कोरोना की महामारी के दौरान सरकार द्वारा खेतीबाड़ी के क्षेत्र में जो अध्यादेश के माध्यम से नए कानून लाए गए हैं उनके बारे में यह शंका करना नितांत गलत भी नहीं है कि इनसे अन्नदाता की पहले से खराब आर्थिक सेहत का कोई उपचार नहीं होने वाला है बल्कि यह उन्हें और अधिक असहाय और कमजोर करने वाला है और इसका फायदा केवल उन्हें मिल सकेगा जो पहले से ही अमीर किसान हैं तथा सभी प्रकार से साधन सम्पन्न हैं।
जिनके पास पैसे और डंडे दोनों की ताकत है जिसके बल पर वे छोटे और मझौले किसान तक को अपनी शर्तो पर खेती करने और उपज बेचने के लिए विवश कर सकते हैं, यह कानून उनके लिए ही फायदेमंद है, यह शंका निर्मूल नहीं है।
बंधुआ खेती की शुरुआत
अभी तक बंधुआ मजदूर और खेतिहर कामगार की बात कही सुनी जाती थी लेकिन अब इस कानून से यह डर पैदा हो गया है कि कहीं पूरी की पूरी खेतीबाड़ी ही बंधुआ तो नहीं हो जाएगी।
इस शंका के अनेक कारण हैं जिन पर सरकार और किसान संगठनों को मिलकर कोई नीति बनानी होगी जिससे यह डर किसान के मन से निकल सके कि खेती तो वह करे लेकिन उसकी कीमत का फैसला कोई और करे जो अपनी ताकत और दबंगई से किसान को सदियों से घुटने टेकने के लिए मजबूर करता रहा है।
सबसे पहला डर तो यह है कि हमारे तीन चैथाई के लगभग किसान अनपढ़ या मामूली पढ़े लिखे हैं, उनके बच्चों को भी वह सब तो पढ़ने को मिला जो उन्हें शहर तक पहुंचा सके लेकिन उन्नत खेतीबाड़ी कैसे हो, विज्ञान और प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल खेती करने के काम में कैसे होता है, वह अपनी फसल की सुरक्षा कैसे कर सकते हैं या फिर उपज के अच्छे दाम कहां मिल सकते हैं, यह सब उन्हें पढ़ाया ही नहीं गया और वे क्या पढ़ते या क्या नहीं पढ़ते और कौन पढ़ाता, जबकि गांव के विद्यार्थियों के लिए कोई खेतीबाड़ी से जुड़ा सिलेबस ही आज तक नहीं बन पाया तो फिर पढ़ाने वाले भी कहां से आते। जो कुछेक कोर्स हैं भी तो वे इतने उबाऊ हैं कि कोई पढ़ना नहीं चाहता, हां केवल डिग्री मिल जाए और किसी कृषि संस्थान में नौकर हो जाएं, उससे अधिक इन पाठ्यक्रमों का कोई महत्व ही नहीं है।
दूसरा डर यह है कि सरकार की तरफ से गांव देहात में कोई ऐसी मशीनरी यानी इंफ्रास्ट्रक्चर या ढांचा ही बना कर किसान को नहीं दिया गया जो सटीक और लाभकारी जानकारी तथा वास्तविकता का ज्ञान उसे करा सके। केवल हाथ में मोबाइल और इंटरनेट से मनोरंजन की सुविधा देने से ही कुछ नहीं होता।
कृषि सूचना केंद्र या ऐसे ही नाम के लिए बनाई गई इकाइयों की दुर्दशा की बात न ही की जाय तो बेहतर है। ये सब निकम्मों को रोजगार देने और निठल्लों की आवारागर्दी की जगहें हैं, किसी भी केंद्र में जाकर देख लीजिए, हकीकत यही मिलेगी।
तीसरा डर यह है कि अब कॉरपोरेट घरानों और मंडियों के दलालों द्वारा मिलकर किसान के अज्ञान और उसके पास बाजार की सही जानकारी का अभाव होने का फायदा उठाने का दौर शुरू हो सकता है।
किसान की गरीबी, उसकी कमजोर आर्थिक स्थिति तथा परिवार के सदस्यों के बीच बिखराव होने का लाभ ये कंपनियां पूरी तरह उठाएंगी क्योंकि यह शुद्ध मुनाफे के सिद्धांत पर काम करती है, उनका किसान की भलाई से न कोई लेना देना होता है और न वे उसके प्रति कोई सहानुभूति रखती हैं, इसलिए अपने ही नियम कायदों के अनुसार किसान को बंधुआ खेती करने के कॉन्ट्रैक्ट, एग्रीमेंट या समझौते पर अंगूठा लगाने या दस्तखत करने के लिए मना ही लेंगी।
इस बंधुआ खेती में पसीना तो किसान का बहेगा और हालांकि उसका मुआवजा उसे मिलेगा लेकिन खेत की पैदावार और उसके मुनाफे पर उसका कोई अधिकार नहीं होगा। इस तरह के समझौते कुछ महीनों के न होकर दसियों वर्ष के होंगे, उसे बस एकमुश्त रकम मिल जाएगी जिससे बेशक वह परिवार के पालन पोषण की चिंता से मुक्त हो जाएगा लेकिन तरक्की करने, अधिक पैसा कमाने या कोई बड़ा सपना देखने की हिम्मत वह कभी नहीं जुटा पाएगा।
इसका एक बड़ा कारण यह है कि किसान के लिए बिजली, बीज, कीटनाशक, खाद और जरूरी उपकरण बहुत महंगे साबित होते हैं जिनके लिए वह कर्जा लेता है और ब्याज की किश्त तो भर देता है लेकिन कभी मूलधन नहीं चुका पाता और फिर कर्ज के माफ कर दिए जाने का इंतजार करता है। ऐसे में वह यही बेहतर समझेगा कि इन घरानों के हाथ ही अपने को गिरवी रख दिया जाय।
कृषि उद्यमियों के लिए अवसर
अपने आप में यह नए कानून कोई ज्यादा खराब नहीं हैं बल्कि एक तरह से
कृषि सुधारों को ध्यान में रखते हुए साहसिक कदम हैं। इनसे मंडियों का वर्चस्व और उनके जरिए नेतागिरी और राजनीतिक दलों की दखलंदाजी पर लगाम लग सकेगी। अभी तो यह मंडियां यानी एपीएमसी नेताओं का अखाड़ा और किसान की मजबूरी का कारण बनी हुई हैं।
इन कानूनों से जहां कॉरपोरेट घरानों का प्रवेश कृषि क्षेत्र में होने से धन और साधनों की कमी नहीं रहेगी, वहां खेतीबाड़ी और उससे जुड़े व्यवसायों में नए उद्यमियों को अपनी किस्मत आजमाने का मौका भी मिल सकेगा।
शहरों के पढ़े लिखे युवा और जिनकी जड़े गांव देहात में हैं, वे कृषि और ग्रामीण उद्योग के क्षेत्र में अपनी योग्यता के बल पर ऐसी इकाईयां खोल सकते हैं जिनकी सबसे ज्यादा जरूरत हमारे किसानों और ग्रामवासियों को है।
इनमें हॉर्टिकलचर, हर्बल, ऑर्गेनिक खेती और थोड़ी जमीन और कम समय में पैदा होनेवाली मुनाफे वाली फसलों का उत्पादन किया जा सकता है जिनकी मार्केट बहुत तेजी से बढ़ रही है और उनकी कमी होने से विदेशों से आयात करना पड़ता है।
नए उद्यमियों के लिए कोल्ड स्टोरेज, भंडारण के आधुनिक तकनीक पर आधारित उपकरण और प्रोसेसिंग प्लांट लगाने की भारी संभावनाएं हैं। एक जिला, एक उपज के आधार पर प्रोसेसिंग इकाइयों का वर्गीकरण किया जा सकता है।
सरकार ने यह सोचकर ही तय किया होगा कि ऋण लेने से लेकर खरीद और मार्केटिंग का इंतजाम करने से और कृषि क्षेत्र में युवाशक्ति की रुचि बढ़ाकर ही खेतीबाड़ी और उससे जुड़े काम धंधों में देश विश्व में एक अग्रणी ताकत बन सकता है।
यह समय अपने व्यवसाय बदलने का भी है क्योंकि इस महामारी ने जिन काम धंधों को चैपट कर दिया है, उन्हें छोड़कर कोई नया काम अर्थात उद्यम शुरू करने में ही समझदारी है क्योंकि उद्यमशील व्यक्ति के लिए किसी भी मुसीबत से बाहर निकलना हमेशा संभव है।
(भारत)
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