शुक्रवार, 27 सितंबर 2019

बापू का चित्र करन्सी पर और नाम का राजनीतिक फायदा-क्या यही उनकी विरासत है?









इस बात का बहुत शोर काफी समय से सुनने में आ रहा था कि बापू गांधी की एक सौ पचासवीं जंयंती आने वाली है जो बड़ी धूमधाम से देश भर में मनाई जाएगी।

सोचने का क्या है, जो पीढ़ी उनकी मृत्यु के आसपास पैदा हुई थी, वह सोचने लगी कि शायद इस तरह के आयोजन हों जिनमें गांधीवादी विचारधारा का प्रचार प्रसार हो,जनमानस को अनेक कार्यक्रमों के जरिए बताया जाएगा कि महात्मा गांधी आखिर किस मिट्टी के बने थे जो अंग्रेज भी उनसे घबराते थे और उनके अचूक अस्त्र अनशन की बात सुनते ही उनके हाथ पाँव फूल जाते थे। उनकी कथनी और करनी में कोई अंतर न होने की बात वर्तमान मीडिया में चर्चा का विषय होती और टी वी पर इस बारे में बहुत कोशिश करने पर भी सच्ची बात कहने को कोई नहीं मिलता तो गांधीवाद को अबूझ पहेली समझकर रद्दी की टोकरी में डालने की नौबत आ जाती।


गांधी एक विश्व पुरुष थे और दुनिया भर में उनकी ख्याति इस बात से थी कि उन्होंने यह सिद्ध कर दिया था कि सत्य और अहिंसा के बल पर संसार में शांति और सदभावना को स्थापित किया जा सकता है। वे जिस बात को सत्य और सही मानते थे, बिना यह परवाह किए कि दूसरे भी क्या वैसा ही मानते हैं, अपने सत्य को मनवाने के लिए कड़ी आलोचना और फिर जिद का सहारा लेते थे और अक्सर जो दोषी होता था, उनसे क्षमा माँग लिया करता था और उनका अनुयायी बन जाता था।


गांधी जी को राष्ट्रपिता कहा गया और जो पूरे देश को मान्य था, लेकिन अभी दुनिया के सबसे ताकतवर कहे जाने वाले देश अमेरिका के राष्ट्राध्यक्ष डॉनल्ड ट्रम्प ने प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को भारत का पिता कह दिया तो यह बात जाँचने परखने का विषय हो गयी कि क्या वे इस कसौटी पर खरे उतरते हैं?
यह समझने के लिए कल्पना कीजिए कि यदि आज बापू जीवित होते तो क्या करते या क्या होता?


चलो गाँव की ओर 

महात्मा गांधी मानते थे और अपने कामों से उन्होंने यह साबित भी कर दिखाया कि भारत को यदि शक्तिशाली और सम्पन्न बनना है तो शहरों से ज््यादा ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए कल कारखाने, उद्योग धंधे और बिजली, पानी, सफाई का इंतजाम देहाती इलाकों और दूरदराज के क्षेत्रों में  करना होगा क्योंकि अगर किसान भूखा और गरीब है, गाँव देहात में रोजगार तथा शिक्षा के साधन नहीं हैं तो भारत को विश्व का सिरमौर बनाने का सपना साकार करने की भावना को तिलांजलि देनी होगी।


आजादी के बाद से अब तक गाँव देहात की दुर्दशा की कहानी कहते ग्रामवासी, किसान, खेत मजदूर अपना घरबार छोड़कर उसी तरह शहरों में पलायन करते रहे हैं जिस प्रकार शहरों में पढ़े लिखे नौजवान इस मौके की तलाश में रहते हैं कि किसी तरह अमेरिका और दूसरे विकसित देशों में उनकी नौकरी का जुगाड़ हो जाए और वे हमेशा के लिए वहाँ बस जाएँ।


वे वहाँ उन देशों की तरक्की में योगदान दे रहे हैं और हमारे नेता उन्हें वापिस लाने के प्रलोभन दे रहें हैं लेकिन देश में उनकी योग्यता के मुताबिक संसाधन न होने से वे आना तो दूर, ऐसा सोचने से भी डरते हैं क्योंकि जो अप्रवासी देश के लिए कुछ करने की भावना से लौट भी आए थे तो उनकी यहाँ जो बेकद्री हुई उससे उन्हें नसीहत मिल गयी कि भारतीय नेताओं के आह्वान को एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल देने में ही उनकी भलाई है।


यदि बापू होते तो ग्रामीण भारत में लघु, मध्यम और बड़े उद्योगों का जाल बिछा होता, शहरों से लोग गाँव की ओर पलायन करते, किसान के पास खेतीबाड़ी के आधुनिक संसाधन और नवीनतम टेक्नॉलोजी होती, खाद, बीज, सिंचाई और बिजली का समुचित प्रबंध होता। इसी के साथ वन विनाश की जगह वन संरक्षण होता, प्रदूषित वायु के स्थान पर साफ हवा में साँस लेते और स्वस्थ रहते।


बापू केवल एक बात से संतुष्ट होकर शाबाशी देते कि आजादी के बाद पहली बार देश में स्वच्छता का महत्व समझा गया और शौचालयों का देशव्यापी जाल बिछाने से ग्रामीण महिलाओं ने राहत की साँस ली और पुरुषों ने भी अपनी सोच बदली।


प्रजातंत्र बनाम भीड़तंत्र 

बापू अगर होते तो कभी प्रजातंत्र को भीड़तंत्र में नहीं बदलने देते और वह इसलिए कि वे राजनीति में नैतिक आचरण को पहले स्थान पर रखते, हो सकता है वे आज की चुनाव प्रणाली को ही नकार देते जिसमें भ्रष्ट होने पर भी  व्यक्ति चुनाव लड़कर जीत सकता है और ईमानदारी को ताक पर रखकर बेईमानी का बोलबाला कायम रख सकता है।


बापू क्योंकि आध्यात्मिक प्रकृति के भी थे, इसलिए वे राजनीति में चरित्र को अधिक महत्व देते, उनके लिए वही व्यक्ति नेता बनकर नेतृत्व करने के काबिल होता जो व्यवहार में सच्चाई को पहला स्थान देता, भ्रष्टाचार में लिप्त लोगों के लिए मंत्री, मुख्यमंत्री या प्रधान मंत्री बनना तो दूर, सांसद या विधायक बनना भी असम्भव होता।


आज तक नेता वही माना जाता रहा है जिसके पीछे समर्थकों की भीड़ हो अर्थात वोट बैंक हो, वह भ्रष्टाचार, अनैतिकता और गैरकानूनी कामों में लिप्त तथा सभी आरोपों से बच निकलने में सिद्धहस्त हो।


हो सकता है बापू भीड़तंत्र पर आधारित दलगत राजनीति पर प्रतिबंध लगा देते और नैतिकता की कसौटी पर खरे उतरने वाले दलों और व्यक्तियों को ही चुनाव लड़ने के योग्य मानने का विधान जारी करते और इस तरह वास्तविक प्रजातंत्र की स्थापना करने में सफल होते।


सत्याग्रह और उपवास 

बापू का सत्य के प्रति पूर्ण समर्पण भाव ही उन्हें इसके लिए सत्याग्रह करने और उसे सब की स्वीकृति के लिए अनशन करने और सभी साधनों से सत्य को स्थापित करने की प्रेरणा इसलिए देता था क्योंकि वे पहले उसे स्वयं अपनाते थे और अपने ऊपर प्रयोग करते थे, तब ही वे दूसरों से उसे मानने की अपेक्षा रखते थे।
उनके जीवन में लोभ, लालच, खुशामद, झूठ, फरेब, धोखाधड़ी और डर का कोई स्थान नहीं था, मृत्यु से तो तनिक भी भयभीत नहीं होते थे और चाहे कोई उनकी बात को न माने, वे कभी उसका बुरा नहीं मानते थे बल्कि उसे सत्य की तराजू पर रखकर तौलने के बाद ही अपना निर्णय करते थे।


बापू अगर होते तो वे आमरण अनशन के अपने अचूक हथियार से भ्रष्टाचार करने वालों, रिश्वतखोरों और अनैतिक काम करने वालों तथा असहाय लोगों पर अत्याचार करने वालों की नाक में नकेल डाले रखते और उन्हें तब तक क्षमा नहीं करते जब तक उनका हृदय परिवर्तन नहीं हो जाता।


यदि बापू अपने ऊपर गोलियाँ चलाने वाले के प्रहार से बच जाते तो एक बार उससे यह तो अवश्य पूछते कि क्या उसकी उनसे कोई व्यक्तिगत शत्रुता है, उनकी विचारधारा से असहमति है या वह किसी के कहने पर उन्हें मारना चाहता है? उन्हें उत्तर जो चाहे मिलता लेकिन इतना निश्चित है कि उसका हृदय परिवर्तन अवश्य हो जाता। बापू की यही विशेषता उन्हें महात्मा बनाती है कि वह दूसरे को बदलने के लिए प्रेरित करने से पहले स्वयं को उस साँचे में ढलते हुए देखते थे और तब सत्याग्रह या आंदोलन का रास्ता अपनाते। उन्हें इस बात की चिंता नही रहती थी कि वे सफल होंगे या नहीं, केवल कर्म करने पर यकीन करते थे।


इसके विपरीत यह भी हो सकता है कि यदि बापू जीवित होते तो उन पर पक्षपात करने, कानून के रास्ते में रुकावट डालने और धर्म तथा सम्प्रदाय का राजनीतिकरण करने वालों की बात न मानने पर राष्ट्रपिता के स्थान पर राष्ट्रद्रोही का तमगा लगा दिया जाता और उन्हें सलीब पर टाँग दिया जाता।


(भारत)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें