शनिवार, 9 जनवरी 2021

आत्मनिर्भर भारत महात्मा गांधी से लेकर वर्तमान सरकार तक

 


कोरोना महामारी जब अपने प्रचंड रूप में देश और दुनिया में हाहाकार मचा रही थी, उस समय भारत सरकार देश को आत्मनिर्भर बनाने की योजनाओं की घोषणा कर रही थी। लगभग  प्रतिदिन वित्त मंत्री तथा उनके सहयोगी आर्थिक मोर्चे पर जनता की भलाई और उसके मनोबल को बनाए रखने के लिए बनाई गई नीतियों की व्याख्या टीवी के माध्यम से कर रहे थे।

इसी दौरान बीस लाख करोड़ का पैकेज भी घोषित हुआ जो किसान, व्यापारी, उद्योगपति से लेकर सामान्य नौकरीपेशा या अपना छोटा मोटा कारोबार करने वाले तक के लिए लाभकारी बताया जा रहा था।

उस समय सभी लोग घरों में बंद थे, बाहर निकलने का मतलब अदृश्य वायरस की चपेट  में आकर अपना जीवन खतरे में डालना था। टीवी ही एकमात्र साधन था जिससे संसार भर में हो रही हलचल के बारे में पता चल जाता था। केवल बहुत जरूरी कामकाज हो रहे थे, ऐसे में लगता था कि सरकार जनता की भलाई के लिए कितनी चिंतित है और उसे सुकून पहुंचाने के लिए दिन रात मेहनत कर रही है।

तोहफा या गले की हड्डी

आत्मनिर्भर पैकेज भी सरकार की तरफ से दिया गया ऐसा ही तोहफा था और आश्चर्य होता था कि सरकार ने जन कल्याण के लिए कैसे आनन फानन में इतनी सारी योजनाएं बना डालीं। आत्मनिर्भर पैकेज तो एक तरह से पूरा बजट ही था जिसके दूरगामी परिणाम होने वाले थे।

उसी दौरान किसान बिल भी बन गया जो जल्दबाजी में या जानबूझकर तुरंत लागू भी कर दिया गया। इसे लेकर आज सरकार की जितनी फजीहत हो रही है, उससे लगता है कि या तो सरकार के मन में कुछ और था या फिर किसान ही समझ से इतना पैदल है कि उसे अपना अच्छा बुरा समझने की तमीज नहीं है।

एक और उदाहरण है। सरकार ने व्यापारियों को राहत देते हुए घोषणा की कि पुराने भुगतान 45 दिन में लेनदार के खाते में आ जाने चाहिएं। हकीकत यह है कि जब किसी ने अपने पुराने बिलों के भुगतान की बाबत इस नए आदेश के अनुसार कार्यवाही करने की बात कही तो जवाब मिलता था कि हमारे पास कोई आदेश नहीं आया और यह कि कोरोना के चलते कोई काम नहीं हो सकता। इस तरह के और भी बहुत से उदाहरण दिए जा सकते हैं और लगभग हर कोई सरकारी अधिकारियों से लेकर नेताओं तक से उनकी टालमटोल की आदत का शिकार हो रहा था।

जिस तरह किसान बिल पर चर्चा और पुनर्विचार की मांग उठ रही है, उसी तरह इस पूरे पैकेज पर जनता के बीच और संसद में बहस होनी चाहिए ताकि इन योजनाओं को तर्क और व्यावहारिकता की कसौटी पर खरा उतरने के बाद ही लागू करने का काम शुरू किया जाए।

परिवहन सुविधाएं, सड़क निर्माण, फ्रेट कॉरिडोर, यातायात व्यवस्था, व्यापार और उद्योग के लिए दी जाने वाली सुविधाएं आदि तो सरकार के सामान्य कार्यों में आते हैं तो फिर बीस लाख करोड़ के पैकेज से आम आदमी को गुमराह क्यों किया जा रहा है ?

प्रवासी महात्मा गांधी

नौ जनवरी को देश में प्रवासी दिवस मनाने का चलन है जिसमें विदेशों में बसे भारतीयों को अपने देश में बुलाने, उनसे चर्चा करने ताकि वे  अपनी कमाई में से कुछ यहां खर्च करें या मोटी रकम निवेश करें, उन्हें अलग से सुविधाएं देने और यह विनती करने कि अब बहुत रह लिए विदेश में, अपने वतन में लौट आइए, हम आपका स्वागत करने को तैयार बैठे हैं।

कुछ प्रवासी सरकार की बातों में आकर यहां आ भी जाते हैं लेकिन यहां जो लेट लतीफी और भ्रष्टाचार का तंत्र है, उससे परेशान होकर वापिस लौटने में ही अपनी भलाई समझते हैं। अभी वे जिन देशों में रहकर अपनी बुद्धि और कौशल के बल पर अपना विशेष स्थान बनाए हुए हैं और वहां की सरकारें उनकी पूरी मदद करती हैं, भारत आते ही यहां उन्हें नियम, कानून की बेड़ियों में जकड़ा जाने जैसी फीलिंग होती है और वे अपने वतन की खिदमत करना भूलकर वापिसी का टिकट कटा लेते हैं।

यह जो प्रवासी दिवस है, इसे मनाने की तारीख नौ जनवरी इसलिए रखी गई थी क्योंकि इसी दिन सन 1915 में मोहन दास करमचंद  गांधी सबसे पहले भारतीय प्रवासी के रूप में अपने गुरु गोपाल कृष्ण गोखले के आह्वान पर भारत आए थे और देश की सेवा करने का संकल्प लिया था।

उन्होंने सबसे पहला काम यह किया कि देश को जानने, समझने के लिए भारत भ्रमण पर निकल गए। उस दौर में आने जाने की सुविधाएं आज की तरह न होने से जितना भी घूम फिर सके, उनके लिए काफी था। जिस प्रकार खिचड़ी के एक चावल की जांच करना ही काफी है कि वह पक चुकी है या अभी कच्ची है, उन्हें समझने में देर नहीं लगी कि भारत को गुलाम बनाए रखने की अंग्रेज की चाल क्या है और इस गुलामी से बाहर निकालने के लिए क्या करना जरूरी है ?

अंग्रेज ने केवल इतना किया था कि हमें मानसिक रूप से इतना कुंद कर दिया था कि हमें उसकी बुराइयों में भी अच्छाईयां दिखाई देती थीं। शारीरिक क्षमता में मजबूत होते हुए भी हम उसके पतले दुबले पहलवान से भी हार जाते थे, उसके पुचकारने पर दुम हिलाने जैसा और मारने पर हाथ जोड़ कर माफी मांगने जैसा व्यवहार करने के आदी हो गए थे।

आत्म निर्भर होने का पाठ

बापू गांधी के सामने चुनौती थी कि कैसे देशवासियों को मानसिक दासता से मुक्त किया जाए ताकि वे अपनी हीनभावना और कुंठा से अलग हटकर अपने को सक्षम मानना शुरू करें।

यह मुश्किल काम था लेकिन गांधी ने चरखा देकर और खादी धारण करने और गांव में ही जो कुछ काम धंधा, रोजगार हो सकता था, उसके लिए आसपास उपलब्ध साधनों से अपनी रोजी रोटी कमाने और खेतीबाड़ी को प्राथमिकता देकर पेट भरने लायक अनाज उगाने का ऐसा मंत्र दिया कि देशवासी आत्मनिर्भर होने की तरफ चल पड़े।

अंग्रेज इस चरखे का मजाक उड़ाता रह गया और पूरा देश अंदर से इतना शक्तिशाली होता गया कि अंग्रेज को भगाने की तैयारी करने लगा। इसमें उन्होंने अहिंसा और सत्याग्रह को शामिल कर दिया जिससे अंग्रेज कुछ न समझने के कारण बौखला गया और नतीजा यह हुआ कि उसके दमन चक्र से भी भारतीयों की हिम्मत नहीं टूटी और वे दिन पर दिन मजबूत होते गए।

गांधी ने ग्रामीण उद्योग, खादी व कुटीर उद्योग और अपने ही संसाधनों का ठीक से इस्तेमाल करने की ऐसी परंपरा शुरू कर दी जो हमें अपने पैरों पर खड़ा होने में रामबाण औषधि सिद्ध हुई।

इसे कहते हैं आत्मनिर्भरता अर्थात एक संकल्प कि हम किसी से कम नहीं और किसी को पछाड़ने की हमारी नीयत नहीं लेकिन आगे निकलने की दौड़ में सबसे आगे।

प्रथम प्रधान मंत्री नेहरू ने देश में वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं, औद्योगिक प्रतिष्ठानों से उन्हें जोड़ने और आधुनिक सुविधाओं से देश को संपन्न करने का काम शुरू किया अर्थात मजबूत नीव डालनी शुरू की। उनसे एक गलती यह हुई कि वे गांव देहात को कम और शहरों को ज्यादा प्राथमिकता देने लगे जबकि इसका उल्टा होना चाहिए था क्योंकि हम  कृषि प्रधान देश रहे हैं।

ग्रामीण क्षेत्र वीरान होते गए और शहरों के नाम पर कंक्रीट जंगल अस्तित्व में आते गए। यही गलती अब तक होती रही है और अब जाकर सरकार का ध्यान ग्रामीण क्षेत्रों की तरफ जाना शुरू हुआ है।

मिसाल के तौर पर हमारा जो मैनुफैक्चरिंग सेक्टर है वह इंपोर्टेड साज सामान हो या मशीनरी, उस पर निर्भर हो गया जबकि होना यह चाहिए था कि हम अपने ही संसाधनों से और स्वदेशी तकनीक से अपने कल कारखाने और उद्योग चलाते और उन्हें ग्रामीण इलाकों में स्थापित कर गांव देहात को समृद्ध करते और शहरों के साथ संतुलन बिठाकर काम करते।

आत्म निर्भर भारत को लेकर सरकार की सोच चाहे कितनी अच्छी हो लेकिन बेहतर होगा कि उसके सिपहसालार महात्मा गांधी की तरह देश के भीतरी हिस्से में जाकर अध्ययन करें, स्थानीय लोगों से बातचीत करें और अपनी योजनाओं पर आम आदमी की राय लें और उससे पूछें कि अगर उन्हें लागू किया जाए तो क्या ये उसे मंजूर होंगी और क्या इनसे उसका जीवन बदल सकता है और वह खुशहाल हो सकता है।

अगर उत्तर हां में मिलता है तो आगे बढ़ें और ना में मिलता है तो इस पूरे आत्म निर्भर पैकेज पर फिर से विचार कर नए सिरे से बनाएं वरना होगा यह कि जैसे आज किसान यह कह रहा है कि जब उसे यह बिल चाहिए ही नहीं तो क्यों उस पर लादने की कोशिश हो रही है, उसी तरह अन्य क्षेत्रों में भी विरोध होना शुरू हो जाएगा।

कहीं ऐसा न हो कि जनता उसके अन्य सुधारों को भी रद्द कर दे और देश को आत्म निर्भर बनाने का संकल्प अधूरा रह जाए। 

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