जैसा कि कहावत है कुछ चीजें ऐसी होती हैं जो ना तो निगलते बनती हैं और ना ही उगलते, ऐसा ही इन दिनों काफी जोर पकड़ रहे प्लास्टिक प्रदूषण से निबटने के बारे में हो रही बयानबाजी के बारे में कहा जा सकता है।
वास्तविकता यह है कि अभी तक यह तय नहीं हो सका है कि प्लास्टिक, जो एक प्रकार से जादुई पदार्थ है, के इस्तेमाल से क्या बचा जा सकता है? आज की परिस्थितियों में तो असंभव है क्योंकि यह जिंदगी में इस तरह घुलमिल गया है कि इस पर प्रतिबंध लग जाने की बात से ही घबराहट होती है।
ऐसा नहीं है केवल हम ही प्लास्टिक से होने वाले प्रदूषण से निजात पाने की अटकलें लगा रहे हैं, दुनिया भर में बड़े बड़े देशों से लेकर छोटे से छोटे देश में यह चर्चा का विषय है और सब ही इसके इस्तेमाल से होने वाले स्वास्थ्य पर खतरों और पर्यावरण के नुकसान से बचने की तरकीबें सोच रहे हैं। क्या इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि प्लास्टिक हमारी जीवन शैली, हमारे रहन सहन से लेकर खान पान तक से जुड़ गया है और कुछ ऐसा हो गया है कि इसके बिना ठीक उसी तरह नहीं रहा जा सकता जिस प्रकार हवा पानी के बिना नहीं रहा जा सकता।
प्लास्टिक का इस्तेमाल कहाँ नहीं होता, बोतल, ढक्कन, थैली, नली, पैकेट, पाउच, पैकिजिंग, कप प्लेट, अनेक तरह के पर्दे, शीट यानी कि अगर इन सब को मिलाकर देखा जाए तो हर चीज के साथ प्लास्टिक की जुगलबंदी है । अगर जितना भी प्लास्टिक है, एक साथ इस्तेमाल करें तो पूरी दुनिया को सात बार इससे लपेटा जा सकता है।
प्लास्टिक से दोस्ती
जब प्लास्टिक की यह महिमा है तो इस पर प्रतिबंध लगाने की बात सोचना भी बेमानी और हानिकारक है। इसके स्थान पर जरूरत इस बात की है कि प्लास्टिक से दोस्ती करने और इसके गलत इस्तेमाल अर्थात इसे जलाने, नदी, नालों और समुद्र में फेंकने से बचने के उपाय किए जाएँ तो यह न हमारे जीवन और न ही पर्यावरण के लिए खतरनाक होगा।
जिन देशों ने भी प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाने के लिए कानून बनाए, उनमें से अधिकतर के पास इस बारे में कोई आँकड़ा नहीं है कि कानून का नतीजा क्या निकला, मतलब यह कि वाहवाही के लिए कानून तो बना दिया लेकिन उस पर अमल इसलिए नहीं कराया जा सका क्योंकि प्लास्टिक इस्तेमाल करने से बचना नामुमकिन है।
हमारे देश में भी ऐसी ही गलती करने की घोषणा तो हो चुकी थी और स्वच्छता आंदोलन की तरह प्लास्टिक मुक्ति आंदोलन की शुरुआत होने वाली थी लेकिन अब इसे तीन साल यानी २०२२ तक के लिए टाल दिया गया है। बेहतर यह होता कि तीन साल का कोई ऐसा कार्यक्रम लागू करने की योजना जनता के सामने रखी जाती जिससे लोग प्लास्टिक से दोस्ती करने यानी उसके लाभदायक और रोजगार देने वाले पक्ष को अपनाते और इस तरह उसके दुष्परिणामों के प्रति जागरूक होते तथा आवश्यक सावधानी बरतते।
भारत सरकार के परिवहन मंत्री ने सड़क बनाने के लिए प्लास्टिक के इस्तेमाल को प्राथमिकता देते हुए इसके उपयोगी होने की गारंटी दे दी है। इसके विपरीत उपभोक्ता मंत्री इस पर रोक लगाने की वकालत कर रहे हैं। हमारे वैज्ञानिक प्लास्टिक प्रदूषण से बचने की टेक्नॉलोजी विकसित कर चुके है। हमारे ही देश में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनमें प्लास्टिक और दूसरे कचरे के पहाड़नुमा ढेर को सुंदर बगीचे में परिवर्तित कर दिया गया है।
ऐसी टेक्नॉलोजी है जो प्लास्टिक से होने वाले प्रदूषण से हमारी रक्षा कर सकती है। आज विज्ञान निरंतर रोजगार के नए नए साधन उपलब्ध करा रहा है। जरूरत केवल इतना भर जागरूक होने की है कि प्लास्टिक का इस्तेमाल करने के बाद वह हमारे जल स्रोतों तक न पहुँचने पाए, चाहे वे नदियाँ हों या विशाल समुद्र।
प्लास्टिक उद्योग अपने आप में बहुत उपयोगी और बड़ी तादाद में रोजगार पैदा कर सकने की विशेषता लिए हुए है। अक्सर आर्थिक संकट से जूझ रही नगर पालिकाओं, नगर निगम और दूसरी प्रशासनिक इकाइयों के लिए इस्तेमाल किए हुए प्लास्टिक से उद्योग लगाने पर काफी कमाई हो सकती है।
यह सच है कि प्लास्टिक को गलने के लिए सैंकड़ों साल चाहिएँ तो फिर हम उसे इतने समय तक बेकार पड़े रहने देने के बजाय उपयोग में क्यों न लाएँ , बस यही समझ का फेर है। प्लास्टिक के गुण जैसे कि वह सस्ता, टिकाऊ, कम वजन और हल्का होता है तो उन्हें अपनाएँ और प्लास्टिक को नेस्तनाबूद करने की बात न करें तो यह देश की अर्थव्यवस्था के लिए भी लाभकारी होगा और व्यक्तिगत समृद्धि का भी रास्ता बनेगा।
प्लास्टिक उद्योग विदेशी मुद्रा कमाने का भी बेहतरीन जरिया है, जो देश प्लास्टिक कचरे के निपटान की समस्या से परेशान हैं, हम उनके साथ व्यापार कर सकते हैं और अपने लिए आमदनी की साधन तैयार कर सकते हैं।
जो लोग यह समझते हैं कि प्लास्टिक से बनी चीजों का इस्तेमाल रोकने के लिए दूसरी सामग्रियों से उन्हें बनाया जाए तो यह कतई फायदे का सौदा नहीं है और केवल धन और ऊर्जा की बर्बादी है, हाँ शौक के तौर पर इन्हें बनायें तो कोई बुराई नहीं लेकिन यदि प्लास्टिक से बनी चीजों के विकल्प के रूप में इसे देखेंगे तो निराशा ही हाथ लगेगी।
योजनाओं की असफलता
असल में हमारे देश में ज्यादातर योजनाओं को लोक लुभावन होने के आधार पर बनाया और लागू किया जाता है। मिसाल के तौर पर स्वच्छ शौचालय बनाने की स्कीम बहुत उपयोगी होने के बावजूद जिन क्षेत्रों के लिए बेहद जरूरी थी, वहाँ पूरी तरह सफल नहीं हो पाई है।
हम कितना भी ढोल पीट लें लेकिन हकीकत यह है कि घर में शौचालय होने के बावजूद ग्रामीण अभी भी खुले में शौच करने जाते हैं। ऐसा नहीं है कि वे अपने शौक के कारण ऐसा करते हैं, बल्कि इसलिए करते हैं क्योंकि घर में जो शौचालय बना है उसका इस्तेमाल करने के लिए कई बालटी पानी चाहिए जबकि उनके पास दिन भर की जरूरत के लिए ही सिर्फ एक दो बालटी पानी ही उपलब्ध है और उसे भी लाने के लिए घंटों बर्बाद करने पड़ते हैं।
इसी के साथ गंदगी के निपटान के लिए जो डिस्पोजल प्लांट लगने चाहिए थे तो वह न होने से गाँव वाले क्यों अपने इलाके को बदबू से भरा बनाएँगे। गंदगी से खाद बनती है लेकिन उसे बनने में चार पाँच साल लगते हैं तो क्यों कोई दो गड्ढों वाला शौचालय बनाएगा ?
स्वच्छ शौचालय योजना केवल उन्हीं क्षेत्रों में कामयाब हुई है जहाँ पानी और डिस्पोजल प्लांट की सुविधा है। इन इलाकों में किसान को ऑर्गानिक खाद भी मिल रही है और गंदगी से छुटकारा भी तो फिर किसान घर के शौचालय से बनने वाली खाद का इंतजार क्यों करेगा।
आँकड़ों के आधार पर देश को खुले में शौच से मुक्त किए जाने की घोषणा तो की जा सकती है लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाए तो यह सही नहीं है। यही हाल तीन साल बाद देश को प्लास्टिक मुक्त करने की घोषणा का होगा, सरकार की चाल देखते हुए इसमें कोई संदेह नहीं है।
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