शुक्रवार, 18 सितंबर 2020

महामारी का बढ़ता आकार, गलत तो नहीं हो रहा उपचार ?

 क्या कारण है कि महामारी जो दुनिया भर में फैली, अब कुछ देशों तक आकर सिमट गई है,  जिनमें अमेरिका पहले और भारत दूसरे नंबर पर है ?  कहीं ऐसा तो नहीं होने वाला कि जिस तेजी से  हमारे देश में इसका आकार बढ़ रहा है, हम जल्दी ही अमेरिका को भी पीछे छोड़कर पहले नंबर पर आ जाएंगे और उसके बाद न जाने कहां जाकर यह संख्या रुकेगी, मतलब करोड़ों तक पहुंचने वाली है ?

अधिकतर देशों में इसका बढ़ना न केवल रुक सा गया है बल्कि वहां इसके कारण मृत्यु दर भी कम होती जा रही है । यह गंभीर स्थिति है और इस बात को उजागर करती है कि यदि हम नहीं संभले तो इस महामारी का पूरा प्रकोप झेलने के लिए हमारा ही देश बचेगा और बाकी दुनिया इससे बाहर निकल चुकी होगी।

गलती तो जरूर हुई है !

यह आलोचना नहीं, तथ्यों पर आधारित सच्चाई है कि हमसे आकार में छोटे और उसके अनुपात में आबादी में लगभग हमारे ही बराबर देशों में इस बीमारी ने पैर पसारने से तौबा कर ली है और यह भी सच है कि इन देशों में से अधिकतर की आर्थिक स्थिति भी हमारे जैसी ही है।

अपने आसपास के देशों चाहे पाकिस्तान, चीन, बांग्लादेश, श्री लंका, नेपाल, भूटान, बर्मा या फिर थाईलैंड, इंडोनेशिया जैसे देश हों, सब के यहां यह महामारी थम रही है, मृत्यु दर भी घट रही है। हमारे यहां प्रतिदिन एक लाख नए मामले आने की संख्या को हम जल्दी ही पार कर जायेंगे और फिर कहां रुकेंगे, कहा नहीं जा सकता।

ज्यादातर देशों में एक से दस लाख तक संक्रमित हुए हैं और बहुत से देशों में तो यह संख्या कुछ हजार तक सिमट गई है।

जहां तक रोकथाम का प्रश्न है, सरकार ने सब ही तरफ से इस बीमारी की नाकाबंदी की जैसे कि बहुत ही ज्यादा सख्त तालाबंदी, घरों से निकलने पर रोक,  दुकान, बाजार, दफ्तर सब बंद और एक तरह से सभी आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक गतिविधियों पर अंतहीन रोक और इस सब के बावजूद बीमारी की रोकथाम तो दूर, इसके कम होने के कोई आसार नजर नहीं आते, रोजाना बढ़ते आंकड़े सुनकर भय का वातावरण अब आक्रोश और क्रोध में बदल रहा है । आखिर यह सब कब तक चलेगा ?

सरकार की उदासीनता

हमारे मंत्री, सांसद इस विषय पर कितने गंभीर हैं, इसका एक उदाहरण वर्तमान संसद सत्र में स्वास्थ्य मंत्री हर्ष वर्धन के यह कहने से ही पता चल जाता है जिसमें वह यह कहते हैं कि हम जल्दी ही टेस्टिंग में अमेरिका को भी पीछे छोड़ देंगे । यह कोई खुश होने की बात नहीं है, क्या इसका यह मतलब नहीं है कि संक्रमितों की संख्या में भी हम अमेरिका से आगे निकलने वाले हैं !

स्वास्थ्य मंत्री संसद में इस बीमारी को लेकर जब लंबा चौड़ा बयान रखते हैं तो स्वयं अध्यक्ष को यह कहना पड़ता है कि आप बताने में समय बर्बाद न करें, बयान की कॉपी दे दीजिए, सांसद पढ़ लेंगे, फिर भी वे नहीं समझते कि उनकी बयानबाजी में कोई नई बात यानी दम नहीं है, पर वे पूरा बयान सुनाकर ही दम लेते हैं।

बार बार प्रधान मंत्री के नेतृत्व की याद दिलाना देश की जनता के साथ मजाक नहीं तो और क्या है, जबकि इस महामारी को रोकने के लिए कोई नया और ठोस कदम सरकार उठा ही नहीं रही।

यह बात अब गले उतरने वाली नहीं है कि हमारा देश बहुत बड़ा है, जनसंख्या बहुत है, आर्थिक हालात अच्छे नहीं हैं, गरीबी है जैसी बातें ! सच यह है कि बीमारी को रोकने के मामले में हम दूसरे देशों से बहुत पीछे हैं और इसे बढ़ने देने में सबसे आगे झंडा लेकर चल रहे हैं ।

यह काम जनता का नहीं है कि वह बीमारी को बढ़ने से रोकने के उपाय बताए, यह काम सरकार का है, जनता तो केवल उसके बनाए नियमों का पालन कर सकती है और हकीकत तो यह है कि वह अपनी जान बचाने के लिए स्वयं ही मारी मारी फिर रही है।

मास्क पहनना, दो गज की दूरी, हाथ धोते रहना, यह सब तो जनता कर ही रही है, चाहे उसके पास रोजगार न हो, आमदनी का कोई साधन न रहे और वह बेबस और बेचारगी की हालत में सिर्फ कसमसाने या कोसने के अतिरिक्त कुछ न कर सके।

यह सही है कि हमारे पास इस बीमारी से निबटने की कोई तैयारी नहीं थी, लेकिन क्या दूसरे देशों के पास थी, वे भी हमारी तरह पहली बार इससे दो दो हाथ कर रहे थे, तो फिर कैसे हमारे देश से कम साधनों वाले देशों ने इस पर काबू पाने में सफलता हासिल की, यह सोचने का काम केंद्र और राज्य सरकारों का है ?

जान है तो जहान है की नीति का यह अर्थ नहीं कि केवल घर में ही हाथ पर हाथ धरकर बैठने के लिए मजबूर हो जाएं बल्कि यह है कि बचाव के साधनों का इस्तेमाल करते हुए अपने रोजगार, नौकरी, व्यवसाय और काम धंधे पर ध्यान दें ।

सेवा सप्ताह या नई चाल

प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिन को सेवा सप्ताह के रूप में मनाने की शुरआत क्या उस परंपरा की ओर बढ़ने जैसा नहीं है जैसा कि पिछली सरकारों के प्रधानमंत्रियों के साथ उनके दल के लोग किया करते थे । हालांकि सच यह भी है कि वह सब  तत्कालीन प्रधान मंत्री की सहमति से ही होता था।

मोदी जी की छवि पिछले प्रधान मंत्री चाहे अटल बिहारी बाजपेई जी क्यों न हों, सब से अलग है। यह जानकर आश्चर्य के साथ साथ दुःख भी होता है कि आखिर उन्होंने अपने नाम पर और वह भी जन्मदिन को लेकर सेवा सप्ताह के मुखौटे में बेमतलब के आयोजनों के लिए अपनी सहमति कैसे दे दी जबकि वे सार्वजनिक रूप से  इस तरह के व्यक्तिवादी आयोजनों के खिलाफ आवाज उठाते आए हैं । क्या कहीं उनकी कार्यशैली पर दल के कुछ लोगों के स्वार्थ तो हावी होने नहीं जा रहे जो उन्हें इस तरह से प्रसन्न करने की कोशिश से अपना मतलब साध रहे हों। अगर ऐसा हुआ तो यह देश के लिए दुर्भाग्य सूचक होगा ।

(भारत)


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