुई , यह तो सरासर बेईमानी और मुनाफाखोरी है जिस पर अंकुश लगाने का काम उपभोक्ता और सरकार बड़ी आसानी से कर सकती है। 


वास्तविकता यह है कि चीजों के दाम उन लोगों की वजह से ज्यादा बढ़ते हैं जिनके पास रिश्वतखोरी, कालाबाजारी और टैक्स चोरी का अकूत धन होता है और उन्हें किसी भी चीज का कोई भी दाम देने का बुरा नहीं लगता क्योंकि यह मेहनत से कमाया हुआ धन नहीं होता। विलासिता से लेकर आवश्यक वस्तुओं की बिक्री में कमी आने का एक कारण यह भी है कि अब इन सब बुराइयों की काट होने लगी हैं और बड़े बड़ों तक को इस तरह से की गई कमाई के नतीजे के तौर पर जेल के दरवाजे उनके लिए खुलते नजर आ रहे हैं।


डर के बिना प्रीत नहीं 

यह डर ही है जो कानून का पालन करना सिखाता है और उलटी चाल चलने वालों को सीधे रास्ते पर लाने का काम करता है। एक किस्सा है। हाल ही में भोपाल और लखनऊ में जाना हुआ और दोनों जगह अलग अलग सरकारी दफ्तर के साहबों की करतूत सामने ऐसी आई कि कानून का डर क्या होता है यह दिखाई दिया। इन दोनों ही स्थानों से सरकारी खजाने से कैसे बिना काम के बिलों के लंबे चौड़े भुगतान हो जाते हैं, इसके अनेक उदाहरण मिले।


अफसर और सप्लायर आधी आधी बंदरबाँट कर के कागजों में काम दिखाकर कैसे लूटपाट करते रहे हैं, इसके किस्से कोई नए नहीं हैं लेकिन अब अफसरशाही को कानून का डर महसूस होने लगा है जिसे कुछ लोग आर्थिक आतंकवाद के रूप में परिभाषित करने लगे हैं। इसलिए यह डर अच्छा है क्योंकि कम से कम इसी वजह से लोग ईमानदार हो सकेंगे और अपराध करने के कलंक से बचे रहेंगे।


डर का ताजा उदाहरण यह है कि जब से यातायात नियमों में बदलाव कर भारी जुर्माने का प्रावधान किया गया है और इस पर अमल भी हो रहा है तो लोग अपनी आदतों में सुधार करने को मजबूर हो रहे हैं। इन नए नियमों से हादसों के कम होने का पता तो कुछ समय बाद लगेगा पर आम आदमी  को जरूर सड़क पर पैदल चलने या वाहन का सही इस्तेमाल करने में सहूलियत होगी जो अब तक गाड़ियों की अंधाधुँध रफ्तार से पीड़ित रहता था।


मंदी, महँगाई, अर्थव्यवस्था, शेयर बाजार , इंडेक्स , निफ्टी जैसे भारी भरकम शब्दों की व्याख्या समझने के चक्कर में पड़ने से बेहतर यह होगा कि सामान्य व्यक्ति अपने घर की आमदनी और खर्चों का तालमेल बिठाना सीख ले और नौकरी, व्यापार, कारोबार, उद्यम की बढ़ौतरी तथा सरकारी योजनाओं का कैसे लाभ उठा सकता है, यह सोचने में अपनी ऊर्जा लगाए। यह जो राजनेता और उनके दल हैं वे उसे भरमाने में कोई कसर नहीं रखेंगे बशर्ते कि वह जागरूक न हो।

(भारत)

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