भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में जहां समस्त देशवासियों ने अपनी सामर्थ्य के अनुसार योगदान किया, वहां इसका नेतृत्व करने में लगी एक पूरी पीढ़ी की एकजुटता और देश के प्रति समर्पण की यह भावना भी थी कि चाहे रास्ता कोई भी हो, मंजिल राष्ट्र को अंग्रेजों से मुक्त कराने की है।
इसके लिए गांधी ने सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह की राह दिखाई तो सुभाष ने सशस्त्र क्रांति का मार्ग अपनाया। इसी तरह अन्य सेनानियों ने भी अपने व्यवहार से मुक्ति संग्राम में शामिल होकर अपनी श्रेष्ठ भूमिका निभाई।सा
त्रिमूर्ति
महात्मा गांधी को बापू और राष्ट्रपिता कहकर सुभाष ने अपनी देशभक्ति का परिचय दिया तो गांधी जी ने उन्हें देशभक्तों का देशभक्त कहा और वैचारिक मतभेद होते हुए भी उन्हें अपने पुत्र की भांति स्नेह दिया।
जवाहर लाल नेहरू तो सुभाष के बड़े भैया थे ही। जब एक बार अपनी भतीजी द्वारा गुलाब का फूल डंडी समेत नेहरू को दिये जाने से पहले सुभाष ने डंडी साफ कर गुलाब का फूल उनके कोट में टांक दिया और कांटा चुभ जाने से जो रक्त निकला तो नेहरू ने उसकी ओर ध्यान दिलाया ही था कि सुभाष ने यह कहकर अपना कर्तव्य पूरा किया कि गुलाब तुम्हारे और कांटे मेरे हिस्से के हैं।
इसमें कोई विवाद नहीं है कि नेहरू और सुभाष दो भाइयों की तरह थे और गांधी जी दोनों ही के लिए पितातुल्य थे। इसका प्रमाण गांधी जी की इच्छा के विरुद्ध सुभाष का कांग्रेस का अध्यक्ष पद जीतने पर अपने को अलग कर दूसरी राह पकड़ लेना और गांधी जी का बिना किसी वैमनस्य के सुभाष को पुत्रवत स्नेह देना है।
यह कोई साधारण बात नहीं है बल्कि वर्तमान पीढ़ी के लिए संदेश है कि राजनीतिक दल आपस में विचारधारा को लेकर चाहे कितने भी अलग हों, आपसी व्यवहार में वे एक परिवार की तरह ही होने चाहिएं।
इसके विपरीत आज देखने में आता है कि एक दूसरे के विरोध में नेता एक दूसरे पर व्यक्तिगत आरोप लगाते हुए शिष्टता की सभी हदें पार कर जाते हैं। गालियां ही नहीं देते, मरने की कामना करते हैं और इसके लिए साजिश तक करते हैं।
जो लोग सोचते और कहते हैं कि गांधी, नेहरू एक तरफ और सुभाष दूसरी तरफ, तराजू के दो पलड़ों की तरह हैं तो इसमें अतिशयोक्ति नहीं है। हालांकि यह उनकी विचारधारा तक ही सीमित था, असल में उनके व्यवहार में एक दूसरे के प्रति इतना आदर और सम्मान था कि इस त्रिमूर्ति को अलग अलग रखकर आजादी की लड़ाई में उनके योगदान को समझा ही नहीं जा सकता।
इसका एक उदाहरण यह है कि जब सुभाष विदेशों में हथियार जमा कर रहे थे तो भारत में गांधी जी भारत छोड़ो आंदोलन शुरू कर रहे थे। अगर इन दोनों में कोई मतभेद होता तो सुभाष बधाई न देते और गांधी जी उनकी सफलता की कामना नहीं करते।
महात्मा गांधी जानते थे कि भारतवासी गुलामी की जंजीरों में इतने जकड़ चुके हैं कि ताकतवर अंग्रेज से हथियारों के बल पर नहीं जीत सकते तो उन्होंने अहिंसा और सत्याग्रह का मार्ग दिखाया।
सुभाष समझते थे कि दुश्मन को उसी की भाषा में जवाब दिया जाना सही है। वे गांधी जी की इस बात से सहमत थे कि भारतवासी सशस्त्र संघर्ष नहीं कर पाएंगे तो इसका हल उन्होंने दूसरे देशों से हथियार जुटाने और अपना ही सैन्य बल तैयार करने से निकाला। इसमें उन्होंने अधिनायकवादी हिटलर और मुसोलिनी जैसे डिक्टेटर से भी मदद लेने में संकोच नहीं किया।
यह संगत का ही परिणाम कहा जा सकता है कि गांधी प्रजातंत्र के हिमायती थे तो सुभाष देश के लिए बीस वर्ष तक डिक्टेटरशिप को सही मानते थे। जहां तक इस बात को उछाला जाता रहा है कि आजादी गांधी और नेहरू के कारण मिली या सुभाष के कारण तो बाबा साहेब आंबेडकर ने भी सुभाष को महानायक माना।
सुभाष और उनकी आजाद हिन्द फौज ने जिस बहादुरी और जोखिम से स्वतंत्रता संग्राम लड़ा, उसकी मिसाल दुनिया में शायद ही किसी दूसरे देश में मिले। कदाचित यही कारण है कि जय हिन्द का नारा और कदम कदम बढ़ाए जा गीत आज तक हरेक की जुबान पर है।
क्या सीख
सकते हैं
आज के दौर में इस बात पर बहस या आपस में तुलना करना बेमानी है कि अगर गांधी या सुभाष जीवित होते तो भारत कैसा होता ? आजादी की लड़ाई एक अलग मानसिकता से लड़ी गई थी और स्वतंत्र भारत को विश्व में अग्रणी बनाने के लिए संघर्ष करना बिल्कुल अलग सोच है।
हक़ीकत यही है कि न आज गांधी जी की विचारधारा पर चला जा सकता है और न ही सुभाष की कार्यशैली को अपनाया जा सकता है। गांधी और सुभाष का नाम लेकर अपनी स्वार्थ सिद्धि अवश्य की जा सकती है।
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