कहते हैं कि वक्त की धार इतनी पैनी, तेज और नुकीली होती है कि अगर किसी को इसकी मार झेलनी पड़ जाए तो जन्म जन्मांतर ही नहीं कभी कभी तो युग बीत जाने पर भी इसके घाव रिस्ते रहते हैं और जरा सी भी ठेस लगने पर उनमें असहनीय टीस या दर्द होने लगता है। इसीलिए कहते हैं कि वक्त से डर कर रहना चाहिए और इसके साथ ही समय सबसे बड़ा शिक्षक या गुरु भी है जिसका पढ़ाया पाठ जीवन भर याद रहता है।
अंधेरे के बाद उजाले का नियम
दूसरे विश्व युद्ध के बाद यूरोप के अनेक देश बर्बाद हो गए थे और वे फिर से अपने पुराने गौरव को पाने में लगे थे। उन्हीं में से एक जर्मनी भी था जो दिन रात वैज्ञानिक और औद्योगिक उपलब्धियों को हासिल करने में जुटा था।
वहां कर्मचारियों के पास इतना काम रहता था कि उनके घर के काम अक्सर छूट जाते थे जिन्हें करने के लिए वे अपने दफ्तर या कारखाने से किसी न किसी बहाने गायब हो जाते थे। सरकार का जब इस ओर ध्यान गया और उत्पादन में कमी के नए आंकड़े आने लगे तो उसने यह आदेश दिया कि कोई भी कर्मचारी अपने काम पर अपनी शिफ्ट पूरी करने के लिए कभी भी आ और जा सकता है लेकिन उसे केवल कुछ घंटे जैसे कि दो से चार घंटों तक एक निश्चित समय पर अपने कार्यालय या कारखाने में रहना होगा और बाकी की शिफ्ट वह जब चाहे तब पूरी कर सकता है।
इसका असर यह हुआ कि कर्मचारियों द्वारा किए जाने वाले उत्पादन में न केवल भारी बढ़ौतरी हो गई बल्कि वे पहले से ज्यादा खुश भी रहने लगे जिसकी वजह यह थी कि उन्हें घर के जरूरी काम करने की कोई टेंशन नहीं थी क्योंकि इसके लिए उनके पास उनकी मर्जी के मुताबिक पूरा वक्त था।
यह सत्य घटना इसलिए विचार करने योग्य हो जाती है क्योंकि आज एक लाइलाज बीमारी से लडने में हम इतना पस्त होते जा रहे हैं कि हर समय अगले पल की चिंता के साथ साथ नौकरी, व्यवसाय, रोजगार, आमदनी, बचत और पारिवारिक जिम्मेदारियां निभाने में शुरू हो चुकी मुसीबतों का सामना भी करना पड़ रहा है।
बीमारी का तो अंत हो ही जायेगा लेकिन इसका जो दूरगामी असर पड़ने वाला है वह लोगों को भीख और गरीबी के दलदल में डालने के साथ सामूहिक विरोध, आंदोलन से लेकर आत्महत्या तक ले जा सकता है।
बचाव के रास्ते
आज से लगभग सौ साल पहले और पिछले दस बीस सालों में भी अनेक ऐसी बीमारियों का सामना समाज को विश्व स्तर पर करना पड़ा है जो एकबार आ गईं तो फिर कभी गई नहीं, हालांकि उनका इलाज करने में हमें सफलता भी मिली और उनसे बचने के उपाय भी खोज लिए गए।
उदाहरण के लिए 1980 के दशक में एड्स रोग जब आया तो उसका कोई इलाज आज तक नहीं निकाल पाया तो लोगों ने उससे बचाव के रास्ते अपनाने शुरू कर दिए जैसे कि कंडोम के इस्तेमाल की अनिवार्यता, सर्जरी से पहले एड्स का टेस्ट, संक्रमित खून की पहचान और रक्तदान से लेकर मरीज को खून चढ़ाने में सावधानी जैसे उपाय करने लगे।
इसलिए सब से पहले तो यह मान और समझ लेना होगा कि कोरोना की बीमारी हमेशा के लिए आई है, इसलिए इसका चाहे इलाज हो या इससे बचाव, उसके रास्ते खोजना हमारी नियति बन चुकी है। इसके अतरिक्त भविष्य में यदि फिर कोई ऐसी महामारी आती है तो उसके मुकाबले के लिए तैयारी भी अभी से करनी जरूरी है।
जब सामाजिक या शारीरिक दूरी का रास्ता अपनाने की बात की जाती है तो यह क्यों भूल जाते हैं कि देश की लगभग आधी आबादी एक ही कमरे में चार पांच से लेकर दस या उससे भी अधिक लोगों के साथ रहने के लिए मजबूर है जिसका खाना पीना, रसोई से लेकर शौच तक उसी में होता है।
शायद सरकारों की समझ में यह बात आ जाए कि जितनी भी झुग्गी झोपड़ियां या स्लम बस्तियां हैं, उनके स्थान पर वहां रहने वालों के लिए उसी जमीन पर उनके लिए बहुमंजिला इमारतों का निर्माण बिना राजनीतिक स्वार्थ को ध्यान में रखकर तुरंत किए जाने की शुरुआत करना वक्त की जरूरत है ताकि भविष्य में फिर कोई ऐसी ही बीमारी आ जाए तो हम असावधान रहने के कारण उसका शिकार न हो जाएं।
यह अब हमारी सुरक्षा जरूरतों में शामिल हो गया है कि फेस मास्क, हाथ धोना, सफाई से रहना और तपाक से मिलने के बजाय दूर से नमस्ते करना जैसे उपाय हमारी आदत बन जाएं।
कहते हैं कि कोई भी महामारी या मुसीबत हमारी अपनी ही गलतियों का नतीजा होती है। आपस के लड़ाई झगड़े हों या प्राकृतिक आपदाएं हों, इनका मूल कारण हमारा अपना व्यवहार और सोच तथा काम करने का तरीका ही होता है।
सभी तरह के प्रदूषण, वन विनाश का कारण कुदरती साधनों का अंधाधुंध शोषण ही है।
झटकों का फायदा
कुदरत का कहर हो या बीमारी से ग्रस्त होना, उनसे लगने वाला झटका एक जैसा ही होता है और उसका असर सब कुछ बर्बाद करने जैसा ही होता है।
इस बीमारी ने एक अवसर दिया है कि हम अपने काम करने के तरीकों में बदलाव करें, आने जाने के साधनों का जरूरत पड़ने पर ही इस्तेमाल करें और वैज्ञानिक सोच को अपनाते हुए नई तकनीक और टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करना सीखें और उसे अपनाएं।
मिसाल के तौर पर कई वर्षों से इस बात पर बहस होती थी कि स्वास्थ्य की देखभाल और बीमारियों की रोकथाम और उनकी चिकित्सा के लिए टेली मेडिसिन और टेली काउंसलिंग को अपनाया जाए और लोगों को बीमार पड़ने पर डॉक्टर से लेकर अस्पताल तक सिवाय विशेष परिस्थितियों को छोड़कर, न जाना पड़े।
अब एक झटके में ही यह बात समझ में आ गई है कि घर बैठकर भी फोन, वीडियो, इंटरनेट के जरिए डॉक्टर से इलाज करवाया जा सकता है।
इसी तरह पढ़ाई लिखाई को लेकर चाहे सामान्य शिक्षा हो या उच्च शिक्षा, अब ऑनलाइन और वर्चुअल क्लासरूम की शुरुआत भी इसी बीमारी का जोरदार झटका लगने से हो चुकी है।
घर की तालाबंदी ने जो झटका दिया है उसने लोगों को अपने घर से ही अपना काम धंधा करने और व्यवसाय चलाने से लेकर नौकरी तक करने को इतना आसान और सुविधाजनक बना दिया है कि आगे आने वाले समय में इसे एक क्रांति की तरह लिया जाय तो आश्चर्य नहीं होगा।
केवल भारी उद्योगों, कल कारखानों, ढुलाई उतराई और खेती बाड़ी के कामों में ही कारीगर और मजदूर की जरूरत रह जाने वाली है, बाकी के कर्मचारी घर से ही बैठकर काम करें, इसके लिए नए नियम और कानून बनाने की बारी अब आ ही गई है जिसे जितनी जल्दी अंजाम दिया जाएगा, उतना ही बेहतर होगा।
इसका सबसे बड़ा लाभ सवारी ढोने के वाहनों और साधनों का कम से कम इस्तेमाल करने के रूप में होगा जिससे सड़कों पर धूल कम उड़ेगी, उनके रखरखाव और निर्माण पर कम खर्च होगा। इस तरह वायु प्रदूषण कम होगा, जल प्रदूषण से बचा जा सकेगा और शोर शराबे में भी कमी आयेगी।
आज जिस तरह बिजली और पानी हमारी घरेलू जरूरतों के लिए मुहैया कराया जाता है, उसी तरह इंटरनेट भी हरेक की जरूरत बन चुका है, उसकी स्पीड और उपलब्धता को जरूरत के हिसाब से बढ़ाया जाना न केवल सरकार की प्राथमिकता बल्कि प्रत्येक उपभोक्ता के लिए भी उसका अधिक से अधिक इस्तेमाल करना जरूरी हो रहा है। अगर दुनिया में अपना स्थान या वर्चस्व बनाए रखना है तो अब उसका पैमाना किसी देश की सैन्य शक्ति न होकर संवाद और संचार साधनों का इस्तेमाल करने की योग्यता होना होगा।
कहावत है कि चिंता चिता के समान होती है जो अगर शरीर या व्यवसाय को लेकर लग जाए तो मनुष्य के खोखला होने में देर नहीं लगती लेकिन अगर यही चिंता एक स्वस्थ चिंतन का रूप धारण कर ले तो उसके परिणाम सुख देने वाले ही नहीं, चमत्कारी भी होते हैं। आज हम एक व्यक्ति, समाज और देश के रूप में जिस मोड़ पर खड़े हैं, उसमें एक ओर नव निर्माण की संभावनाएं हैं तो दूसरी ओर विनाश की खाई है। अब यह हम पर है कि हम किसे अपनाते हैं।
सलाम ...जांबाज सेनानी
कोरोना की इस दहशत में,
अब हम हैं बंद दरवाजों में,
वे खुले आसमां के नीचे,
बिना किसी दीवारों के।
सड़कों के बैरियर पर ड्यूटी,
भरी दोपहरी धूप के नीचे,
आंधी या तूफां आए,
बारिश की बूंदों से भीगें।
डटें रहें अपने मकसद पर
ये जाबांज सेनानी।
घर-घर जाकर जांच ये करते,
पीड़ित को सैन्टर पहुंचाते,
गली कूचों में गश्त लगाते,
खुद से पहले हमें बचाते,
हम सब तुम्हें सलाम बजात
ओ जांबाज सेनानी
सलाम, जांबाज सेनानी
यह ओजस्वी पंक्तियां इस स्तंभ की नियमित पाठिका रीना वाधवा ने भेजी हैं।
भारत
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