किसान या जो लोग खेतीबाड़ी और इससे जुड़े काम और व्यवसाय से जुड़े हैं, उन्हें दो वर्गों में रखा जा सकता है, एक वे जो बहुत समृद्ध और खुशहाल हैं और दूसरे वे जिनकी आमदनी इतनी नहीं होती कि उनका गुजारा भी ठीक से हो सके। हमेशा कर्जदार बने रहते हैं, गरीबी के कारण अपने बच्चों को भी खेतीबाड़ी न करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, कहीं दूसरा काम खोजने के लिए कहते हैं, चाहे अपना घरबार छोड़कर किसी शहर में छोटी मोटी नौकरी ही क्यों न करनी पड़े।
ऐसा इसलिए होता है कि क्योंकि जो आज संपन्न है उसने अपनी जमीन, उसकी मिट्टी को आदर सम्मान दिया, उसकी देखभाल अपने कुनबे की तरह की और उसे पोषक तत्वों की खुराक से ताकतवर बनाए रखा तथा पूरा ध्यान रखा कि जमीन को न तो किसी तरह की बीमारी लगे और न ही उसकी उपज में कमी हो। वे जानते थे कि खुशहाल होने पर ही उनका सम्मान होगा।
इसके विपरीत विपन्न किसान ने ज्यादातर अपनी जमीन और खेतीबाड़ी को राम भरोसे छोड़ दिया, देखभाल और पौष्टिकता के अभाव में उसे बंजर हो जाने दिया, उपजाऊपन खत्म होता दिखने पर भी जमीन का इलाज नहीं किया। जमीन लावारिस होकर सरकार की किसी भूमि अधिग्रहण योजना का इंतजार करने लगी ताकि उस पर कोई सड़क, हाईवे बन सके या कोई उद्योग लग सके या उसके एवज में उसके मालिक को मुआवजा मिल जाए।
कृषि एक उद्योग है
हमारे देश में लगभग 130 मिलियन हेक्टेयर जमीन इस समय बंजर या मरुस्थल का रूप ले चुकी है जो कुल कृषि भूमि का आधे से भी अधिक है। सरकार के वायदे के अनुसार इसे 2030 तक कृषियोग्य बनाना होगा क्योंकि ऐसा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर करने के लिए जरूरी है और दबाव तथा चेतावनी भी कि यदि ऐसा न हुआ तो देश में भारी संकट आ सकता है।
हमारे देश में खेतीबाड़ी की दृष्टि से जो उन्नत प्रदेश हैं उनमें सबसे पहले पंजाब, हरियाणा और उत्तर भारत के राज्य है । समस्या की दृष्टि से राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, जम्मू कश्मीर और कर्नाटक हैं जहां प्राकृतिक और मानवीय दोनों ही कारणों से जमीन से उतना लाभ नहीं मिलता जितना अपेक्षित है।
यह कोई कहावत नहीं बल्कि हकीकत है कि पंजाब और हरियाणा के जाट कहीं भी जाकर खेतीबाड़ी करें, वहां की जमीन उपजाऊ और उस इलाके को चमन न बना दें तो अपना नाम बदलवा लें।
जो किसान यह समझते हैं कि सही देखभाल न होने से जमीन इंसान की तरह बीमार पड़ सकती है, उसका इलाज करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। घर में किसी के अस्वस्थ होने का पता मुखिया को तुरंत चल जाता है उसी तरह किसान को भी अपनी जमीन और उसमें होने वाली फसल में किसी भी तरह का रोग होने का अहसास हो जाता है।
संवेदनशील किसान फौरन बीमारी की दवाई लाता है और लापरवाह उसे उसके हाल पर छोड़ देता है। विडंबना है कि आज देश में कृषि योग्य इतनी जमीन है कि कई महाद्वीपों की आबादी का पेट भर सके और हमारा किसान अपनी उपज का सही मूल्य पाने के लिए ही संघर्ष करते हुए दिखाई देता है। जिन्हें देश के विभिन्न राज्यों के ग्रामीण क्षेत्रों में जाने और काम करने का मौका मिला है, वे इस बात से भली भांति परिचित होंगे कि समान मौसम, सुविधाओं के होने पर भी एक जगह भरपूर फसल होती है तो दूसरी जगह जरूरत से भी कम होती है। इसका अर्थ यह हुआ कि जो मिट्टी का सम्मान करने पर ही आदर मिलता है।
किसान अगर खेतीबाड़ी को एक उद्योग की तरह मानकर अपनी जमीन पर खेती करें तो किसी के आगे झुकना नहीं पड़ेगा बल्कि वह मोहताज कहलाना तो दूर, किसी भी उद्योगपति से आर्थिक दृष्टि से बराबरी कर सकता है।
पानी, सिंचाई, प्रदूषण
जिन क्षेत्रों में कृषि भूमि बदतर हालत में है उसका प्रमुख कारण पानी है जो कभी वर्षा अधिक होने के कारण बाढ़ बनकर अपने साथ उपजाऊ मिट्टी की परत को बहाकर ले जाता है और कभी कम या बिल्कुल नहीं होने पर सूखे की स्थिति पैदा कर देता है और जमीन प्यासी रहकर कुछ भी उगाने के लायक नहीं रहती।
पानी से संबंधित दूसरा कारण है जल प्रदूषण जो कल कारखानों, उद्योगों से निकलने वाले रसायनों के नदी नालों के पानी में घुलकर सिंचाई के लिए किसान के खेत तक पहुंचकर उसकी फसल को प्रदूषित कर देता है। इसके अतिरिक्त अंडरग्राउंड वाटर भी जहरीले रसायनों से प्रदूषित होकर फसल खराब करने में बहुत तेजी से काम करता है।
इसके लिए सरकार से किसानों को यह मांग करनी चाहिए कि यदि प्रदूषित पानी से सिंचाई करने पर फसल को नुक्सान होता है तो उसकी भरपाई हो और जो भी सरकारी या गैर सरकारी उद्योग हो उसे तुरंत बंद किया जाए।
संरक्षण खेती
कृषि वैज्ञानिकों ने संरक्षण खेती या कंजर्वेशन एग्रीकल्चर के रूप में काफी समय पहले किसान को एक विकल्प दिया था। इस तरह की खेती का महत्वपूर्ण पक्ष जीरो टिलेज है जिसमें काफी कम लागत की मशीन से जुताई किए बिना बीजारोपण होता है। नीचे एक खुरपा लगा होता है जो जमीन की उतनी खुदाई करता है जितने में बीज समा जाए और फिर उसके बाद खेत में जो छीजन है वह उसे ढंक लेती है। इस तरह दो काम हो जाते है, बिना जुताई किए बुआई हो गई और छीजन या पराली जलाने की नौबत नहीं आई और वायु प्रदूषण के आरोप से बच गए।
संरक्षण खेती में जो मूल तत्व है वह यह कि इससे खेतों की उपजाऊ परत के नष्ट न होने में मदद मिलती है। इसके साथ ही इस परत पर छीजन पड़ जाने से सुरक्षित भी हो जाती है और स्थाई रूप से ऑर्गेनिक मिट्टी की परत बन जाती है।
इस तरह की खेती से फसल की अदला बदली यानी आज एक और कल दूसरी फसल ली जा सकती है। बहुत से देशों में इसके सफल परीक्षण हुए हैं और भारतीय कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार यह श्रेष्ठ पद्धति है।
इस बारे में मेरा निजी अनुभव है और विशेषज्ञों से चर्चा के अतिरिक्त इस पर एक फिल्म भी बनाई है ताकि इस तरीके का प्रचार प्रसार हो और किसान इसे अपनाने में रुचि दिखाएं।
संरक्षण खेती के अतिरिक्त एक सुझाव यह था कि किसान का पशुधन चरागाहों की समुचित व्यवस्था न होने से खेत में पौधों को अपना भोजन बनाता है और साथ में नष्ट भी बहुत करता है। इस समस्या का हल पशु चारे के लिए उपयुक्त चरागाहों का प्रबंध कर निकाला जा सकता है।
जमीन को उपजाऊ बनाए रखने के लिए कृषि वैज्ञानिकों और अनुभवी किसानों तथा जानकारों के अनुसार वाटर शेड मैनेजमेंट और वाटर हार्वेस्टिंग के जरिए जल संरक्षण और जल भंडारण के लिए बनाए गए जलाशयों, तालाबों के निर्माण और उनके रखरखाव के लिए समुचित योजनाएं बनाकर उन पर अमल किया जाय तो स्थाई रूप से किसान की अधिकतर समस्याएं हल हो सकती हैं।
भंडारण की व्यवस्था
कृषि के क्षेत्र में एक सबसे अधिक लाभदायक और किसानों के फायदे का काम होना चाहिए,, वह यह है कि किसान को उसके खेत के पास ही भंडारण यानी स्टोरेज की सुविधा मिलनी चाहिए जहां वह अपनी फसल रख सके और उसकी फसल के बिकने तक बैंक उसे एडवांस रकम दें ताकि वह अगली फसल के लिए अपने खेत तय्यार कर सके। इससे उसे अपनी उपज जिस किसी भी दाम पर बेचने की मजबूरी नहीं होगी और वह मंडी या बिचैलियों के शोषण से बच सकेगा।
सरकार इसमें उसकी मदद के लिए इतना तो कर ही सकती है कि किसान की आर्थिक स्थिति के अनुसार या तो उसे बिल्कुल मुफ्त दे या ज्यादा से ज्यादा सब्सिडी दे ताकि वह निश्चिंत होकर खेतीबाड़ी पर अपना पूरा ध्यान और समय लगा सके। अभी तो उसे इसके लिए पैसा और साधन जुटाने में अपना खून पसीना बहाना पड़ता है जो खेत में बहे तो उसके दिन फिर सकते हैं और वह खुशहाली की तरफ कदम बढ़ा सकता है।
सरकार की उदासीनता
असल में हमारे यहां दिक्कत यह है कि सरकार अपने पास खेती की नई तकनीक और टेक्नोलॉजी के होते हुए भी किसान तक पहुंचा नहीं पाती। किसान की आमदनी बढ़ाने की बात तो की जाती है लेकिन उसके लिए कोई कमिटमेंट न होने से किसान पुराने तरीकों से ही खेतीबाड़ी करता रहता है।
जहां तक कृषि भूमि के खराब होने के प्राकृतिक कारण जैसे भूकंप, सुनामी, भू स्खलन या वनों में लगने वाली आग है तो उस पर इंसान का वश न होने से ज्यादा कुछ तो नहीं किया जा सकता लेकिन यह तो किया ही जा सकता है कि हम अंधाधुंध कटाई कर वन विनाश न करें। पहाड़ों की जड़ों के खोखला होते जाने से उनके टूट कर गिरने से होने वाली तबाही से बचने का एकमात्र उपाय यही है कि वन संरक्षण के उपायों को अपनाया जाए और नदियों तथा पर्वतों में खनन का काम पैसों के लालच में आकर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने की तरह न किया जाए।
हमारे देश में कृषि और भूमि सुधार के लिए सरकार द्वारा अनेक योजनाएं और नीतियां बनती रही हैं और उन पर अमल करने के लिए अनेक कार्यक्रम चलाए जाते रहे हैं। इनका कितना असर होता है यह अपने आप में एक जांच का विषय है लेकिन इतना तो सच है कि खेतीबाड़ी की दशा और उपज की तादाद और गुणवत्ता में ज्यादा फर्क देखने को नही मिलता।
अगर हमें अपनी खेतीबाड़ी के लिए निर्धारित जमीन को पूरी तरह से अगले दस वर्ष में बंजर और मरुस्थल बनने से रोककर अंतरराष्ट्रीय मानकों पर खरा उतरना है, पूरी कृषि भूमि को उपजाऊ बनाना है तो उसके लिए अभी से इस तरह के उपाय करने होंगे जिनके सुखद और दूरगामी परिणाम हों ।
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