शनिवार, 12 सितंबर 2020

शिक्षा नीति, शिक्षक, शिक्षण संस्थान और शिक्षा का निजीकरण






देश में दशकों तक एक बेहद कमजोर शिक्षा नीति के बाद नई दिशा प्रदान करने का दावा करने वाली नीति सरकार लाई है जिसे पढ़ कर यह तो लगता है कि यह एक क्रांतिकारी और शानदार भविष्य के सपने दिखाने वाला कदम है, इसके साथ ही वास्तविकता यह है कि यदि इस पर सावधानी तथा हकीकत पर ध्यान दिए बिना अमल किया गया तो न केवल दूर के ढोल सुहावने हो सकते हैं बल्कि अनिष्टकारी परिणाम भी सामने आ सकते हैं।


शिक्षक का शिक्षा से नाता

हमारे देश में शिक्षकों के तीन वर्ग है, एक वे जो सरकारी स्कूलों में नियुक्त हैं, जिन्हें पढ़ाने के अतिरिक्त ऐसे बहुत से काम करने होते हैं जिनका शिक्षा से कोई संबंध नहीं होता, जैसे कि जिन स्कूलों में मिड डे मील मिलता है, उनमें इसके प्रबंध से लेकर वितरण तक का काम करना, चुनाव, जनगणना और स्वास्थ्य संबंधी सेवाओं जैसे टीकाकरण आदि योजनाओं में घर घर जाकर योगदान करना और इसके साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में सरपंच या दबंग या रसूखदार व्यक्ति के यहां विवाह और पारिवारिक आयोजनों की स्कूल परिसर में पूरी व्यवस्था संभालना और अपनी  ‘मास्टर‘  होने की पदवी का इस्तेमाल करते हुए विद्यार्थियों को भी इसमें सहभागी बनाना।

नई शिक्षा नीति में शिक्षकों से यह सब काम करने से मुक्ति दिलाने की बात कही गई है लेकिन प्रश्न यह है कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा मतलब कि जिन लोगों को शिक्षकों से यह सब काम कराने की आदत है, उनसे उन्हें कौन बचाएगा क्योंकि समुद्र में रहकर मगर से बैर मोल लेना आत्मघाती होगा !

इसके साथ ही सरकारी शिक्षकों को वेतन और सुविधाएं जितनी बेहतर मिलती हैं, उतनी ही पढ़ाने की सुविधाएं अर्थात इन्फ्रास्ट्रक्चर की कमी होने से वे अपनी प्रतिभा और क्षमता का उपयोग करने में असमर्थ रहते हैं। वे सरकारी कर्मचारी की तरह काम करने को विवश हैं, अपनी योग्यता से विद्यार्थियों का भला करना चाहते हुए भी साधनों के अभाव में चुप रहना ही अच्छा समझते हैं, जैसे तैसे लंबा चौड़ा और भारी भरकम सिलेबस पूरा करने की जल्दी में रहते हैं, चाहे उनका पढ़ाया हुआ विद्यार्थी के सिर पर से होता हुआ आकाश में ही विलीन क्यों न हो जाए ?

शिक्षकों का दूसरा वर्ग है ऐसे प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाने वालों का जिनमें कुछ को सरकार या दूसरी जगहों से आर्थिक मदद मिलती है और बाकी विद्यार्थियों से मोटी फीस और  उनके मातापिता से जबरन उगाही तक करने से नहीं चूकते, वेतन कम होता है लेकिन सांस लेने की फुरसत नहीं मिलती, परीक्षाओं में बेहतर नतीजे लाने पर ही नौकरी कायम रहने की गारंटी होती है, इन्फ्रास्ट्रक्चर आधुनिक होता है इसलिए अपनी काबीलियत दिखाने का अवसर मिलता है, इसके साथ ही पढ़ने वाले बिना इनसे ट्यूशन लिए पास नहीं हो सकते और इनके सामने प्रबंधकों का दिया टारगेट पूरा करने की तलवार लटकी रहती है।

शिक्षकों का तीसरा वर्ग है जो चौबीस हजार करोड़ रुपए वार्षिक के प्राइवेट ट्यूशन पढ़ाने वाले धंधे से जुड़े हुए हैं और सरकारी हो या गैर सरकारी, सभी स्कूलों के बच्चों के लिए इनसे शिक्षा ग्रहण करना अनिवार्य है, यदि उन्हें बढ़िया अंकों से परीक्षा पास करनी है, उच्च शिक्षा संस्थानों में प्रवेश लेना है, विदेशों में शिक्षा प्राप्त करने के काबिल होना है और प्रतियोगी परीक्षाओं में सफल होना है।

नई शिक्षा नीति की समीक्षा

सबसे पहले तो नई शिक्षा नीति से शिक्षकों को उन सब कामों से मुक्त रखने की बात कही गई है जिनका पढ़ने पढ़ाने से कोई सम्बन्ध नहीं होता, उन्हें पूरा समय विद्यार्थियों के उज्जवल भविष्य के सपने को पूरा करने में लगाना होगा । कक्षा में पढ़ाई की प्लानिंग करने, विद्यार्थियों की रुचि और क्षमता का आकलन करने, अपनी स्वयं की सोच और योग्यता को आधुनिक तथा टेक्नॉलाजी आधारित बनाने के लिए ट्रेनिंग लेना और शिक्षक की जो जिम्मेदारी अपने विद्यार्थियों के प्रति होती है, उसे पूरा करने में कोई कोर कसर न छोड़ना होगा। 

इस सब के बदले में अपना जीवन आदर और सम्मान के साथ व्यतीत करना तथा ऐसे मानदंड स्थापित करना जिनसे उनके पढ़ाए विद्यार्थी जीवन के किसी भी मोड़ पर उनके द्वारा दी गई शिक्षा पर गर्व कर सकें।

बहुत ही आदर्श और सिद्धांतों से भरी नई शिक्षा नीति की कल्पना की गई है और विश्व के अनेक देशों की विकसित शिक्षा प्रणाली से प्रेरणा भी ली गई है और इसी कड़ी में दुनिया भर से सौ के लगभग उच्च शिक्षा संस्थानों, विश्वविद्यालयों को भारत में अपनी शाखाएं खोलने का निमंत्रण दिए जाने की बात भी कही गई है ताकि भारतीय विद्यार्थियों को शिक्षा में विश्व स्तरीय योग्यता हासिल करने के लिए विदेशों में न जाना पड़े, कक्षाओं में स्मार्ट बोर्ड, प्रोजेक्टर और ऐसे उपकरण लगें जिनसे शिक्षा साधनों में आमूलचूल परिवर्तन हो जाए, जिसकी पूर्ति के लिए संचार तथा संवाद के आधुनिक संसाधनों का इस्तेमाल करना अनिवार्य है।

यह बात और है कि देश में बिजली और इंटरनेट की जो हालत है, वह इन सब महत्वाकांक्षी कल्पनाओं को साकार होने देने में हमेशा की तरह रुकावट बनी रहेगी। यह आंखों देखी हकीकत है कि चौबीस घंटे  बिजली न होने और इंटरनेट की धीमी गति के कारण सभी इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के काम करने की नौबत ही नहीं आयेगी तो फिर कैसे विश्वस्तरीय शिक्षा दी जा सकेगी, यह सोचने पर विवश होना ही पड़ता है ?

कहा गया है कि त्रिभाषा फॉर्मूला अपनाया जाना है लेकिन प्रैक्टिकल बात यह है कि केवल दो भाषाएं ही काफी हैं, एक मातृभाषा और दूसरी विश्व की सर्वमान्य भाषा अंग्रेजी जिसके बिना देश की किसी भी सरकार, किसी भी राज्य और किसी भी दफ्तर का काम चलना लगभग असंभव है।

अगर किसी को कोई और भाषा सीखनी है तो उसके लिए कोई रोक टोक तो है नहीं, वह कितनी भी स्वदेशी या विदेशी भाषाएं सीखने के लिए स्वतंत्र है लेकिन पढ़ने की अवधि के दौरान कोई तीसरी भाषा केवल मजबूरी के कारण वह क्यों सीखे ?

भाषा के बारे में एक बात और सोचने की है कि अंग्रेजी पढ़ाओ या अंग्रेजी में पढ़ाई कराओ, से बाहर निकलकर यह तय करना होगा कि विद्यार्थी कौन सी भाषा सीखे और किस भाषा के माध्यम से पढ़े।

विषय लेने और उन्हें बदलने की सुविधा इस नीति में है पर इस बात का कोई जिक्र नहीं है और न ही कोई ऐसी प्रणाली बताई गई है जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि कौन सा विषय किस विद्यार्थी के लिए उपयुक्त है, उसकी क्या कैपेसिटी है और वह अपनी परिस्थितियों के अनुसार कौन सा विषय लेकर अपने लक्ष्य तक पहुंच सकता है। यदि ऐसा हो जाए तो बाद में सब्जेक्ट बदलने की जरूरत कम से कम होगी और उसके कीमती साल बर्बाद नहीं होंगे।

शिक्षा नीति में यह बात न केवल सराहनीय है बल्कि पूरी शक्ति और सामर्थ्य से अमल में भी लाई जानी चाहिए कि पढ़ाई के दौरान ही कोई काम सीखने, अपने कौशल या हुनर का विकास करने की जरूरत पर जोर दिया गया है।

प्रश्न यह है कि व्यावहारिक  ज्ञान देने के लिए उपयुक्त संस्थानों का इंतजाम कहां से होगा, कोई क्यों किसी स्कूली बच्चे को अपने यहां इंटर्नशिप पर रखेगा और सबसे बड़ी समस्या यह है कि उन्हें ट्रेनिंग देने के लिए ट्रेनर कहां से आएंगे और अगर यह काम भी उन शिक्षकों पर छोड़ दिया जो केवल अपना विषय पढ़ाने की योग्यता रखते हैं और उनसे कह दिया कि वे ही बच्चों के हुनर को तराशने का काम करेंगे तब तो सब कुछ गडबड होने के पूरे आसार हैं।

शिक्षा एक उद्योग है !

अगर देश को शिक्षा के स्तर पर प्रतियोगी और सर्वगुणसंपन्न बनाना है तो शिक्षा को एक उद्योग का दर्जा देने से बेहतर कोई और विकल्प नहीं है। अनेक देशों में और अपने देश में भी उच्च शिक्षा के क्षेत्र में इसे उद्योग की ही तरह देखा जाता है।

शिक्षाकर्मी को अगर शिक्षा उद्यमी कहा जाए तो उसमें हर्ज क्या है, इसमें काम करने वाले शिक्षक, परीक्षक, कंटेंट डेवलपर, सब्जेक्ट स्पेशलिस्ट और शिक्षा प्रदान करने के आधुनिक इंस्ट्रूमेंट तैयार करने वाले एंटरप्रेन्योर नहीं है तो और क्या है? शिक्षा के मॉड्यूल तैयार करना एक विशाल उद्योग की शक्ल ले सकता है, इसके लिए स्टार्टअप्स क्यों नहीं खुल सकते और शिक्षा को उद्योग मानकर इसे एक प्रॉफिटेबल प्रोफेशन क्यों नहीं बनाया जा सकता, इसके लिए शिक्षा का निजीकरण यानी इसे प्राइवेट सेक्टर की एक महत्वपूर्ण गतिविधि क्यों नहीं माना जा सकता?

यदि ऐसा हो गया और  शिक्षा के निजीकरण की सशक्त रूपरेखा बना ली गई और सरकार द्वारा बनाए नियमों का कड़ाई से पालन करने की व्यवस्था को अमली जामा पहना दिया गया तो देश के प्रत्येक भाग में न स्कूलों की कमी रहेगी, न शिक्षकों को  आमदनी के लिए दूसरे क्षेत्रों में जाने की मजबूरी होगी और न सरकार पर अतिरिक्त वित्तीय बोझ पड़ेगा और देश क्वालिटी एजुकेशन के रास्ते पर चल पड़ेगा।


(भारत)


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