संसार के महान नीतिज्ञों कौटिल्य, कंफ्यूशियस और खलीफा हजरत अली ने अलग अलग शब्दों में एक ही बात कही है और जिसका निष्कर्ष यही है कि अगर धार्मिक, जातिगत और साम्प्रदायिक आधार पर किसी देश का शासन चलता है या चलाए जाने की कोशिश होती है तो वह कट्टारतावादी, आधुनिकता विरोधी और पूरी तरह से अवैज्ञानिक हो जाता है, जहाँ तर्क की कोई गुंजाईश नहीं होती, वैचारिक मतभेद का कोई स्थान नहीं होता और उसे तानाशाही के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता।
तरक्की का पैमाना
जो देश आज दुनिया के सिरमौर यानी तरक्की का पैमाना कहे जाते हैं जैसे अमेरिका तो उन देशों में शासन करने को साइंटिफिक मैनेजमेंट का नाम दिया गया। उनका मानना है कि धर्म, जाति, सम्प्रदाय किसी भी व्यक्ति का निजी या अधिक से अधिक पारिवारिक मामला हो सकता है और वे मिलकर चाहे तो अपने अपने समाज बना सकते हैं और उसकी भलाई के लिए आपस में जुड़ सकते हैं। इससे आगे अगर वे जाते हैं तो वह विभिन्न धर्मों, जातियों और सम्प्रदायों के बीच टकराव और कभी कभी खूनी संघर्ष का भी कारण बन जाता है।
जो देश पूरी तरह धर्म आधारित हैं, विशेषकर इस्लाम तो वहाँ किसी दूसरे धर्म का पालन करने वालों को अपने धर्म से सम्बंधित कोई भी आयोजन, पूजा, अर्चना करने की केवल इजाजत ही नहीं दी जा सकती बल्कि ऐसा करने वालों को मौत की सजा भी दी जा सकती है जैसे कि साउदी अरेबिया जैसे कट्टर इस्लामिक देश में होता है वहाँ काम करने वाले किसी हिंदू को अगर हनुमान चालीसा का पाठ करना है तो वह मन में तो कर सकता है लेकिन उसकी कोई पुस्तक या हिंदू देवी देवता की मूर्ति रखने पर दण्ड मिल सकता हैे ।
जिन देशों में धर्म पहले नम्बर पर आता है उनकी हालत देखकर कहा जा सकता है कि वे आज भी दकियानूसी मान्यताओं, पिछड़ेपन और गरीबी के चंगुल में फँसे हुए हैं और जिन देशों ने धार्मिक आधार को शासन का जरिया नहीं बनाया, वे खुशहाली के अलंबरदार कहे जाते हैं। अपने पड़ौसियों पाकिस्तान और बांग्लादेश की ही तुलना कर लीजिए। पाकिस्तान पर इस्लामी आकाओं का कब्जा है, जो कट्टरपंथी हैं उनके हाथ में शासन की बागडोर है तो वहाँ विकास के नाम पर शोषण करने और दहशतगर्दों का बोलबाला है।
इसके विपरीत बांग्लादेश के बढ़ते विदेशी मुद्रा कोष और प्रगति की दर आश्चर्य पैदा करती है।
आधुनिक युग की जरूरतों को समझते हुए जिन देशों ने धर्म को शासन से नहीं जोड़ा और वैज्ञानिक आधार को उन्नति करने का रास्ता बनाया, वे आज आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से सम्पन्न कहे जाते हैं और दुनिया की अधिकांश सम्पदा उनके हाथों में सिमट कर रह गयी है। उनके लिए किसी भी धार्मिक परम्पराओं को मानने वाले देश को आर्थिक और मानसिक रूप से गुलाम बनाना चुटकी बजाने भर का काम है, चाहे वह अमेरिका, रूस, चीन, जापान कोई भी देश हो जो सभी तरह से सम्पन्न हैं।
जहाँ तक हमारे देश का सम्बंध है, जब तक धर्म, जाति और सम्प्रदाय को प्रशासन पर हावी नहीं होने दिया गया, देश सभी क्षेत्रों में धीमी गति से ही सही, प्रगति करता रहा लेकिन जब कभी किसी भी प्रदेश या केंद्र में प्रशासन के लिए इन तीनों या किसी एक को भी शासन करने का साधन या जरिया बनाया गया, ऐसा करने वाले नेताओं और राजनीतिक दलों को मुँह की खानी पड़ी। जनता की मुसीबतें बढ़ीं, पतन को रफ्तार मिल गयी और प्रगति का रास्ता अवरुद्ध होता गया।
धर्म का तड़का
एक उदाहरण से यह बात समझी जा सकती है। यह बात सब जानते हैं कि देश में नागरिकता कानून, हर दस वर्ष में जनगणना, आबादी के हिसाब से नीति बनाना, योजनाएँ लागू करना और नागरिकों को बेहतर जीवन देने की कोशिशें आजादी के बाद से लगातार होती रही हैं।
अब जरा यह बात समझिए कि जैसे ही संविधान संशोधन के जरिए नागरिकता कानून में धर्म का तड़का लगा, देश भर में इसके विरोध की बेबुनियाद ऐसी लहर उठी जो थमने का नाम नहीं ले रही। इस हकीकत को समझने और इस बात को मानने के लिए मुस्लिम समाज तैयार ही नहीं है कि इस कानून से किसी भी भारतीय की नागरिकता पर कोई संकट नहीं है।
धर्म की बात करते ही असामाजिक तत्वों और गुंडागर्दी करने वालों को, जिन्हें इन वर्षों में सरकार की सख्ती के कारण उभरने का कोई मौका नहीं मिला था, वे सब एकजुट ही गए और देश को अराजकता के मुहाने पर ला खड़ा किया। यहाँ तक कि देश का एक और विभाजन धर्म के आधार पर करने की कुत्सित चाल चलने के सपने कुछ लोगों द्वारा देखे जाने लगे।
इस एक कार्यवाही ने पिछले वर्षों में किए गए सामाजिक और आर्थिक विकास के कामों पर धूल की परत चढ़ा दी और जिसका परिणाम दिल्ली के चुनावों में भाजपा को भारी हार के रूप मे मिला । धर्म, जाति, सम्प्रदाय को शासन के लिए इस्तेमाल करने वालों के लिए यह एक चेतावनी है।
महान दार्शनिक कार्ल मार्क्स ने धर्म को अफीम की संज्ञा दी थी। धर्म दबे कुचले लोगों की आह है जो जुल्म करने वाले का विरोध करने के लिए इस प्रकार से निकलती है, ‘जा तुझे ईश्वर या खुदा देख लेगा, उसकी लाठी जब पड़ेगी तो तू कहीं का नहीं रहेगा‘ ।
धर्म का किसी भी व्यक्ति के जीवन में व्यावहारिक स्थान हो सकता है जैसे कि हम अक्सर बीमार, घायल, असहाय और पीड़ित व्यक्ति की मदद धर्म के नाम पर कर देते हैं । जिस तरह अफीम से किसी भी व्यक्ति को कुछ समय के लिए शिथिल किया जा सकता है और वह अपने को भूलकर किसी दूसरी ही दुनिया में पहुँच जाता है, उसी तरह धर्म भी व्यक्ति को उसका दुःख भूलने में मदद करता है।
धर्म की यही सीमा है क्योंकि धर्म ने मनुष्य को नहीं बनाया बल्कि मनुष्य ने धर्मों को बनाया है। इसलिए धर्म भारत जैसे विशाल और बहुधर्मी देश के शासन का साधन नहीं हो सकता। जब हम सर्व धर्म सम्भाव या वसुधेव कुटुम्बकम कहते हैं तो इसका मतलब यही है कि भारत कभी भी हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई राष्ट्र नहीं बन सकता।
(भारत)
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