स्वतंत्रता की वर्षगांठ मनाते हुए भारतीयता पर गर्व होता है, पर कुछ ऐसी बातों पर भी ध्यान जाना स्वाभाविक है जो एकता और अखंडता के साथ साथ देश की प्रगति, सोच और व्यवहार से जुड़ी हैं। इसके लिए उन स्थितियों का विश्लेषण करना आवश्यक है जो अक्सर आगे बढ़ने में हमारे रास्ते का रोड़ा बनती रही हैं ।
ऐतिहासिक विरासत
सबसे पहले विभिन्न धर्मों विशेषकर हिन्दू मुस्लिम के बीच सद्भाव, सहयोग की चर्चा करते हैं। आजाद भारत में अगर कोई सबसे बड़ी समस्या रही है तो वह इन दोनों के संबंधों को लेकर ही है जो कभी तो इतने मधुर दिखाई देते हैं कि जैसे दो जिस्म और एक जान हों और कभी इतने कटु कि जैसे जन्म जन्मांतर की शत्रुता हो।
हिन्दु और मुस्लिम समाज के रिश्तों को समझने के लिए शुरुआत आजादी की पहली लड़ाई से करनी होगी जो सन 1857 में दोनों धर्मों के लोगों ने मिलकर लड़ी थी। यह वह वक्त था जिसमें तब तक ऐसा माहौल बन चुका था कि दोनों को एक दूसरे से अलग करके देखा ही नहीं जा सकता था। अंग्रेजी हुकूमत आने तक दोनों धर्मों के मानने वालों के लिए यह देश उनकी जन्मभूमि बन चुका था जिसे गंगा जमुनी तहजीब या धार्मिक रूप से अलग होते हुए भी एक होने की मिसाल कह सकते हैं।
जब यह सब था तो रिश्तों में खटास कहां से आई जो अब तक मुंह का जायका बिगाड़े हुए है। इसे समझने के लिए फिर इतिहास पर लौटते हैं।
अंग्रेज एक चालाक कौम थी, उसकी समझ में आ गया था कि अगर हिंदुस्तान पर राज करना है तो इन दोनों की एकता को तोड़कर ही किया जा सकता है। उसने जो बांटो और राज करो की चाल चली उसका जहर आज तक निकल नहीं सका है और जरा सी बात पर हिन्दू मुस्लिम एक दूसरे के खिलाफ खड़े दिखाई देते हैं।
जरा सोचिए जब तब का इतिहास ऐसी घटनाओं से भरा पड़ा है जो बताती हैं कि कैसे हिन्दू हो या मुसलमान, अपने तीज त्योहार, रीति रिवाज, मंदिर मस्जिद का निर्माण एक साथ मिलकर करते थे। मुस्लिम बादशाह हों या हिन्दू राजा, दोनों ही के दरबार में दोनों धर्मों के लोग होते थे।
अंग्रेज के लिए हम केवल प्रजा थे, नागरिक नहीं और हिन्दू तथा मुसलमान भारत के नागरिक थे और भारतवासी हिन्दू या मुस्लिम शासकों की प्रजा थे।
अंग्रेज ने अपना राज कायम करने के लिए इसी एकता को तोड़ने और छिन्न भिन्न करने का काम किया और धार्मिक चादर में इतने छेद कर दिए कि हिन्दू मुसलमान के लिए यह तय करना मुश्किल हो गया कि कौन किस छेद से निकली हवा में सांस ले। उसने हमें इतने टुकड़ों और श्रेणियों में बांट दिया कि हम कभी एक न हो सकें और वह हम पर शासन करता रहे।
अपने मकसद को पूरा करने के लिए उसने पहले एक अंग्रेज से ही कांग्रेस की स्थापना कराई और जब यह देखा कि उसके अध्यक्ष और सदस्य हिन्दू और मुसलमान दोनों ही बिना किसी धार्मिक तनाव के बन रहे हैं और मिलजुलकर काम कर रहे हैं तो उसने कांग्रेस को हिन्दू प्रभुत्व वाली संस्था घोषित कर दिया और सन 1906 में ढाका के नवाब ख्वाजा सलीमुल्लाह से अपने धर्म की रक्षा के नाम पर मुस्लिम लीग बनवा दी। यही नहीं सन 1905 में लॉर्ड कर्जन ने बंगाल का विभाजन इसलिए कर दिया ताकि पूर्व में एक मुस्लिम बहुल प्रांत बन सके।
अंग्रेज ने एकता में सेंध तो लगा दी थी लेकिन कांग्रेस और लीग दोनों के बीच फिर भी सहयोग संबंध बन गए और दोनों मिलकर अंग्रेजों से लड़ने लगे। हकीम अजमल खां, मौलाना मोहम्मद अली, डॉ एम् ए अंसारी जैसे लोग दोनों ही संस्थाओं से जुड़े रहे। यह देखकर अंग्रेज ने उस समय के राष्ट्रवादी और भारतीय मुसलमान की नुमायंदगी करने वाले जिन्ना को पट्टी पढ़ाई और मुसलमानों के लिए एक अलग राज्य का सपना दिखा दिया जो देश के विभाजन तक जाता था।
भारत और पाकिस्तान का बंटवारा चर्चिल की सोची समझी चाल थी जो उसने माउंटबेटन के हाथों पूरी करवाई और इसमें जिन्ना को राजदार बना लिया, वरना जो व्यक्ति कंधे से कंधा मिलाकर आजादी की जंग लड़ता रहा हो वह अचानक कैसे इतना जिद्दी हो सकता था कि मुसलमानों के लिए अलग मुल्क बनाने से कम कुछ भी सोचने से परहेज करने लगा।
इतिहास बताता है कि चर्चिल इसलिए पाकिस्तान बनवाना चाहता था ताकि उस इलाके में खनिज तेल पर अपना अधिकार कर सके और रूस को दूर रख सके।इसके लिए उसे एक कठपुतली चाहिए थी जो जिन्ना के रूप में उसे मिल गई। अंग्रेज ने उसका कद इतना बढ़ा दिया कि उसे अपनी सत्ता के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई देना बंद हो गया।
महात्मा गांधी की दूरदर्शिता
गांधी जी विभाजन का विरोध कर रहे थे क्योंकि उन्होंने भांप लिया था कि अगर बंटवारा हुआ तो आबादी की अदला बदली में भयानक मारकाट होगी। उन्होंने स्वतंत्र भारत का पहला प्रधान मंत्री जिन्ना को बनाने तक का प्रस्ताव रखा।
अंग्रेजों की बांटो और राज करो की नीति गांधी जी से अधिक कोई नहीं समझता था। उन्होंने यह देखकर कि दोनों कौम अलग अलग होती जा रही है और इनके एक हुए बिना आजादी हासिल करना मुश्किल है तो उन्होंने अहिंसा, उपवास और सत्याग्रह का ऐसा लड़ने का तरीका निकाला जिसकी काट अंग्रेज के पास नहीं थी।
अब अंग्रेज कोई धार्मिक या आध्यात्मिक तो थे नहीं जो यह समझ पाते, वे तो केवल एक लड़ाके, कपटी व्यापारी, अन्यायी और शोषक थे जिनका मकसद केवल भारत को लूटना था। जब उन्होंने देखा कि हिन्दू मुसलमान को अलग नहीं कर पा रहे हैं तो उन्होंने इन दोनों धर्मों के दलित वर्ग को एक अलग पहचान के रूप में खड़ा कर दिया।
आरक्षण, शिक्षा और रोजगार
आजादी के बाद हमारे नेताओं ने इन तीन वर्गों अर्थात हिन्दू, मुसलमान और दलित को एकसूत्र में पिरोने का काम करने के स्थान पर उन्हें अपने धर्म और जाति के आधार पर अलग अलग रखने का काम किया। आरक्षण इसी का नतीजा है जो राजनीति, शिक्षा, नौकरी और प्रमोशन का आधार बन गया।
यही नहीं, विद्यार्थियों के लिए एक समान शिक्षा नीति बनाने में भी चूक कर दी। मुस्लिम समाज के मदरसे और हिन्दू समाज के लिए पाठशाला या शाखाएं इसी का स्वरूप हैं जहां धार्मिक कट्टरपन की शिक्षा और एक दूसरे से अपने को श्रेष्ठ समझने और नफरत करने का पाठ पढ़ाया जाने लगा।
यही कट्टरपन आज जब कभी उन्माद बन जाता है तो खून खराबे तक में बदल जाता है।
कहते हैं कि बीती ताहि बिसार दे आगे की सुध ले, इसलिए इतिहास की परतें खोलने का अर्थ यही है कि जिस सद्भाव, मैत्री और भाईचारे के साथ रहने की परंपरा हिन्दू मुसलमान के बीच अंग्रेजी शासन से पहले थी, क्या वही फिर से अब शुरू नहीं की जा सकती?
यह देखकर दोनों ही धर्मों के अनुयायियों को दर्द और चोट तो लगती ही है, जब बिना किसी बात के एक दूसरे को मरने मारने के लिए तैयार हो जाते हैं। दिल्ली के दंगे हों या अभी जो बंगलौर में हुआ उसे देखकर यही लगता है कि अंग्रेजो की विषबेल अभी भी जब चाहे दंश देने के लिए बाहर आ जाती है। इसे जड़ से उखाड़ कर फेंक देना क्या असंभव है ?
इतिहास के पन्नों को खंगालने से हमें यह भी जानकारी मिलती है कि अंग्रेज ने इस संबंध में अपने फायदे के लिए जो नीतियां बनाई थीं, लगभग वही, मामूली फेरबदल के साथ
आजादी के बाद भी चालू रखी गईं जिनका परिणाम अशिक्षा की बढ़ौतरी और शिक्षितों की बेरोजगारी के रूप में आता रहा है।
वर्तमान समय के कुछ साहसिक निर्णयों से स्थिति में काफी कुछ बदलाव होने की उम्मीद की जा सकती है। इसमें कोई शक नहीं कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी, व्यापार और उद्योग तथा आधुनिक संसाधनों के क्षेत्र में हमने ऐसे कीर्तिमान स्थापित किए हैं जिनसे हमारे देश की कीर्ति और गौरव में बढ़ौतरी हुई है। लेकिन विडंबना यह है कि हमने जितनी प्रगति की, उसका लाभ एक सीमित वर्ग तक ही पहुंच पाया और जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा तरक्की के फलस्वरूप होने वाले लाभ से वंचित रह गया, जिसका नतीजा गरीबी के विस्तार के रूप में सामने आया।
हम होंगे कामयाब के मंत्र के साथ उम्मीद है कि यह स्वतंत्रता दिवस देश के इतिहास में मील का पत्थर साबित होगा और हम स्वर्णिम युग की शुरूआत कर सकेंगे जिसमें सभी धर्मों, जातियों और जनजातियों के लोग सबसे पहले देश की भावना से रह सकेंगे क्योंकि देश से बड़ा कुछ भी नहीं है।
(भारत)
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