तीस जनवरी, 1948 को महात्मा गांधी का बलिदान आजादी के बाद देशवासियों के लिए विभाजन
की विभीषिका झेलने के बाद ऐसा झटका था जिसने सभी को झकझोर दिया था।
इस बार गणतंत्र दिवस पर लाल किले पर जो हुआ
उससे बापू की आत्मा भी चीत्कार कर उठी होगी क्योंकि इसने पूरे देश को यह सोचने पर
विवश कर दिया है कि अब तक हम जिस राष्ट्रीय एकता की बात करते रहे हैं, उसमें कोई खोट तो नहीं है।
प्रश्न उठता है कि गांधी द्वारा की गई ग्राम
स्वराज की कल्पना, आज के किसान आंदोलन की आड़ में अपनी
स्वार्थ सिद्धि के लिए सभी हदें पार करना, प्रत्येक
नागरिक के मन में विरोध और कड़वाहट पैदा कर देना क्या हमारे प्रजातंत्र की बखिया
उधेड़ने का प्रयत्न नहीं है ?
किसान की बदहाली
गांधी जी ने किसान की खुशहाली को देश की
समृद्धि का मापदंड माना था अर्थात संपन्नता का रास्ता खेत से निकालना था। ग्रामीण क्षेत्रों का विकास इस तरह करने की बात
कही थी कि किसानी और ग्रामोद्योग एक साथ फले फूलें और ग्राम समाज इतना आत्मनिर्भर
हो कि शहरों की जरूरतें पूरी करने में प्रमुख भूमिका निभा सके।
विडंबना यह है कि आज ग्रामवासी और विशेषकर
किसान सरकार द्वारा दी जाने वाली आर्थिक सहायता, सब्सिडी और कर्जमाफी की नीतियों के कारण अपने पैरों पर खड़ा होने में
असहाय हो गया है।
इसे इस प्रकार से समझना होगा। प्रकृति ने हमें जल के रूप में जीवन रक्षक, वायु के रूप में प्राण रक्षक, पृथ्वी के रूप में पालनहार, सूर्य के रूप में ऊर्जा का संचार और
जंगल तथा पर्वत के रूप में पहरेदार रूपी तत्व दिए।
अब यह मनुष्य के ऊपर था कि वह इनका अपनी जरूरत
के अनुसार इस्तेमाल करे या लोभ और लालच में आकर इनका इतना दोहन करे कि प्राकृतिक
संतुलन ही बिगड़ जाए !
हमने दूसरा रास्ता चुना जिसका परिणाम जहां एक
ओर ग्रामीण क्षेत्रों की अवहेलना से उत्पन्न समस्याएं जैसे खेतीबाड़ी करना घाटे का
काम होते जाना, शहरों में पलायन, बेरोजगारी तथा गरीबी के विस्तार के रूप
में निकला तो दूसरी ओर कुछ मुठ्ठी भर लोगों के हाथ में इतनी धन सम्पत्ति जमा हो गई
कि उन्होंने शोषण, मनमानी और अत्याचार तक करना अपना
जन्मसिद्ध अधिकार समझ लिया।
आज यह जो आंदोलन होते हैं, जिनमें चाहे किसान आंदोलन हो, मजदूरों का संघर्ष हो या अपने मूलभूत
अधिकारों को बहाल किए जाने की लड़ाई हो, उसकी
जड़ यही है कि अधिकतर लोग दो वक्त की रोटी कमाने के फेर में ही पूरा जीवन गुजारने
के लिए मजबूर हैं। इसके विपरीत उंगलियों पर गिने जा सकने वाले लोग या घराने हैं
जिनके हाथ में अधिकांश संसाधन हैं और जो कोई भी सरकार या प्रशासन हो, उसे अपने इशारों पर नचा सकने में समर्थ
हैं।
अगर हम महात्मा गांधी की बात करें तो वह इसी
कारण प्राकृतिक संतुलन को बनाए रखने के हिमायती थे ताकि अमीर और गरीब के बीच जमीन
आसमान का अंतर न हो।
यह कहना कि आबादी बढ़ने से संतुलन बिगड़ा है, एक तरह से हकीकत से नजरें चुराना
है। कुदरत ने सबकी आवश्यकताओं को पूरा
करने के लिए पर्याप्त साधन तो दिए हैं लेकिन किसी के लोभ लालच को पूरा करने के लिए
कतई नहीं।
यह तो हो सकता है कि आज बापू गांधी की कही सभी
बातें पूरी तरह से सभी मामलों में खरी न उतरें पर उनके मूल सिद्धांत कि हमारा देश
कृषि अर्थव्यवस्था पर ही आधारित हो तो यह पूरी तरह से सही है।
आधुनिकता या पराधीनता
आप कृषि और ग्रामीण क्षेत्रों में आधुनिक
संयंत्रों और विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के आधार पर खेतीबाड़ी तथा उद्योग धंधे तो
लगा सकते हैं लेकिन इसके लिए वहां कंक्रीट जंगल खड़े करने के लिए उपजाऊ जमीन और
वनों का बलिदान नहीं कर सकते।
हमने इस सिद्धांत के विपरीत जाकर खेतीबाड़ी को
घाटे का सौदा बनाने का काम किया और किसान तथा ग्रामवासियों को गरीब बने रहने दिया
ताकि वे कभी स्वावलंबी न हो सकें और अपना पेट भरने तक के लिए सरकारी अनुदान पर
निर्भर हो जाएं।
आज भी पांच सौ रुपए में पूरे महीने भर गुजारा
करने की उम्मीद किसान या ग्रामवासी से की जाती है जबकि इतनी रकम शहरों में कुछ ही
मिनट की खरीददारी में खर्च हो जाती है। इसी विषमता ने देहात और शहर के बीच इतना
असंतुलन पैदा कर दिया है कि दोनों एक दूसरे के खिलाफ मोर्चा खोले दिखाई देते हैं।
समान आधार पर विकास की संभावनाएं न होने से
आर्थिक विषमता तो बढ़ी ही है, नफरत
भी बढ़ी है और अब तो स्थिति यह हो गई है कि अगर कोई वास्तव में किसान या
ग्रामवासियों की भलाई की योजना लाता भी है तो उसे शक की निगाह से देखा जाता है।
व्यक्ति नहीं बुराई दूर होनी चाहिए
वर्तमान परिस्थितियों में कृषि कानूनों का
विरोध और कुछ लोगों द्वारा इन्हें पूर्ण रूप से वापिस लेने का आंदोलन इसी अविश्वास
पर आधारित है जिसमें सच्चाई की जगह जिद और मिथ्या भ्रम को अधिक महत्व दिया जा रहा
है। निष्पक्ष रूप से विचार किया जाए तो यह कानून कुछ संशोधनों के साथ फिर से
प्रस्तुत किए जाएं तो न केवल सभी पक्षों को मंजूर हो सकते हैं बल्कि देहाती
क्षेत्रों के विकास की मजबूत नींव भी पड़ सकती है।
यदि कोई उद्योगपति किसान की सुविधा और शर्तों
के आधार पर खेतीबाड़ी में हिस्सा लेना चाहता है, भंडारण
और फूड प्रोसेसिंग यूनिट लगाकर पूरे क्षेत्र की समृद्धि में योगदान करना चाहता है
तो उसमें कोई बुराई नहीं है, बल्कि
गांधी जी की संकल्पना कि शहरों की पूंजी गांव देहात में लगे, उसकी भी पूर्ति है।
यहां एक बात और समझ लेनी होगी कि जब तक किसान
और उद्योगपति एक ही पायदान पर खड़े होकर बराबरी के आधार पर एक दूसरे के साथ नहीं
आयेंगे तब तक ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत नहीं किया जा सकता।
यदि किसान और ग्रामवासियों को खुशहाल होना है
और आत्मनिर्भर बनना है तो उन्हें उद्योगपति के साथ बैठकर समान हितों को सुरक्षित
रख कर, व्यापार और व्यवसाय के सिद्धांतों का पालन
करते हुए आगे बढ़ना ही होगा। इसमें भय, शंका
और अविश्वास को छोड़कर सहयोग और सहकारिता को ही अपनाना होगा, इसी में कल्याण है।
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