शुक्रवार, 25 दिसंबर 2020

उपभोक्ता अदालत में ‘तारीख पर तारीख‘ का चलन और मुकदमों का ढेर

 


24 दिसंबर उपभोक्ता दिवस के रूप में मनाया जाना अब केवल एक लकीर पीटने की तरह हो गया है। अखबार के किसी कोने में या टीवी के एक छोटे से समाचार के जरिए इसकी खबर इस तरह से मिलती है कि उसकी प्रतिक्रिया आश्चर्य से यह कहने जैसी होती है ओके, उपभोक्ता दिवस जैसी भी कोई चीज हैऔर फिर उसे भुला दिया जाता है।

असल में बात यह है कि दुनिया भर में उपभोक्ताओं के साथ हो रही जालसाजी, धोखाधड़ी, फरेब आदि के खिलाफ सशक्त कानून बनाए जाने की जरूरत महसूस हुई। उपभोक्ताओं को संगठित कर और इसे आंदोलन का रूप देने की नीयत से भारत में भी यह सोचा जाने लगा कि हमारे यहां तो रोज ही इस तरह के मामले होते हैं और खरीददार कुछ नहीं कर पाता तो यह सब सोच कर भारत सरकार ने उपभोक्ता संरक्षण कानून बना दिया।

दूर के ढोल सुहावने

यह कानून बहुत ताम झाम से बनाया गया और लगा कि अब गलत काम करने वालों की खैर नहीं, मानो उपभोक्ता को एक ऐसा शस्त्र या कवच मिल गया हो जिसके भरोसे वह निश्चिंत होकर खरीददारी कर सकता है और अगर किसी ने उसके साथ कुछ भी ज्यादती करने की कोशिश की तो कानून उसे तुरंत सजा देगा।

इस कानून पर अमल करने के लिए प्रत्येक जिले में उपभोक्ता मंच, राज्य में राज्य आयोग और राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय आयोग और उसके बाद उच्चतम न्यायालय से न्याय पाने की सुविधा, यह सब गठित कर दिया गया।

न्याय पाने की प्रक्रिया को सरल बनाने के लिए सादे कागज पर शिकायत लिखने, वकील की जरूरत न होने और कुछ ही हफ्तों में मामले में न्याय मिल जाने की व्यवस्था देख सुन कर मन में तसल्ली हुई कि अब दीवानी अदालतों में बरसों तक मुकदमेबाजी से बचा जा सकेगा और पैसे तथा समय की भी बचत होगी।

यहां तक तो सब ठीक था लेकिन वास्तविकता यह थी कि कागजों पर तो यह सब क्रियान्वित होता दिख रहा था लेकिन उस पर अमल करने की प्रक्रिया इतनी सुस्त, कमजोर और ढीली ढाली थी कि लोगों में इस कानून के प्रति अविश्वास होना शुरू हो गया।

नीति और नीयत का तालमेल

प्रारम्भ में इस कानून का व्यापक प्रचार प्रसार करने और जागो ग्राहक जागो की संकल्पना को साकार करने के लिए देश भर में उपभोक्ता आंदोलन जैसा माहौल बना।

यह गलत या बढ़ा चढ़ा कर कहने वाली बात नहीं है कि शुरुआत में इस कानून की वजह से लोगों को न्याय मिलने लगा था और वह काफी हद तक जागरूक होने लगा था।

इस कानून की बदौलत मिले अधिकारों को समझने भी लगा था। उसमें चीजों को देख परख कर, दूसरे उत्पादों से तुलना करने और दुकानदार से मोलभाव कर खरीददारी करने की आदत आने लगी थी। इसी के साथ वह यह कहना भी सीख गया था कि कंज्यूमर कोर्ट में घसीट लिया जाएगा अगर मेरे साथ कोई हेराफेरी करने की कोशिश भी की गई।

इसका असर भी देखने को मिलने लगा क्योंकि न्याय मिलने में बहुत देर नहीं लगती थी। मामले बढ़ने लगे और विडंबना यह हुई कि उपभोक्ताओं को संरक्षण देने वाली इस व्यवस्था में सेंध लगनी शुरू हो गई।

सरकार ने हरेक जिले और राज्य में उपभोक्ता अदालत तो बना दिए लेकिन उनके लिए जरूरी इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाने का काम सरकार की लालफीताशाही और ब्यूरोक्रेसी की भेंट चढ़ गया।

जिला उपभोक्ता मंचों में आज भी हालत यह है कि सदस्यों यानी न्यायाधीशों के बैठने के लिए टूटा फूटा फर्नीचर, सुविधाओं का अभाव और अपने मुकदमों की पैरवी के लिए आए लोगों के शोर से यह जगह किसी कबूतरखाने की तरह लगती है।

जब सदस्यों के लिए ही पर्याप्त सुविधाएं नहीं है तो फिर आम शिकायतकर्ता की तो बिसात ही क्या है। उसके बैठने तक की सुविधा ढंग की नहीं है और अगर कहीं किसी दिन ज्यादा केस हुए तो खड़े होने की भी जगह नहीं मिलती।

पता नहीं यह नियम है या परंपरा बन गई है कि उपभोक्ता अदालत में मामलों की सुनवाई पूरे दिन नहीं बल्कि केवल कुछ घंटों में ही सिमट गई है। अगर कहीं माननीय सदस्य गैरहाजिर हो गए फिर तो यह भी मुमकिन नहीं। इसी से जुड़ा है उनकी नियुक्ति का मामला। आज हजारों की संख्या में सदस्यों और अध्यक्षों के पद खाली पड़े हैं, वे कब भरे जाएंगे, कोई नहीं जानता। इस बीच मुकदमों के ढेर बढ़ते जाते हैं और कोई सुनवाई करना तो दूर यह बताने को तैयार नहीं कि यह इंतजार कब खत्म होगा।

एक मामले में तो उपभोक्ता अदालत को यह बताने में बारह साल लग गए कि संबंधित मामला उनकी परिधि में नहीं आता।

जो कानून निश्चित महीनों की अवधि में फैसला देने की बात कहता है, उसमें अब न्याय पाने के लिए सामान्य हालात में भी तीन से पांच साल तक लग सकते हैं। अगर मामला पेचीदा हुआ तो कितना वक्त लगेगा कोई नहीं जानता क्योंकि उच्चतम न्यायालय तक जाने या फैसलों को टालने की सुविधा पक्ष और विपक्ष दोनों के पास है।

इसके साथ यह भी सच है कि शिकायतकर्ता के सामने उत्पाद निर्माता के पास ऐसे वकीलों की कोई कमी नहीं जो किसी भी मामले को बरसों तक लटकाए रखने में उस्ताद हैं।

उपभोक्ता अपनी लड़ाई खुद लड़ता है क्योंकि कानून तो उसे यह सुविधा देता ही है पर वह आर्थिक दृष्टि से भी इतना संपन्न नहीं होता कि वकीलों की फीस दे सके, इसलिए वह ज्यादातर हार मान लेने और न्याय पाने को भूल जाने में ही अपनी भलाई समझता है।

उपभोक्ता अदालत में आने वाले अधिकतर मामले एकाध लाख या कुछेक हजार रूपए के होते हैं। अब अगर वह वकील की सेवा ले तो उसकी फीस देने में ही दसियों हजार देने पड़ जाएंगे। ऐसे में अगर उसके पक्ष में फैसला हुआ भी तो उसे क्या मिलेगा, यह सोचकर वह अन्याय सहने को ही अपनी किस्मत मान लेता है।

एक मामले में नामी कंपनी का लैपटॉप जिसकी कीमत 85 हजार थी, उसके खराब निकलने पर  शिकायत की तो उसका निपटारा होने में देर लगती देख अपने एक मित्र की सलाह पर वकील कर लिया तो उसके खर्च मे ही चालीस हजार निकल गए। दो साल बाद  न्याय मिलने की उम्मीद छोड़ दी और अपने को कम से कम मानसिक तनाव से तो मुक्त कर ही लिया।

उपभोक्ता संरक्षण कानून लागू करने में सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि इसमें पीड़ित व्यक्ति को हरियाली यानी सब्जबाग ज्यादा दिखाए जाते हैं और वह अपने को झूठ मूठ का पहलवान समझने लगता है।

हकीकत में यह कानून उपभोक्ता की मदद कम करता है और निर्माता की ज्यादा क्योंकि उसके साथ अन्याय हुआ है यह सिद्ध करने की जिम्मेदारी उसकी होती है जिसे वह इसलिए पूरी नहीं कर पाता क्योंकि कानून के छेदों का इस्तेमाल करने में दूसरा पक्ष माहिर, शातिर और ताकतवर होता है।

ज्यादातर मामले इसी बात पर खारिज कर दिए जाते हैं कि उपभोक्ता को सभी नियमों की जानकारी दे दी गई थी  ये नियम कुछ इस तरह से लिखे जाते हैं कि कोई वकील ही उन्हें समझ सकता है। फिर इतने छोटे अक्षरों में होते हैं कि पढ़ने के लिए दूरबीन खरीदनी पड़े, इसके साथ ही इतनी जल्दबाजी में उससे दस्तखत करा लिए जाते हैं कि उसके पास कोई चारा नहीं होता।

उपभोक्ता कानून से खिलवाड़ के मामले चिकित्सा के क्षेत्र में बहुत होते हैं और स्पष्ट लापरवाही होने के बावजूद डॉक्टर या अस्पताल साफ बच जाता है क्योंकि मरीज की जान का हवाला देकर सभी तरह के कागजों पर पहले ही हस्ताक्षर करवा लिए जाते हैं।

अगर इस बात पर विचार करें कि उपभोक्ता अदालत में पद कैसे भरे जाते हैं तो यह निकल कर आएगा कि इनके लिए राजनीतिक रसूख ज्यादा चाहिए, बनिस्बत इस पद की गरिमा के अनुकूल योग्यता के जिसमें किसी प्रकार की कानूनी डिग्री होने की बाध्यता न होकर केवल समाज सेवा का मुखौटा लगा लेना ही पर्याप्त है।

यही कारण है कि बरसों तक जिला फोरमों में नियुक्ति ही नहीं होती क्योंकि मंत्रियों या नियुक्ति अधिकारियों को अपनी पसंद का कोई बंदा ही नहीं मिलता।

पांच लाख से ज्यादा मामले पेंडिंग होना यही बताता है कि इस अच्छी न्याय प्रणाली में भी तारीख पर तारीख का चलन शुरू हो गया है जो इस बात को दिखाता है कि उपभोक्ताओं में शीघ्र न्याय पाने के प्रति अविश्वास की शुरुआत हो चुकी है। हालांकि इस कानून को नए कलेवर में 2020 में लागू किया जा चुका है लेकिन मूल प्रश्न वही है कि बिना समुचित इन्फ्रास्ट्रक्चर के कैसे इसका पालन होगा ?

हम जो हर बात में विदेशों की मिसाल देते हैं तो अमरीका, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया और एशियाई देशों में भी यह इतना सख्त है कि उपभोक्ता अधिकारों के उल्लंघन की हिम्मत करना निर्माता के लिए बर्बादी की तरफ बढ़ना है। हमारे यहां सख्त कानून के होते हुए भी उपभोक्ता अदालत में न्याय पाने की आशा करना मृग मरीचिका ही है।

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