यह सत्य कि समय पर न्याय न मिलना अन्याय का ही दूसरा रूप है, इसी प्रकार जब घोर संकट हो और राजा अर्थात सरकार समय पर मदद न करे तो वह उसके अकर्मण्य होने का ही सबूत है। यह वैसा ही है जैसा कि एक मरणासन्न व्यक्ति के मुंह पर घी लगते ही वह प्राण त्याग दे और कहा जाए कि हम तो उसे पौष्टिक भोजन दे रहे थे, फिर भी उसकी मृत्यु हो गई तो इसमें हमारा क्या दोष? कुछ ऐसा ही हमारी सरकार महामारी के दौर में अपना रवैया दिखा रही है।
सरकारी लापरवाही की सजा
जब इस बीमारी का शुरुआती दौर था तो प्रशासन ने हल्के में लिया और जब इसने सुरसा की तरह अपना आकार बढ़ाना शुरू किया तो, बिना यह सोचे कि जिस देश का इतिहास रोटी रोजी, शिक्षा और किराए के घरों में रहने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों में पलायन का रहा हो, वहां इतनी बड़ी आबादी के खाने पीने की व्यवस्था और उनके अपने मूल स्थान पर लौटने का उचित प्रबंध किए बिना तालाबंदी कर दी जाए, उसका परिणाम भयावह होना ही था।
सरकार इतनी भोली तो न थी कि यह न जानती हो कि इस बीमारी को बढ़ने से रोका तो जा सकता है लेकिन निकट भविष्य में इसका अंत असंभव है, मतलब यह कि इसे साथ लेकर ही जीना होगा तो फिर आधे अधूरे उपाय करना किसी प्रकार से तर्कसंगत नहीं कहा जा सकता।
सम्पूर्ण तालाबंदी करते समय ही यदि शहरों और महानगरों से अपने जन्मस्थान या घर जाने की मजबूरी को समझकर यदि इन लाखों लोगों को सुरक्षित तरीके और स्वास्थ्य की जांच पड़ताल और बीमारी से बचाते हुए उन्हें पहुंचाने का इंतजाम कर दिया होता तो आज यह दृश्य देखने को न मिलते जिसमें लोग पैदल या जो भी सवारी मिले, अपने बीबी बच्चों के साथ लौटते दिखाई दे रहे हैं।
सरकार यह समझने में भी चूक गई कि शहरों में रहने वाले प्रवासियों का राशन कार्ड, जनधन खाता और स्थाई पता उनके गांव देहात का ही है और अधिकतर लोगों का परिवार वहीं रहता है इसलिए जब उन्हें मजदूरी मिलना बंद हो गया, घरों, दफ्तरों, कारखानों में नौकरी न रही, वेतन न मिलने से भुखमरी की नौबत आने लगी और इन मेहनतकश लोगों को मुफ्त की पंगत या लंगर में भोजन अपमानजनक लगा तो जैसे भी हो, अपने घर लौटने में ही भलाई समझी।
मजदूरों और गरीबों की मदद के नाम पर उनके खातों में पांच सौ रुपए जरूर आए, मुफ्त का राशन भी मिल गया लेकिन यह उनके स्थाई पते पर मिला न कि वहां जहां वे मजदूरी और रोजगार करते थे। उनके पास अपने को जिंदा रखने के लिए लौटने के सिवाय कोई विकल्प ही नहीं था क्योंकि शहर में रहने का किराया देने और खाने पीने का खर्च जुटाने का कोई साधन नहीं था। अगर एक देश एक राशन कार्ड का नियम पहले दिन ही बना दिया होता तब भी कुछ गनीमत होती, लेकिन सरकार ने इसके बजाय उन्हें मुफ्तखोरी की शिक्षा दी जो इनके स्वाभिमान पर ठोकर मारने जैसा था।
सरकार के ऊंघते हुए और चिड़ियों के खेत चुग जाने के बाद पछतावे के तौर पर जो श्रमिक स्पेशल ट्रेन और बसों के इंतजाम अब किए गए, अगर मार्च में तालाबंदी की घोषणा के साथ कर दिए जाते तो अनजाने और बेरहम शहरों का क्रूर चेहरा इन भाग्यहीन लोगों को देखना न पड़ता। अब वे दोबारा इन शहरों का रुख करने से पहले वे सौ बार सोचेंगे।
स्वदेशी बनने का ढोल पीटना
कांग्रेस सरकार के जमाने से लेकर वर्तमान भाजपा सरकार तक समय समय पर न जाने किस नशे की पीनक में यह घोषणा की जाती रही है कि चाहे सामर्थ्य और इंफ्रास्ट्रक्चर न हो पर देश में ही सब कुछ बनाओ और यहीं पर बनी चीजें खरीदो, अब उनकी क्वालिटी घटिया हो, स्तरहीन हो, हानिकारक हो, इससे क्या फर्क पड़ता है क्योंकि घोषणाएं करने वालों के इस्तेमाल के लिए तो यह उत्पाद होते ही नहीं है, बल्कि आम जनता के लिए होते हैं !
कुटीर उद्योग, ग्रामोद्योग, छोटे और मंझोले उद्योगों की परिभाषा और उन्हें मिलने वाली छूट और सुविधाओं की व्याख्या अब तक इतनी जटिल, दोषपूर्ण और भ्रष्टाचार को पनपने देने वाली रही है कि पढ़े लिखे, कुशल कारीगर और सीमित साधन वाले उद्यमी के लिए यह आग में अपने हाथ जलाने वाली ही सिद्ध होती है, इसलिए समझदार तो इनका लाभ लेने से कतराते ही हैं और अगर कोई सूरमा बनने की कोशिश करता भी है तो यह उसके लिए घर फूंक तमाशा देखने जैसा होता है।
मिसाल के तौर अपनी उद्यमशीलता के बल पर कोई लघु उद्योग या स्टार्ट अप खोल भले ही लिया जाए, कुछ ही समय में दम तोड़ता नजर आता है। जो सफल हुए भी हैं, उनके संचालक या तो कुंए के मेंढ़क की तरह एक दायरे में बंधकर रह गए या इस दायरे से बाहर निकलने के लिए उन्होंने विदेशों में शिक्षा प्राप्त की अथवा विकसित देशों की कार्य शैली को अपनाया। उनकी सफलता में सरकार का कोई विशेष योगदान है, यह समझना नादानी है।
अगर इतिहास से कुछ सीख मिलती हो तो एक उदाहरण पर गौर कीजिए। अठाहरवीं सदी में भारत पर अंग्रेजों का पूरी तरह कब्जा जम जाने से पहले भारत के टेक्सटाइल यानी वस्त्र उद्योग विशेषकर कॉटन और सिल्क का विश्व के चैथाई व्यापार पर कब्जा था। अंग्रेज समझ गया कि जब तक इस व्यापार की कमर नहीं तोड़ी जाएगी तब तक भारत पर राज करना असंभव है। अंग्रेजों ने कच्चा माल अपने देश में भेजना और वहां उनसे वस्त्र बनाकर महंगे दामों पर भारत में बेचने का काम शुरू कर दिया। यहीं नहीं स्वदेशी कारीगरों को अपने क्रूर व्यवहार से दाने दाने को मोहताज कर दिया और उनके आत्म सम्मान को रौंदने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
इसका परिणाम यह हुआ कि स्वदेशी आंदोलन जो स्वतंत्रता संग्राम में शुरू हुआ था और बापू गांधी द्वारा आजादी के बाद ग्रामीण इलाकों को औद्योगिक बाजारों में परिवर्तित करने की सलाह पर अमल न करने के कारण आज भी जब तब राजनीति के खिलाड़ी अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए चलाते रहते हैं।
स्वतंत्र भारत में यही हुआ है। यहां सुविधाएं न होने से पढ़े लिखे और कुशल लोगों ने विदेशों का रुख कर लिया जिसे ब्रेन ड्रेन कहा गया। यह सिलसिला थमा नहीं है, बल्कि लगातार बढ़ रहा है क्योंकि देश में कल कारखाने खोलना और तकनीक एवं विज्ञान की उपलब्धियों का लाभ उठाना सरकारी अड़चनों के कारण आसान नहीं है। सरकार को अपने गिरेबान में झांकना होगा।
इस महामारी के हाहाकार में सरकार ने इन उद्योगों की परिभाषा बदली है और सर्विस सेक्टर को भी शामिल किया है तो उससे यह उम्मीद करना कि देश के मजदूरों, कारीगरों और सरकार के भरोसे अपना उद्यम खड़ा करने के लिए शिक्षित और कौशल से संपन्न लोग आगे आएंगे तो यह मृग मरीचिका ही सिद्ध होगी।
इसकी वजह यह है कि इन घोषित सुविधाओं का लाभ उठाने के लिए जरूरी प्रमाण पत्र, कागजात जुटाने और अपनी योग्यता तथा पात्रता साबित करने में ही निर्धारित समय सीमा पार हो जाएगी। इस स्थिति में इन योजनाओं की पोल खुलना शुरू होने से पहले ही बहुत से उद्यमी अपनी गांठ की पूंजी भी गवां चुके होंगे।
स्वदेशी चीजें बनाओ, स्वदेशी खरीदो और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करो, यह सब बातें अब वैश्विक बाजार और ओपन इकोनॉमी में संभव नहीं, इतनी सी बात सरकार समझ ले तो यह देश पर बहुत बड़ा उपकार होगा।
लगभग तीन महीने का मूल्यवान समय गवांए बिना अगर सरकार यह सब कदम जो देश की अर्थव्यवस्था और उसकी गति को बनाए रखने के लिए जरूरी थे, अगर तब उठा लिए जाते तो आज हालात कितने काबू में होते, यह समझना कोई रॉकेट विज्ञान नहीं, बल्कि साधारण समझदारी की बात है।
अगर कुछ करना ही है तो मुक्त व्यापार, पारदर्शी नियम और आयात निर्यात में देश और देशवासियों की सहभागिता सुनिश्चित कर दीजिए, बाकी तो जनमानस स्वयं निर्णय कर ही लेगा कि उसके हित में क्या है और क्या नहीं, मतलब यह कि सरकार अपने काम से काम रखे और उद्यमियों के रास्ते में रोड़े अटकाए बिना उन्हें वे सब सुविधाएं और आर्थिक सहायता दे जिसके वे अधिकारी हैं।
Email – pooranchandsarin@gmail.com
भारत
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