हमारा देश कुछ इस प्रकार की भेगोलिक स्थिति से बना है कि हम अनेक मामलों में दुनिया के सभी देशों से भाग्यशाली कहे जा सकते हैं। हमारा प्रहरी हिमालय पर्वत है और इससे जुड़ी समस्त पर्वतमाला विशाल प्राकृतिक स्रोतों का भंडार है। हमारे वन इतने घने हैं कि उनमें प्रवेश करना बहुत खतरनाक और असंभव जैसा है। कदाचित प्रकृति ने हमारे वन्य प्रदेशों की रचना इतनी जटिल और कठिन इसलिए ही की है क्योंकि इनमें ऐसे खजाने छुपे है जो विश्व में और कहीं नहीं है।
अनमोल संपदा
हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, जम्मू कश्मीर, लद्दाख, उत्तर पूर्व के प्रदेश, महाराष्ट्र तथा दक्षिण राज्यों के वन्य प्रदेश ऐसी अनमोल संपदा अपने अंदर समाए हुए हैं जिनकी तुलना दुनिया के किसी वन्य प्रदेश से नहीं की जा सकती। यही कारण है कि हमारी वन संपदा हमेशा से विदेशियों की नजर में खटकती रही है और वे किसी भी कानूनी और ज्यादातर गैर कानूनी तरीके से उस पर कब्जा करने में सफल होते जा रहे हैं।
जिन्हे हम जड़ी बूटी और वन्य उपज के नाम से जानते हैं, वह कितनी उपयोगी है इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि किसी भी भयानक रोग के इलाज में इनका इस्तेमाल दुनिया की बड़ी बड़ी फार्मेसी कंपनियां करती हैं और क्योंकि उनके लिए इन्हें सही रास्ते से पाना आसान नहीं है इसलिए वे ऐसे सभी हथकंडे अपनाती है जिससे उनकी चाल कामयाब हो जिसके लिए वे छल, बल और धन तीनों का इस्तेमाल करती हैं।
यदि आप वनों में घूमने के शौकीन हैं या आप कोई शोध करने के लिए इन स्थानों पर जाते हैं तो आपको वहां सैलानियों की तरह व्यवहार करते कुछ देशों, खास तौर से चीन, जापान, ब्रिटेन के लोग घूमते मिल जाएंगे। ये पर्यटक नहीं बल्कि इन देशों के वैज्ञानिक हो सकते हैं जो चोरी छिपे हमारे पेड़ पौधों और उनसे मिलने वाले फल, फूल, छाल और दूसरी सामग्री की पहचान कर उनकी चोरी और तस्करी करने के लिए यहां आते हैं।
वन्य प्रदेशों में रहने वाले अधिकतर आदिवासी होते हैं और वे स्वभाव से सीधे होते हैं। इसी के साथ जो आसपास के गांव है वहां सरपंच, स्थानीय विधायक और सांसद इस बात से पूरी तरह परिचित होते हैं कि उनका क्षेत्र कितना मूल्यवान है और इसकी कितनी कीमत वसूली जा सकती है। अब क्योंकि हमारे वनवासी गरीबी, अज्ञानता और साधनहीनता के कारण इनके प्रलोभन में आ जाते हैं तो वे अनजाने में तस्कर नेटवर्क का हिस्सा बन जाते हैं।
उनका जबरदस्त शोषण होता है और इस तरह जीवनदायिनी वन्य संपदा उनसे छीन ली जाती है। अनेक पौधे लुप्त होते जा रहे हैं। इसके लिए तस्करों द्वारा जिस विधि का इस्तेमाल होता है उसे हत्या कहना सही होगा।
होता यह है कि तस्कर उन पौधों को जड़ से उखाड़ देते हैं और उस जगह को समतल कर देते हैं ताकि वे दोबारा पनप न सकें और वे अपने देश ले जाकर उन्हें रोप दें और अपना कह सकें और बड़े पैमाने पर उसकी खेती कर मालामाल हो और अगर हमें या किसी और को उनका किसी दवाई बनाने में इस्तेमाल करना है तो मन मानी कीमत वसूल सकें।
जीवन रक्षक औषधियों से लेकर सौंदर्य प्रसाधनों के बाजार पर कुछ विदेशी कंपनियों का कब्जा है और विडंबना यह है कि इनके बनाने में जिन जड़ी बूटियों का इस्तेमाल होता है, वे भारत के अतिरिक्त कहीं और उग नहीं सकतीं। एक उदाहरण हैं। हिमाचल प्रदेश में एक ऐसा पौधा है जो वहां लगभग छह महीने बर्फ में दबा रहता है और जब बर्फ पिघलती ही तब ही बाहर किसी को दिखाई देता है।
अनेक देशों और हमारे वैज्ञानिकों ने यह कोशिश की कि उसे अपने यहां उगा लें, यहां तक कि फ्रिज में उगाने की भी कोशिश हुई लेकिन कामयाबी नहीं मिली। हिमालय की बर्फ में ही वह गुण है जो उसे अनोखा बनाता है। इसी तरह एक ही तरह के दिखने वाले दो पौधे जो एक दूसरे के बराबर लगे हों, उनमें से एक नकली और दूसरा असली हो सकता है। इसकी पहचान केवल आदिवासी या वनवासी ही कर सकते हैं।
तस्करों का गिरोह अपने जाल में इन्हें फंसा कर इनसे वह सब कराने में कामयाब हो जाता है जो गैर कानूनी है और इस तरह इसका इल्जाम इनके सिर मढ़ दिया जाता है और पुलिस हो या प्रशासन इनका दोहन और हर प्रकार से शोषण करता है।
हर्बल संपदा का संरक्षण
औषधीय और सौंदर्य प्रसाधनों के लिए इस्तेमाल होने वाले पौधों और उनसे प्राप्त सामग्री को संरक्षण देने के लिए तथा इसके साथ ही विदेशियों द्वारा इनका कॉपीराइट अपने नाम पर कराने की चाल को रोके जाने के लिए करना यह होगा कि इनका व्यापक प्रचार हो और बड़े पैमाने पर इनकी खेती करने के लिए आवश्यक प्रबंध किए जाएं।
आदिवासी क्षेत्रों में रहने वालों को इनकी रक्षा करने और उन्हें लुप्त होने से रोकने के लिए विशेष प्रशिक्षण दिया जाए और इनकी उपज में गुणात्मक सुधार करने के लिए आधुनिक तकनीकों को उन तक पहुंचाया जाए। इससे आदिवासी और वनवासी समुदाय की आमदनी भी बढ़ेगी और वे इनका महत्व समझेंगे।
हमारे वैज्ञानिक लुप्तप्राय प्रजातियों के क्लोन विकसित कर रहे हैं जो उनके संरक्षण और उनसे नई पौध बनाने का प्रयास है। अक्सर प्रोसेसिंग सुविधाओं के न होने से दवाई और कॉस्मेटिक कंपनियां बहुत ही सस्ते दाम पर इनकी खरीददारी करती है जिससे इनका उत्पादन करना आकर्षक नहीं रहता।
यदि उत्पादन के स्थान पर ही स्थानीय लोगों को रोजगार देकर उन्हें प्रोसेसिंग यूनिट लगाने की ओर आकर्षित किया जाए तो यह कितना फायदेमंद हो सकता है इसका अनुमान यदि लगाया जाए तो यह हमारी ग्रामीण और आदिवासी अर्यव्यवस्था का स्वरूप ही बदल सकता है।
नब्बे प्रतिशत उत्पादक यह नहीं जानते इन जड़ी बूटियों को कहां बेचा जाए और उसी कारण वे तस्करों के जाल में फंसकर अपना और देश का नुकसान कर लेते हैं। अगर उनकी रक्षा करनी है और हर्बल उद्योग को विकसित करना है तो इसके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है कि सरकार उतपादक को प्रोत्साहित करे, प्रोसेसिंग की सुविधाओं का आदिवासी क्षेत्रों में विकास करे और बिक्री का पारदर्शी तरीके से इंतजाम करे।
हमारे वन्य क्षेत्रों में इतनी क्षमता है कि वे किसी भी बीमारी का इलाज करने की औषधि दे सकते हैं, मनुष्य को लंबी आयु का वरदान दे सकते हैं और उसे चिरकाल तक स्वस्थ और सुंदर बनाए रख सकते हैं।
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