शनिवार, 29 अगस्त 2020

धर्म और धार्मिक स्थल तोड़ने का नहीं जोड़ने का काम करते हैै


जब यह जानने, पढ़ने और देखने को मिलता है तो सोच को एक नया आयाम मिलता है कि सन 1589 में  अमृतसर में स्वर्ण मंदिर की पहली ईंट एक मुस्लिम मीर मियां मोहम्मद ने रखी थी। पंजाब के ही बरनाला जिले के एक गांव में हिन्दुओं का शिव मंदिर बनाने में सहयोग करते हुए एक मुस्लिम ने मस्जिद बनाने के लिए कुछ जमीन देने की बात कही तो  प्रबंधकों ने मंदिर के ही बगल में जमीन दे दी और उसी के पास गुरुद्वारे की ओर से निर्माण के लिए आर्थिक सहायता दी गई। इसी तरह उत्तर प्रदेश में बरेली की बुध वाली मस्जिद के कर्ता धर्ता एक हिन्दू ब्राह्मण है, वे और उनका परिवार अपने मंदिर की ही भांति मस्जिद की भी देखभाल करने में कोई कमी नहीं रखते। ऐसे भी उदाहरण हैं जिनमें मंदिरों,  मस्जिदों, गुरुद्वारों और गिरिजाघरों में  अलग-अलग धर्मों के लोग अपनी वैवाहिक रस्मों से लेकर अपने बहुत से रीति रिवाजों को पूरा करते हैं।

ऐसे एक नहीं और भारत ही नहीं, विदेशों में भी अनेकों उदाहरण मिल जाएंगे जिनमें अलग अलग धर्मों के धार्मिक स्थल एक दूसरे से सट कर बने  हुए हैं ।

इतिहास की ही एक और विशेष घटना का जिक्र करना जरूरी है। कहते हैं कि मुगल शासक औरंगजेब ने हिन्दुओं पर बहुत अत्याचार किए लेकिन वहीं ओडिशा के पूर्व राज्यपाल और स्वतंत्रता सेनानी डॉ विशंभर नाथ पांडे ने डॉ तेज बहादुर सप्रू के कहने पर  एक शोध किया जिसके मुताबिक औरंगजेब की तरफ से हिन्दू मंदिरों के लिए बहुत से आदेश और जागीरें दी गई थीं । इसी तरह उन्होंने टीपू सुल्तान के बारे में भी शोध किया तो उसमें भी अनेक ऐसे तथ्य मिले जिनसे यह सिद्ध होता है कि हमारे देश में सदियों से विभिन्न धर्मों के लोग एक दूसरे के धर्म और उसमें कहीं गई बातों को न केवल मानते और समझते रहे हैं, बल्कि उनकी वजह से आपसी मनमुटाव और झगड़े से भी कोसों दूर रहे हैं।

ऐसे भी अनेक उदाहरण हैं जिनमें चाहे किसी भी धर्म के पालन करने वाले हों लेकिन एक ही घर हो या महल या फिर पूजा या इबादत करने का स्थान, वहां विभिन्न धर्मों के प्रतीक मिल जाएंगे। जब ऐसा है तो फिर अचानक अक्सर ऐसा क्यों हो जाता है कि धर्म की रक्षा के नाम पर उन धर्मों को मानने वाले एक दूसरे से नफरत ही नहीं, मारकाट, हिंसा से लेकर आगजनी और तोड़फोड़ करने पर उतारू हो जाते हैं।

धर्म क्या है ?

अनादि काल से धर्मों का उदय होता रहा है और उनके प्रवर्तकों तथा अनुयायियों की संख्या उस धर्म की विशेषताओं के अनुसार घटती बढ़ती रही है। जो धर्म जितना सहिष्णु और जीवन को उदार तथा विनम्र बनाने की दिशा दिखलाता है, उसका विस्तार भी उतना ही अधिक होता है। इसके साथ ही जिन धर्मों तथा उनके मानने वाले अपने ही बनाए दायरे या परिधि में रहना  श्रेयस्कर समझते हैं, वे उसी के अनुसार व्यवहार करते हैं।

इसका अर्थ यह हुआ कि जिन धर्मों के आचार विचार और उनके नियम इस तरह के होते हैं कि प्रचार प्रसार से लेकर कभी कभी विनम्रता के विपरीत जाकर जबरदस्ती भी धर्म परिवर्तन कराया जा सके तो उसमें भी उनके मुताबिक कोई हर्ज नहीं है। इसी के साथ वे धर्म भी हैं, जिन्हें  इस बात की कोई चिंता नहीं होती कि उसके अनुयाई कम हो रहे हैं या बढ़ रहे हैं। वे जितने हैं उसमें ही संतुष्ट रहते हैं और न किसी अन्य धर्म के मानने वालों के मामलों में हस्तक्षेप करते हैं और न ही चाहते हैं कि कोई दूसरे धर्म के मानने वाले उनके धर्म की टीका टिप्पणी  या उनके रीति रिवाजों में किसी प्रकार का कोई फेरबदल करने की  अनावश्यक चेष्टा करे।

धार्मिक विश्वास

किसी भी व्यक्ति का धर्म जन्म लेते ही निश्चित हो जाता है और जीवन भर वह उसी को मानता है, बशर्ते कि किसी साधारण या विशेष कारण से वह कोई दूसरा धर्म स्वीकार कर ले और शेष जीवन उसी धर्म के आधार पर अपना जीवन व्यतीत करते हुए समाज में अपना योगदान करता रहे।

कदाचित इसीलिए धर्म को जीवन जीने की शैली या पद्धति कहा गया है। इसमें इस तरह की बातों का कोई न तो महत्व है और न ही जरूरत कि यह सोचा जाए कि मेरा धर्म किसी दूसरे के धर्म से श्रेष्ठ  है क्योंकि जब यह जिन्दगी जीने का एक तरीका ही है तो क्यों कोई अपने को बेहतर और दूसरे को कमतर आंकने में अपना समय नष्ट कर जीवन के बहुमूल्य क्षणों को व्यर्थ की बातों में बीत जाने दे बजाय इसके कि वह अपने समय को आर्थिक उन्नति और सामाजिक जीवन के उत्थान में लगाए।

कितना भी अध्ययन और चिंतन मनन कर लीजिए, कितने भी शोध ग्रंथ तलाश लीजिए और विभिन्न धर्मों की  कितनी ही व्याख्या कर लीजिए, यह कहीं नहीं मिलेगा जिससे यह पता चल सके कि कौन सा धर्म किससे अच्छा है या खराब, सब ही में मानवीय वृत्तियों को लेकर एक जैसी ही बातें मिलेंगी।

हमारे व्यक्तिव के जितने भी पहलू हैं जैसे कि अहंकार, द्वेष, प्रेम, परोपकार, सद्भावना, मित्रता या फिर कोई अन्य, सब ही धर्मों में इनके बारे में एक जैसी ही बातें कही गई हैं। जब ऐसा है तो किस आधार पर कोई अपने धर्म को लेकर कट्टरपन की हद तक जाकर दूसरे धर्म के मानने वालों के साथ दुर्व्यवहार करने की सोच भी सकता है ?

इस समाज में दो ही तरह के लोग मिलते हैं, एक सज्जन और दूसरे दुर्जन, यह हम पर है कि कोई क्या बनना और कहलाना पसंद करता है, इसमें धर्म को घसीटने और उसे नीचा दिखाने की जरूरत क्या है? धर्म को लेकर दंगाइयों की पहचान करने में हमारी विफलता अनेक वीभत्स दृश्यों को साकार करती रही है ! इसे जितना शीघ्र समझ लेंगे उतना ही देश धार्मिक एकता की मिसाल कायम करने में सक्षम हो सकेगा।

अब हम इस बात पर आते हैं कि जब हमारे देश की यह परंपरा रही है कि एक दूसरे के धर्म के धार्मिक स्थल के प्रति समान आदर रखते हुए उनके निर्माण में सदियों से मिलजुल कर अपना योगदान करते रहे हैं तो आज वर्तमान वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार चलने वाले युग में क्यों सहयोग करने के स्थान पर विरोध और वैमनस्य को अपना रहे हैं।


जिस तरह जन्म लेते ही धर्म का निर्धारण हो जाता है, उसी प्रकार यह तय हो जाता है कि हमारे ईश्वर अर्थात आराध्य का स्वरूप क्या है।यह तो हो सकता है कि बड़े होने पर ईश्वर के होने या न होने यानि आस्तिक या नास्तिक बन कर ज्ञानी होने का चोला पहन लें लेकिन यह असंभव है कि अपने धर्म के पूज्य प्रतीकों या स्वरूपों की अवहेलना या उनके प्रति अनादर का भाव रख सकें। भगवान राम, हजरत मोहम्मद, ईसा मसीह, गुरु नानक, महावीर जैन, गौतम बुद्ध से लेकर जितने भी धर्मों के प्रवर्तक हुए हैं, सब के प्रति समान भाव रखने में हर्ज क्या है ? जरा सोचिए !


(भारत)

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