हमारे देश में किसान को अन्नदाता, धरतीपुत्र, पालनहार तथा और भी न जाने कितने
विशेषणों से पुकारा जाता है और इसी लय में उन्हें मूर्ख, गंवार कहते हुए होशियार, लालची से लेकर अदूरदर्शी और सीमित
दायरे की सोच रखने वाला कुएं का मेंढक भी कह देते हैं।
एसडीएम नही उपभोक्ता अदालत में फैसला
नए कृषि कानूनों को लेकर यही कहा जा सकता है कि
वे बनाए तो किसान के हित में गए लेकिन उनका लाभ किसी और को होगा। इसीलिए उनके
विरोध में आंदोलन हो रहा है और यह बात गौर करने की है कि इस बार इसकी अगुआई वे
किसान कर रहे हैं जो पढ़े लिखे हैं और संपन्न हैं, उनके दोस्त,
रिश्तेदार अमरीका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में किसानी कर रहे हैं और इन्हें गुमराह करना
मुश्किल है।
किसान को सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि निजी
क्षेत्र के लोग आकर उनकी उपज मनमाने दाम पर खरीदेंगे, मंडियां खत्म हो जाएंगी और उन्हें
एमएसपी से भी कम दाम मिलेंगे। कोई विवाद होने पर वे एसडीएम की अदालत का दरवाजा
खटखटा सकते हैं।
इस समस्या को हल करने का बहुत ही आसान तरीका है
और जिस का जिक्र स्वामीनाथन जी ने भी किया
है और वह न्यायसंगत भी है।
उदाहरण के लिए एक घटना की याद दिलाई जा सकती है जिसमें एक महिला
किसान ने निजी क्षेत्र की कंपनी से अपनी उपज का कॉन्ट्रैक्ट किया और जब पैसे देने
की बारी आई तो अपने को चालाक समझने वाली कंपनी के अधिकारियों ने बहुत सी कमियां निकालते हुए कम दाम देने चाहे।
यह किसान महिला उपभोक्ता अदालत में गई तो उसे
इसकी परिधि में न आने वाला मामला बताकर नामंजूर कर दिया गया। मुकदमा राज्य आयोग और
फिर राष्ट्रीय आयोग गया जहां उसे उपभोक्ता मानते हुए उसको न्याय मिला और दाम के
साथ हर्जाना भी मिला।
इस घटना से सबक लेकर सरकार को कानून में संशोधन
करना चाहिए कि एसडीएम की अदालत के स्थान पर उपभोक्ता अदालतों मे विवाद के निपटारे
के लिए जाया जाय जहां सिविल अदालतों से जल्दी न्याय मिल जाता है।
सरकार भी कॉन्ट्रैक्ट का हिस्सा हो
दूसरी बात पर आते है और वह यह कि खरीददारी करते
वक्त दाम कम देने के लिए यह बहाना बनाया जाता है कि जो पैदावार हुई है उसके आकार
और गुणवत्ता में अंतर है। मामूली समझ रखने वाला भी यह जानता है कि एक ही पेड़ पर
लगने वाला फल या एक ही खेत में होने वाली पूरी उपज एक जैसी नहीं हो सकती।
यह ठीक वैसा ही है जैसे कि एक ही मातापिता की
संतान होने पर भी उनके गुण दोष अलग होते हैं लेकिन मां बाप उनके पालन पोषण में
भेदभाव नहीं करते। इसी तरह उपज के मामले में किसान को कम कीमत क्यों मिले जबकि
उसकी मेहनत उसे उगाने में एक जैसी हुई है।
इसलिए कानून में यह बदलाव होना चाहिए कि किसान
की पूरी फसल के लिए एक ही कीमत दी जाएगी और अगर कोई कॉन्ट्रैक्ट करता है तो
उसे जो कीमत तय हुई है उसे कम करने का
अधिकार नहीं होगा और उसे पूरी उपज एक ही दाम पर खरीदनी होगी।
खरीदने के बाद वह बाजार में किसी जिंस के आकार, क्वालिटी या वैरायटी के मुताबिक कम ज्यादा कीमत पर जैसे चाहे बेच कर
कितना भी मुनाफा कमाए।
तीसरी बात यह कि किसान को यह डर लगता है कि
खरीददार अपने वायदे से मुकर गया तो वह बर्बाद हो जाएगा।
इसका भी सरल उपाय यह है कि जो एग्रीमेंट हो वह
त्रिपक्षीय हो यानी उसमें किसान, खरीददार
के साथ डीएम स्तर का अधिकारी भी दस्तखत करे। ऐसा होने पर न तो किसान और न ही
खरीददार कॉन्ट्रैक्ट की शर्तों का उल्लंघन करने की गलती करेगा क्योंकि कानून के
हाथ लंबे होते हैं और आम तौर से कोई भी सरकार से दुश्मनी मोल लेना नहीं चाहेगा।
चैथी बात यह कि पचास वर्षों से भी अधिक समय से
जो मंडी व्यवस्था आज अपनी जड़ें मजबूती से कृषि क्षेत्र में जमा चुकी है, उसे कमजोर करने से सरकार को क्या हासिल
होगा, कुछ नहीं और फिर नई मंडियों को खड़ा
करने के लिए समय और धन का अपव्यय नहीं होगा ?
इसका उपाय यह है कि वक्त के साथ जो बुराइयां
मंडी व्यवस्था में आ गई हैं और वे राजनीतिक अखाड़े बनती जा रही हैं तथा नेताओं को
उन पर कब्जा करने की होड़ लगी रहती है क्योंकि मंडियों की ताकत पैसे और वोट बैंक से
आंकी जाने लगी है, तो बस इतना प्रावधान कर दीजिए कि
मंडियां राजनीतिज्ञ नहीं बल्कि खेतीबाड़ी के विशेषज्ञों द्वारा चलाई जाएंगी और
उन्हें आधुनिक टेक्नोलॉजी से संपन्न कर किसान की उपज बढ़ाने के उपायों पर काम करना
होगा।
पांचवीं बात यह कि किसान तक खेती के नए तरीके, आधुनिक उपकरण, खाद, उर्वरक और बिजली पहुंचने के उपाय इस तरह किए जाएं कि उस पर आर्थिक
बोझ न पड़े और वह इनका इंतजाम करने में अपना समय न लगाए बल्कि उस तक यह ऑटोमैटिक
ढंग से पहुंच जाएं और वह भी लगभग मुफ्त मिलें।
इसी के साथ इन्हें इस्तेमाल करना सीखने के लिए
उसे कहीं जाना न पड़े, मतलब यह कि उसके खेत में ही प्रयोगशाला
बनाई जाए, शिक्षक वहीं उसे प्रैक्टिकल ट्रेनिंग
दें और उसके सामने ही यह सिद्ध हो कि नई टेक्नोलॉजी सही है या पुरानी पारंपरिक
तकनीक ज्यादा सही है। किसान पर दबाव न हो क्योंकि वह जो कहेगा या सवाल पूछेगा वह
उसके अनुभव पर आधारित होंगे।
थोपने की गलती न हो।
अभी तक किसान पर नई टेक्नोलॉजी के नाम पर बहुत
सी चीजें थोपी जाती रही हैं जिनका उसके लिए खास उपयोग नहीं होता। यह ठीक वैसे ही
है जैसे कि सिपाही को कोई हथियार तब तक चलाने के लिए नहीं दिया जाता जब तक उसे
पूरी तरह सिखा न दिया गया हो। यही बात किसान पर लागू है। हकीकत यह है कि उस तक नई
टेक्नोलॉजी या उपकरण आसानी से पहुंच जाएं, यह
होता ही नहीं है, उन्हें इस्तेमाल करना सिखाया जाना तो
दूर की बात है।
कृषि मेले, प्रदर्शनियां
और ऐसे ही तामझाम उसके नाम पर आयोजित होते हैं लेकिन वह किसान के लिए सैर सपाटे से
अधिक नहीं होता और वह अपने खेत तक आते आते सब कुछ भूलकर अपने पुराने तरीकों से ही
खेतीबाड़ी करने लगता है।
छटी बात यह कि कृषि मंत्रालय, उसके अंतर्गत विस्तार निदेशालय और कृषि
अनुसंधान परिषद और उसके द्वारा संचालित कृषि प्रयोगशालाएं कही तो उसके लिए जाती
हैं लेकिन उनकी उपयोगिता उसके लिए कितनी है, इस
बारे में आजतक कोई अध्ययन नहीं हुआ। इन पर कितना धन व्यय हुआ और इनसे किसको कितना
लाभ हुआ इसका आकलन अगर कभी हुआ तो ऐसी तस्वीर सामने आ सकती है जो कमीशन, रिश्वत और आर्थिक षड्यंत्र उजागर कर
सकती है।
इनमें काम करने वाले अधिकारी हों या कृषि
वैज्ञानिक, वे सभी किसान की दिनचर्या से अनभिज्ञ, सूटबूट पहनकर वातानुकूलित कमरों में
बैठकर किसान की भलाई के लिए काम करने का दिखावा करते रहते हैं। उन्हें यह पता नहीं
होता कि दफ्तर या लेबोरेटरी में केमिकल की गंध और खेत की मिट्टी की महक में कितना
अंतर होता है। जिस तरह किसान यदि किसी प्रयोगशाला में चला जाय तो उसे रसायनों से
बदबू आयेगी उसी तरह लैब के कर्मचारी को खेत में दुर्गंध ही आएगी।
नई दिल्ली के पूसा इंस्टीट्यूट के खेतों में
विकसित टेक्नोलॉजी या बीज या तकनीक दूर देहात में रहने वाले किसान के लिए लाभकारी
होगी, यह मुंगेरी लाल के सपनों जैसा है
क्योंकि दोनों जगहों के मौसम या हालात बिल्कुल अलग हैं। इसीलिए अगर प्रयोगशाला हो
तो वह किसान के खेत में हो और उसकी जरूरत के अनुसार तय हो और उसकी सलाह को मानने
की मानसिकता कृषि वैज्ञानिकों में हो। ऐसा होने पर ही किसान की धरती सोना उगल सकती
है।
किसान विद्यालय स्थापित हों
सातवीं बात यह कि किसान को खेतीबाड़ी की शिक्षा
देने और उसे सभी नए अविष्कारों, खोज
और संसाधनों को बताने का काम करना है तो उसके लिए उसी तरह के किसान विद्यालय खोले
जाएं जैसे कि बड़ी उम्र के लोगों के लिए प्रौढ़ शिक्षा केंद्र खोले जाते हैं।
उसके बच्चों को लिए गांव में ही कृषि विद्यालय
हों जैसे कि प्राइमरी या मिडिल स्कूल होते है। इनमें उसे सामान्य पढ़ाई के साथ
खेतीबाड़ी की शिक्षा का सिलेबस इस तरह का हो जो उसके किसान मातापिता के विचारों के
साथ मेल खाता हो ताकि थियोरी और प्रैक्टिकल का तालमेल बना रहे।
आठवीं बात यह कि किसान को नकद पैसे की खैरात न
देकर उस तक वे संसाधन पहुंचाए जाएं जिनकी उसे खेती के लिए जरूरत है और जिनका
इस्तेमाल कर वह अपनी आमदनी बढ़ा सकता है। मिसाल के तौर पर 75
हजार करोड़ सालाना उसके खाते में डालने के बजाय उसके खेत के लिए खाद, बीज, ट्यूब वेल, ड्रिप इरिगेशन, तालाब, जौहड़ आदि का निर्माण कर स्थाई सुविधाएं मुहैय्या करा दी जाती तो उसके
बेहतर परिणाम निकलते।
किसान आंदोलन तो एक न एक दिन अभी या कुछ समय
बाद समाप्त हो ही जाना है लेकिन यदि सरकार अपनी सोच में परिवर्तन कर ले और बनावटी
किसान हितैषी दिखने के बजाय वास्तविक रूप में किसानों के हित में काम करने लगे तो
न तो कानून की खामियों के कारण किसान को आंदोलन करना पड़ेगा और न ही उसकी इतनी
फजीहत होगी जो अपनी कहीं बात को वापिस लेने से होती है।
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